श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 9) | Shrimad Bhagavatam Hindi

हरे कृष्ण। इस पोस्ट में श्रीमद भागवत महापुराण के स्कन्ध 9 के सम्पूर्ण अर्थ संग्रह किया हुआ है। आशा है आप इसे पढ़के इसी जन्म में इस जन्म-मरण के चक्कर से ऊपर उठ जायेंगे और आपको भगवद प्राप्ति हो जाये। तो चलिए शुरू करते हैं – जय श्री राधा-कृष्ण

श्रीमद् भागवत महापुराण – स्कन्ध 9: मुक्ति

अध्याय 1: राजा सुद्युम्न का स्त्री बनना

श्लोक 1: राजा परीक्षित ने कहा : हे प्रभु शुकदेव गोस्वामी, आप विभिन्न मनुओं के सारे कालों का विस्तार से वर्णन कर चुके हैं और उन कालों में असीम शक्तिशाली भगवान् के अद्भुत कार्यकलापों का भी वर्णन कर चुके हैं। मैं भाग्यशाली हूँ कि मैंने आपसे ये सारी बातें सुनीं।

श्लोक 2-3: द्रविड़ देश के साधु राजा सत्यव्रत को भगवत्कृपा से गत कल्प के अन्त में आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और वह अगले मन्वन्तर में विवस्वान का पुत्र वैवस्वत मनु बना। मुझे इसका ज्ञान आपसे प्राप्त हुआ है। मैं यह भी जानता हूँ कि इक्ष्वाकु इत्यादि राजा उसके पुत्र थे जैसा कि आप पहले बता चुके हैं।

श्लोक 4: हे परम भाग्यशाली शुकदेव गोस्वामी, हे महान् ब्राह्मण, कृपा करके हम सबको उन सारे राजाओं के वंशों तथा गुणों का पृथक्-पृथक् वर्णन कीजिये क्योंकि हम आपसे ऐसे विषयों को सुनने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं।

श्लोक 5: कृपा करके हमें वैवस्वत मनु के वंश में उत्पन्न उन समस्त विख्यात राजाओं के पराक्रम के विषय में बतलायें जो पहले हो चुके हैं, जो भविष्य में होंगे तथा जो इस समय विद्यमान हैं।

श्लोक 6: सूत गोस्वामी ने कहा : जब वैदिक ज्ञान के पंडितों की सभा में परम धर्मज्ञ शुकदेव गोस्वामी से महाराज परीक्षित ने इस प्रकार प्रार्थना की तो वे इस प्रकार बोले।

श्लोक 7: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे शत्रुओं का दमन करने वाले राजा, अब तुम मुझसे मनु के वंश के विषय में विस्तार से सुनो। मैं यथासम्भव तुम्हें बतलाऊँगा यद्यपि सौ वर्षों में भी उसके विषय में पूरी तरह नहीं बतलाया जा सकता।

श्लोक 8: जीवन की उच्च तथा निम्न अवस्थाओं में पाये जाने वाले जीवों के परमात्मा दिव्य परम पुरुष कल्प के अन्त में विद्यमान थे जब न तो यह ब्रह्माण्ड था, न अन्य कुछ था। केवल वे ही विद्यमान थे।

श्लोक 9: हे राजा परीक्षित, भगवान् की नाभि से एक सुनहला कमल उत्पन्न हुआ जिस पर चार मुखों वाले ब्रह्माजी ने जन्म लिया।

श्लोक 10: ब्रह्माजी के मन से मरीचि ने जन्म लिया और मरीचि के वीर्य तथा दक्ष महाराज की कन्या के गर्भ से कश्यप प्रकट हुए। कश्यप द्वारा अदिति के गर्भ से विवस्वान ने जन्म लिया।

श्लोक 11-12: हे भारतवंश के श्रेष्ठ राजा, संज्ञा के गर्भ से विवस्वान को श्राद्धदेव मनु प्राप्त हुए। श्राद्धदेव मनु ने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया था। उन्हें अपनी पत्नी श्रद्धा के गर्भ से दस पुत्र प्राप्त हुए। इन पुत्रों के नाम थे—इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करूषक, नरिष्यन्त, पृषध्र, नभग तथा कवि।

श्लोक 13: आरम्भ में मनु के एक भी पुत्र नहीं था। अतएव उसे पुत्रप्राप्ति के लिए आध्यात्मिक ज्ञान में अत्यन्त शक्तिशाली मुनि वसिष्ठ ने मित्र तथा वरुण देवताओं को प्रसन्न करने के लिए एक यज्ञ सम्पन्न किया।

श्लोक 14: उस यज्ञ के दौरान मनु की पत्नी श्रद्धा, जो केवल दूध पीकर जीवित रहने का व्रत कर रही थी, यज्ञ कराने वाले पुरोहित के निकट आई, उसे प्रणाम किया और उससे एक पुत्री की याचना की।

श्लोक 15: प्रधान पुरोहित द्वारा यह कहे जाने पर “अब आहुति डालो” आहुति डालने वाले (होता) ने आहुति डालने के लिए घी लिया। तब उसे मनु की पत्नी की याचना स्मरण हो आई और उसने ‘वषट्’ शब्दोच्चार करते हुए यज्ञ सम्पन्न किया।

श्लोक 16: मनु ने वह यज्ञ पुत्रप्राप्ति के लिए प्रारम्भ किया था, किन्तु मनु की पत्नी के अनुरोध पर पुरोहित के विपथ होने से इला नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। इस पुत्री को देखकर मनु बिल्कुल प्रसन्न नहीं हुए। अतएव वे अपने गुरु वसिष्ठ से इस प्रकार बोले।

श्लोक 17: हे प्रभु, आप लोग वैदिक मंत्रों के उच्चारण में पटु हैं। तो फिर वांछित फल से विपरीत फल क्यों निकला? यही पश्चात्ताप का विषय है। वैदिक मंत्रों का ऐसा उल्टा प्रभाव नहीं होना चाहिए था।

श्लोक 18: तुम सभी संयमित, संतुलित तथा परम सत्य से परिचित हो। तुम सबने अपनी तपस्याओं के द्वारा सारे भौतिक कल्मष से अपने को पूरी तरह स्वच्छ कर लिया है। तुम सबके वचन देवताओं के वचनों की तरह कभी मिथ्या नहीं होते। तो फिर यह कैसे सम्भव हुआ कि तुम सबका संकल्प विफल हो गया?

श्लोक 19: मनु के इन वचनों को सुनकर अत्यन्त शक्तिशाली प्रपितामह वसिष्ठ होता की त्रुटि को समझ गये। अत: वे सूर्यपुत्र से इस प्रकार बोले।

श्लोक 20: लक्ष्य में यह त्रुटि तुम्हारे पुरोहित द्वारा मूल उद्देश्य में विचलन के कारण हुई है। फिर भी मैं अपने पराक्रम से तुम्हें एक अच्छा पुत्र प्रदान करूँगा।

श्लोक 21: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, अत्यन्त प्रसिद्ध एवं शक्तिशाली वसिष्ठ ने यह निर्णय लेने के बाद परम पुरुष भगवान् विष्णु से इला को पुरुष में परिणत करने के लिए प्रार्थना की।

श्लोक 22: परम नियन्ता भगवान् ने वसिष्ठ से प्रसन्न होकर उन्हें इच्छित वरदान दिया। इस तरह इला सुद्युम्न नामक एक सुन्दर पुरुष में परिणत हो गई।

श्लोक 23-24: हे राजा परीक्षित, एक बार वीर सुद्युम्न अपने कुछ मंत्रियों के साथ सिन्धुप्रदेश से लाये गये घोड़े पर चढक़र शिकार करने के लिए जंगल में गया। वह कवच पहने था और धनुष-बाण से सुशोभित था। वह अत्यन्त सुन्दर था। वह पशुओं का पीछा करते तथा उनको मारते हुए जंगल के उत्तरी भाग में पहुँच गया।

श्लोक 25: वहाँ उत्तर में मेरु पर्वत की तलहटी में सुकुमार नामक एक वन है जहाँ शिवजी सदैव उमा के साथ विहार करते हैं। सुद्युम्न उसी वन में प्रविष्ट हुआ।

श्लोक 26: हे राजा परीक्षित, ज्यों ही अपने शत्रुओं को दमन करने में निपुण सुद्युम्न उस जंगल में प्रविष्ट हुआ त्यों ही उसने देखा कि वह एक स्त्री में और उसका घोड़ा एक घोड़ी में परिणत हो गया है।

श्लोक 27: जब उसके साथियों ने भी अपने स्वरूपों एवं अपने लिंग को विपर्यस्त देखा तो वे सभी अत्यन्त खिन्न हो उठे और एक दूसरे की ओर देखने लगे।

श्लोक 28: महाराज परीक्षित ने कहा : हे परम शक्तिशाली ब्राह्मण, यह स्थान इतना शक्तिवान क्यों था और इसे किसने इतना शक्तिशाली बनाया था? कृपा करके इस प्रश्न का उत्तर दीजिये क्योंकि मैं इसके विषय में जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक हूँ।

श्लोक 29: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एक बार आध्यात्मिक अनुष्ठानों का कठोरता से पालन करने वाले बड़े-बड़े साधु पुरुष उस जंगल में शिवजी का दर्शन करने आये। उन सबके तेज से सारी दिशाओं का सारा अंधकार दूर हो गया।

श्लोक 30: जब देवी अम्बिका ने इन साधु पुरुषों को देखा तो वे अत्यधिक लज्जित हुईं क्योंकि उस समय वे नग्न थीं। वे तुरन्त अपने पति की गोद से उठ गईं और अपने वक्षस्थल को ढकने का प्रयास करने लगीं।

श्लोक 31: शिवजी तथा पार्वती को काम-क्रीड़ा में संलग्न देखकर सारे साधु पुरुष तुरन्त ही आगे जाने से रुक गये और उन्होंने नर-नारायण के आश्रम के लिए प्रस्थान किया।

श्लोक 32: तत्पश्चात् अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए शिवजी ने कहा, “इस स्थान में प्रवेश करते ही पुरुष तुरन्त स्त्री बन जायेगा।”

श्लोक 33: उस काल से कोई भी पुरुष उस जंगल में नहीं घुसा। किन्तु अब स्त्री रूप में परिणत होकर राजा सुद्युम्न अपने साथियों समेत एक जंगल से दूसरे जंगल में घूमने लगा।

श्लोक 34: सुद्युम्न परम सुन्दर स्त्री में परिणत कर दिया गया था जो कामेच्छा को जगाने वाली थी और अन्य स्त्रियों से घिरी हुई थी। चन्द्रमा के पुत्र बुध ने इस सुन्दरी को अपने आश्रम के निकट विचरण करते देखकर उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की।

श्लोक 35: उस सुन्दर स्त्री ने भी चन्द्रमा के राजकुमार बुध को अपना पति बनाना चाहा। इस तरह बुध ने उसके गर्भ से पुरूरवा नामक एक पुत्र उत्पन्न किया।

श्लोक 36: मैंने विश्वस्त सूत्रों से सुना है कि मनु-पुत्र सुद्युम्न ने इस प्रकार स्त्रीत्व प्राप्त करके अपने कुलगुरु वसिष्ठ का स्मरण किया।

श्लोक 37: सुद्युम्न की इस शोचनीय स्थिति को देखकर वसिष्ठ अत्यधिक दुखी हुए। उन्होंने सुद्युम्न को उसका पुरुषत्व वापस दिलाने की इच्छा से शिवजी की पूजा करनी फिर प्रारम्भ कर दी।

श्लोक 38-39: हे राजा परीक्षित, शिवजी वसिष्ठ पर प्रसन्न हो गए। अतएव शिवजी ने उन्हें तुष्ट करने तथा पार्वती को दिये गये अपने वचन रखने के उद्देश्य से उस सन्त पुरुष से कहा, “आपका शिष्य सुद्युम्न एक मास तक नर रहेगा और दूसरे मास स्त्री रहेगा। इस तरह वह इच्छानुसार जगत पर शासन कर सकेगा।”

श्लोक 40: इस प्रकार गुरु की कृपा पाकर शिवजी के वचनों के अनुसार सुद्युम्न को प्रति दूसरे मास में उसका इच्छित पुरुषत्व फिर से प्राप्त हो जाता था और इस तरह उसने राज्य पर शासन चलाया यद्यपि नागरिक इससे सन्तुष्ट नहीं थे।

श्लोक 41: हे राजा, सुद्युम्न के तीन अत्यन्त पवित्र पुत्र हुए जिनके नाम थे उत्कल, गय तथा विमल, जो दक्षिणापथ के राजा बने।

श्लोक 42: तत्पश्चात् समय आने पर जब जगत का राजा सुद्युम्न काफी वृद्ध हो गया तो उसने अपना सारा साम्राज्य अपने पुत्र पुरूरवा को दे दिया और स्वयं जंगल में चला गया।

अध्याय 2: मनु के पुत्रों की वंशावलियाँ

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इसके पश्चात् जब वैवस्वत मनु (श्राद्धदेव) का पुत्र सुद्युम्न वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करने के लिए जंगल में चला गया तो मनु ने और अधिक सन्तान प्राप्त करने की इच्छा से यमुना नदी के तट पर सौ वर्षों तक कठिन तपस्या की।

श्लोक 2: तब पुत्र-कामना से श्राद्धदेव ने देवों के देव भगवान् हरि की पूजा की। इस तरह उसे अपने ही सदृश दस पुत्र प्राप्त हुए। इनमें से इक्ष्वाकु सबसे बड़ा था।

श्लोक 3: इन पुत्रों में से पृषध्र अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए गायों की रखवाली में लग गया। गायों की रक्षा के लिए वह सारी रात हाथ में तलवार लिए खड़ा रहता।

श्लोक 4: एक बार रात्रि में, जब वर्षा हो रही थी, एक बाघ गोशाला में घुस आया। उसे देखकर भूमि में लेटी हुई सारी गाएँ डर के मारे खड़ी हो गईं और गोशाला में तितर-बितर हो गईं।

श्लोक 5-6: जब अत्यन्त बलवान बाघ ने एक गाय को पकड़ लिया तो वह भयभीत होकर चिल्लाने लगी। पृषध्र ने यह चीत्कार सुनी और वह तुरन्त इस आवाज का पीछा करने लगा। उसने अपनी तलवार निकाल ली लेकिन चूँकि तारे बादलों से ढके थे अतएव उसने गाय को बाघ समझकर धोखे में अत्यन्त बलपूर्वक गाय का सिर काट लिया।

श्लोक 7: चूँकि तलवार की नोक से बाघ का कान कट गया था अतएव वह अत्यधिक भयभीत था और वह उस स्थान से रास्ते भर कान से खून बहाता हुआ भाग खड़ा हुआ।

श्लोक 8: अपने शत्रु का दमन करने में समर्थ पृषध्र ने प्रात:काल जब देखा कि उसने गाय का वध कर दिया है, यद्यपि रात में उसने सोचा था कि उसने बाघ को मारा है, तो वह अत्यन्त दुखी हुआ।

श्लोक 9: यद्यपि पृषध्र ने अनजाने में यह पाप किया था, किन्तु उसके कुलपुरोहित वसिष्ठ ने उसे यह शाप दिया, “तुम अपने अगले जन्म में क्षत्रिय नहीं बन सकोगे, प्रत्युत गोवध करने के कारण तुम्हें शूद्र बनकर जन्म लेना पड़ेगा।”

श्लोक 10: जब उस वीर पृषध्र को उसके गुरु ने इस प्रकार शाप दे दिया तो उसने हाथ जोडक़र वह शाप अंगीकार कर लिया। तत्पश्चात् अपनी इन्द्रियों को वश में करते हुए उसने सभी मुनियों द्वारा सम्मत ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया।

श्लोक 11-13: तत्पश्चात् पृषध्र ने सारे उत्तरदायित्वों से अवकाश ले लिया और शान्तचित्त होकर अपनी समग्र इन्द्रियों को वश में किया। भौतिक परिस्थितियों से अप्रभावित, भगवान् की कृपा से शरीर तथा आत्मा को बनाए रखने के लिए जो भी मिल जाय उसी से संतुष्ट एवं सब पर समभाव रखते हुए, वह कल्मषहीन परमात्मा भगवान् वासुदेव पर ही अपना सारा ध्यान देने लगा। इस प्रकार शुद्ध ज्ञान से पूर्णत: सन्तुष्ट एवं अपने मन को भगवान् में ही लगाकर उसने भगवान् की शुद्धभक्ति प्राप्त की और सारे विश्व में विचरण करने लगा। उसे भौतिक कार्यकलापों से कोई लगाव न रहा मानो वह बहरा, गूँगा तथा अन्धा हो।

श्लोक 14: इस मनोवृत्ति से पृषध्र महान् सन्त बन गया और जब वह जंगल में प्रविष्ट हुआ और उसने प्रज्ज्वलित जंगल की आग देखी तो उसने उस अग्नि में अपने शरीर को भस्म कर डाला। इस तरह उसे दिव्य आध्यात्मिक जगत की प्राप्ति हुई।

श्लोक 15: मनु के सबसे छोटे पुत्र कवि ने भौतिक भोगों को अस्वीकार करते हुए युवावस्था में पहुँचने के पूर्व ही राजपाट त्याग दिया। वह अपने हृदय में आत्म-तेजस्वी भगवान् का सदैव चिन्तन करते हुए अपने मित्रों सहित जंगल में चला गया। इस प्रकार उसने सिद्धि प्राप्त की।

श्लोक 16: मनु के अन्य पुत्र करूष से कारूष वंश चला जो एक क्षत्रिय कुल था। कारूष क्षत्रिय उत्तरी दिशा के राजा थे। वे ब्राह्मण संस्कृति के विख्यात रक्षक थे और सभी अत्यन्त धार्मिक थे।

श्लोक 17: मनु पुत्र धृष्ट से धार्ष्ट नामक क्षत्रिय जाति निकली जिसके सदस्यों ने इस जगत में ब्राह्मणों का पद प्राप्त किया। तत्पश्चात् मनु के पुत्र नृग से सुमति और सुमति से भूतज्योति और भूतज्योति से वसु उत्पन्न हुए।

श्लोक 18: वसु का पुत्र प्रतीक था और प्रतीक का पुत्र ओघवान हुआ। ओघवान का पुत्र भी ओघवान कहलाया और उसकी पुत्री का नाम ओघवती था। इसका व्याह सुदर्शन के साथ हुआ।

श्लोक 19: नरिष्यन्त का पुत्र चित्रसेन हुआ और उसका पुत्र ऋक्ष हुआ। ऋक्ष से मीढ्वान, मीढ्वान से पूर्ण और पूर्ण से इन्द्रसेन हुआ।

श्लोक 20: इन्द्रसेन से वीतिहोत्र, वीतिहोत्र से सत्यश्रवा, फिर उससे उरुश्रवा और उरुश्रवा से देवदत्त हुआ।

श्लोक 21: देवदत्त का पुत्र अग्निवेश्य हुआ जो साक्षात् अग्निदेव था। यह पुत्र विख्यात सन्त था और कानीन तथा जातूकर्ण्य के नाम से विख्यात हुआ।

श्लोक 22: हे राजा, अग्निवेश्य से आग्निवेश्यायन नामक ब्राह्मण कुल उत्पन्न हुआ। चूँकि मैं नरिष्यन्त के वंशजों का वर्णन कर चुका हूँ अतएव अब दिष्ट के वंशजों का वर्णन करूँगा। कृपया मुझसे सुनें।

श्लोक 23-24: दिष्ट का पुत्र नाभाग हुआ। यह नाभाग जो आगे वर्णित होने वाले नाभाग से भिन्न था, वृत्ति से वैश्य बन गया। नाभाग का पुत्र भलन्दन हुआ, भलन्दन का पुत्र वत्सप्रीति हुआ और उसका पुत्र प्रांशु था। प्रांशु का पुत्र प्रमति था, प्रमति का पुत्र खनित्र और खनित्र का पुत्र चाक्षुष था जिसका पुत्र विविंशति हुआ।

श्लोक 25: विविंशति के पुत्र का नाम रम्भ था जिसका पुत्र अत्यन्त महान् एवं धार्मिक राजा खनीनेत्र हुआ। हे राजा, खनीनेत्र का पुत्र राजा करन्धम हुआ।

श्लोक 26: करन्धम से अवीक्षित नामक पुत्र हुआ जिसका पुत्र मरुत्त था जो सम्राट था। महान् योगी अंगिरा-पुत्र संवर्त ने यज्ञ सम्पन्न कराने के लिए मरुत्त को लगाया।

श्लोक 27: राजा मरुत्त के यज्ञ का साज-सामान अत्यन्त सुन्दर था क्योंकि सारी वस्तुएँ सोने की बनी थीं। निस्सन्देह, उसके यज्ञ की तुलना किसी भी और यज्ञ से नहीं की जा सकती।

श्लोक 28: उस यज्ञ में सोमरस की बहुत अधिक मात्रा पीने से राजा इन्द्र मदान्ध हो गया। ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणा मिली जिससे वे सन्तुष्ट थे। उस यज्ञ में मरुतों के विविध देवताओं ने खाना परोसा और विश्वेदेव सभा के सदस्य थे।

श्लोक 29: मरुत्त का पुत्र दम हुआ, दम का पुत्र राज्यवर्धन था और उसका पुत्र सुधृति और सुधृति का पुत्र नर था।

श्लोक 30: नर का पुत्र केवल हुआ और उसका पुत्र धुन्धुमान था, जिसका पुत्र वेगवान हुआ। वेगवान का पुत्र बुध था और बुध का पुत्र तृणबिन्दु था जो इस पृथ्वी का राजा बना।

श्लोक 31: अप्सराओं में सर्वश्रेष्ठ अत्यन्त गुणी कन्या अलम्बुषा ने अपने ही समान योग्य तृणबिन्दु को पति रूप में स्वीकार किया। उसके कुछ पुत्र तथा इलविला नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई।

श्लोक 32: महान् सन्त योगेश्वर विश्रवा ने अपने पिता से परम विद्या प्राप्त करके इलविला के गर्भ से परम विख्यात पुत्र धन देने वाले कुवेर को उत्पन्न किया।

श्लोक 33: तृणबिन्दु के तीन पुत्र थे—विशाल, शून्यबन्धु तथा धूम्रकेतु। इन तीनों में विशाल ने एक वंश चलाया और वैशाली नामक एक महल की रचना कराई।

श्लोक 34: विशाल का पुत्र हेमचन्द्र कहलाया और उसका पुत्र धूम्राक्ष हुआ जिसका पुत्र संयम था और उसके पुत्रों के नाम देवज तथा कृशाश्व थे।

श्लोक 35-36: कृशाश्व का पुत्र सोमदत्त हुआ जिसने अश्वमेध यज्ञ किए और इस प्रकार भगवान् विष्णु को प्रसन्न किया। भगवान् की पूजा करने से उसे ऐसा उच्चपद प्राप्त हुआ जो बड़े-बड़े योगियों को मिलता है। सोमदत्त का पुत्र सुमति था जिसका पुत्र जनमेजय हुआ। विशाल वंश में प्रकट होकर इन सारे राजाओं ने राजा तृणबिन्दु के विख्यात पद को बनाये रखा।

अध्याय 3: सुकन्या तथा च्यवन मुनि का विवाह

श्लोक 1: श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा, मनु का दूसरा पुत्र राजा शर्याति वैदिक ज्ञान में पारंगत था। उसने अंगिरावंशियों द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञ के दूसरे दिन के उत्सवों के विषय में आदेश दिए।

श्लोक 2: शर्याति के सुकन्या नामक एक सुन्दर कमलनेत्री कन्या थी जिसके साथ वे जंगल में च्यवन मुनि के आश्रम को देखने गये।

श्लोक 3: जब वह सुकन्या जंगल में अपनी सहेलियों से घिरी हुई, वृक्षों से विविध प्रकार के फल एकत्र कर रही थी तो उसने बाँबी के छेद में दो जुगुनू जैसी चमकीली वस्तुएँ देखीं।

श्लोक 4: मानो विधाता से प्रेरित होकर उस तरुणी ने बिना जाने उन दोनों जुगुनुओं को एक काँटे से छेद दिया जिससे उनमें से रक्त फूटकर बाहर आने लगा।

श्लोक 5: उसके बाद ही शर्याति के सारे सैनिकों को तुरन्त ही मल-मूत्र में अवरोध होने लगा। यह देखकर शर्याति बड़े अचम्भे में आकर अपने संगियों से बोला।

श्लोक 6: यह कितनी विचित्र बात है कि हममें से किसी ने भृगुपुत्र च्यवन मुनि का कुछ अहित करने का प्रयास किया है। निश्चय ही, ऐसा लगता है कि हममें से किसी ने इस आश्रम को अपवित्र कर दिया है।

श्लोक 7: अत्यन्त भयभीत सुकन्या ने अपने पिता से कहा : मैंने कुछ गलती की है क्योंकि मैंने अज्ञानवश इन दो चमकीली वस्तुओं को काँटे से छेद दिया है।

श्लोक 8: अपनी पुत्री से यह सुनकर राजा शर्याति अत्यधिक डर गये। उन्होंने अनेक प्रकार से च्यवन मुनि को शांत करने का प्रयत्न किया क्योंकि वे ही उस बाँबी के छेद के भीतर बैठे थे।

श्लोक 9: अत्यन्त विचारमग्न होकर और च्यवन मुनि के प्रयोजन को समझकर राजा शर्याति ने मुनि को अपनी कन्या दान में दे दी। इस प्रकार बड़ी मुश्किल से संकट से मुक्त होकर उसने च्यवन मुनि से अनुमति ली और वह घर लौट गया।

श्लोक 10: च्यवन मुनि अत्यन्त क्रोधी थे, किन्तु क्योंकि सुकन्या ने उन्हें पति रूप में प्राप्त किया था, अत: उसने सावधानी से उनके मनोनुकूल व्यवहार किया। उसने बिना घबराए उनकी सेवा की।

श्लोक 11: कुछ काल बीतने के बाद दोनों अश्विनीकुमार जो स्वर्गलोक के वैद्य थे, च्यवन मुनि के आश्रम आये। उनका सत्कार करने के बाद च्यवन मुनि ने उनसे यौवन प्रदान करने के लिए प्रार्थना की क्योंकि वे ऐसा करने में सक्षम थे।

श्लोक 12: च्यवन मुनि ने कहा : यद्यपि तुम दोनों यज्ञ में सोमरस पीने के पात्र नहीं हो, किन्तु मैं वचन देता हूँ कि मैं तुम्हें सोमरस का पूरा बर्तन भर कर दूँगा। कृपा करके मेरे लिए सौन्दर्य तथा तारुण्य की व्यवस्था करो क्योंकि तरुणी स्त्रियों को ये आकर्षक लगते हैं।

श्लोक 13: उन महान् वैद्य अश्विनीकुमारों ने च्यवन मुनि के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने उस ब्राह्मण से कहा “आप इस सिद्धिदायक झील में गोता लगाइये। (जो इस झील में नहाता है उसकी कामनाएँ पूरी होती हैं)।

श्लोक 14: यह कहकर अश्विनीकुमारों ने च्यवन मुनि को पकड़ा जो वृद्ध थे और जिनके रुग्ण शरीर की चमड़ी झूल रही थी, बाल सफेद थे तथा सारे शरीर में नसें दिख रही थीं और वे तीनों उस झील में घुस गये।

श्लोक 15: तत्पश्चात् झील से तीन अत्यन्त सुन्दर स्वरूप वाले व्यक्ति ऊपर उठे। वे अच्छे वस्त्र धारण किये थे और कुण्डलों तथा कमल की मालाओं से विभूषित तीनों ही समान सुन्दरता वाले थे।

श्लोक 16: साध्वी एवं परम सुन्दरी सुकन्या अपने पति एवं उन दोनों अश्विनीकुमारों में अन्तर न कर पाई क्योंकि वे समान रूप से सुन्दर थे। अतएव अपने असली पति को पहचान पाने में असमर्थ होने के कारण उसने अश्विनीकुमारों की शरण ग्रहण की।

श्लोक 17: दोनों अश्विनीकुमार सुकन्या के सतीत्व एवं निष्ठा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। अत: उन्होंने उसे उसके पति च्यवन मुनि को दिखलाया और फिर उनसे अनुमति लेकर वे अपने विमान से स्वर्गलोक को वापस लौट गये।

श्लोक 18: तत्पश्चात् यज्ञ सम्पन्न करने की इच्छा से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आवास में गये। वहाँ उन्होंने अपनी पुत्री के बगल में सूर्य के समान एक तेजस्वी सुन्दर तरुण पुरुष को देखा।

श्लोक 19: राजा की पुत्री ने पिता के चरणों की वन्दना की, किन्तु राजा उसे आशीष देने की बजाय उससे अत्यधिक अप्रसन्न प्रतीत हुआ और उससे इस प्रकार बोला।

श्लोक 20: हे दुष्ट लडक़ी, तुमने यह क्या कर दिया? तुमने अपने अत्यन्त सम्माननीय पति को धोखा दिया है क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि उसके वृद्ध, रोगग्रस्त तथा अनाकर्षक होने के कारण तुमने उसका साथ छोडक़र इस तरुण पुरुष को अपना पति बनाना चाहा है जो भिक्षुक जैसा प्रतीत होता है।

श्लोक 21: हे पूज्य कुल में उत्पन्न मेरी पुत्री, तुमने अपनी चेतना को किस तरह इतना नीचे गिरा दिया है? तुम किस तरह परपति को इतनी निर्लज्जतापूर्वक रख रही हो? इस तरह तुम अपने पिता तथा अपने पति दोनों के कुलों को नरक में धकेल कर बदनाम करोगी।

श्लोक 22: किन्तु अपने सतीत्व पर गर्वित सुकन्या अपने पिता की डाँट फटकार सुनकर मुस्काने लगी। उसने हँसते हुए कहा “हे पिता, मेरी बगल में बैठा यह तरुण व्यक्ति आपका असली दामाद, भृगुवंश में उत्पन्न, च्यवन मुनि है।”

श्लोक 23: तब सुकन्या ने बतलाया कि किस तरह उसके पति को तरुण पुरुष का सुन्दर शरीर प्राप्त हुआ। जब राजा ने इसे सुना तो वह अत्यधिक चकित हुआ और परम हर्षित होकर उसने अपनी प्रिय पुत्री को गले से लगा लिया।

श्लोक 24: च्यवन मुनि ने अपने पराक्रम से राजा शर्याति से सोमयज्ञ सम्पन्न कराया। मुनि ने अश्विनीकुमारों को सोमरस का पूरा पात्र प्रदान किया यद्यपि वे इसे पीने के अधिकारी नहीं थे।

श्लोक 25: उद्विग्न एवं क्रुद्ध होने से इन्द्र ने च्यवन मुनि को मार डालना चाहा अतएव उसने बिना सोचे विचारे अपना वज्र धारण कर लिया। लेकिन च्यवन मुनि ने अपने पराक्रम से इन्द्र की उस बाँह को संज्ञाशून्य कर दिया जिससे उसने वज्र पकड़ रखा था।

श्लोक 26: यद्यपि अश्विनीकुमार मात्र वैद्य थे और इसी कारण से उन्हें यज्ञों में सोमरस-पान से बाहर रखा जाता था, किन्तु देवताओं ने इसके बाद उन्हें सोमरस पीने के लिए अनुमति प्रदान कर दी।

श्लोक 27: राजा शर्याति के उत्तानबर्हि, आनर्त तथा भूरिषेण नामक तीन पुत्र हुए। आनर्त के पुत्र का नाम रेवत था।

श्लोक 28: हे शत्रुओं के दमनकर्ता महाराज परीक्षित, इस रेवत ने समुद्र के भीतर कुशस्थली नामक राज्य का निर्माण कराया। वहाँ रहकर उसने आनर्त इत्यादि भूखण्डों पर शासन किया। उसके एक सौ सुन्दर पुत्र थे जिनमें सबसे बड़ा ककुद्मी था।

श्लोक 29: ककुद्मी अपनी पुत्री रेवती को लेकर ब्रह्मा के पास ब्रह्मलोक में गया जो भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों से परे है और उसके लिए पति के विषय में पूछताछ की।

श्लोक 30: जब ककुद्मी वहाँ पहुँचा तो ब्रह्माजी गन्धर्वों का संगीत सुनने में व्यस्त थे और उन्हें बात करने की तनिक भी फुरसत न थी। अतएव ककुद्मी प्रतीक्षा करता रहा और संगीत समाप्त होने पर उसने ब्रह्माजी को नमस्कार करके अपनी चिरकालीन इच्छा व्यक्त की।

श्लोक 31: उसके वचन सुनकर शक्तिशाली ब्रह्माजी जोर से हँसे और ककुद्मी से बोले: हे राजा, तुमने अपने हृदय में जिन लोगों को अपना दामाद बनाने का निश्चय किया है वे कालक्रम से मर चुके हैं।

श्लोक 32: सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं। तुमने जिन लोगों को रेवती का पति बनाना चाहा होगा वे अब सब चले गये हैं और उनके पुत्र, पौत्र तथा अन्य वंशज भी नहीं रहे हैं। अब तुम्हें उनके नाम भी नहीं सुनाई पड़ेंगे।

श्लोक 33: हे राजा, तुम यहाँ से जाओ और अपनी पुत्री भगवान् बलदेव को अर्पित करो जो अभी भी उपस्थित हैं। वे अत्यन्त शक्तिशाली हैं। निस्सन्देह, वे भगवान् हैं और उनके स्वांश विष्णु हैं। उन्हें दान में दिये जाने के लिए तुम्हारी पुत्री सर्वथा उपयुक्त है।

श्लोक 34: बलदेवजी भगवान् हैं। जो कोई उनका श्रवण और उनका कीर्तन करता है वह पवित्र हो जाता है। चूँकि वे समस्त जीवों के सतत हितैषी हैं अतएव वे अपने सारे साज-सामान सहित सारे जगत को शुद्ध करने तथा इसका भार कम करने के लिए अवतरित हुए हैं।

श्लोक 35: ब्रह्माजी से यह आदेश पाकर ककुद्मी ने उन्हें नमस्कार किया और अपने निवासस्थान को लौट गया। तब उसने देखा कि उसका आवास रिक्त है, उसके भाई तथा अन्य कुटुम्बी उसे छोडक़र चले गये हैं और यक्षों जैसे उच्चतर जीवों के भय से वे समस्त दिशाओं में रह रहे हैं।

श्लोक 36: तत्पश्चात् राजा ने अपनी परम सुन्दरी पुत्री परम शक्तिशाली बलदेव को दान में दे दी और सांसारिक जीवन से विरक्त होकर वह नर-नारायण को प्रसन्न करने के लिए बदरिकाश्रम चला गया।

अध्याय 4: दुर्वासा मुनि द्वारा अम्बरीष महाराज का अपमान

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : नभग का पुत्र नाभाग बहुत काल तक अपने गुरु के पास रहा। अतएव उसके भाइयों ने सोचा कि अब वह गृहस्थ नहीं बनना चाहता और वापस नहीं आएगा। फलस्वरूप उन्होंने अपने पिता की सम्पत्ति में उसका हिस्सा न रख कर उसे आपस में बाँट लिया। जब नाभाग अपने गुरु के स्थान से वापस आया तो उन्होंने उसके हिस्से के रूप में उसे अपने पिता को दे दिया।

श्लोक 2: नाभाग ने पूछा, “मेरे भाइयो, आप लोगों ने पिता की सम्पत्ति में से मेरे हिस्से में मुझे क्या दिया है?” उसके भाई बोले, “हमने तुम्हारे हिस्से में पिताजी को रख छोड़ा है।” तब नाभाग अपने पिता के पास गया और बोला, “हे पिताजी, मेरे भाइयों ने मेरे हिस्से में आपको दिया है।” इस पर पिता ने उत्तर दिया, “मेरे बेटे, तुम इनके ठगने वाले शब्दों पर विश्वास मत करना। मैं तुम्हारी सम्पत्ति नहीं हूँ।”

श्लोक 3: नाभाग के पिता ने कहा : अंगिरा के वंशज इस समय एक महान् यज्ञ सम्पन्न करने जा रहे हैं, किन्तु अत्यन्त बुद्धिमान होते हुए भी वे हर छठे दिन यज्ञ करते हुए मोहग्रस्त होंगे और अपने नैत्यिक कर्मों में त्रुटि करेंगे।

श्लोक 4-5: नाभाग के पिता ने आगे कहा : “उन महात्माओं के पास जाओ और उन्हें वैश्वदेव सम्बन्धी दो वैदिक मंत्र सुनाओ। जब वे महात्मा यज्ञ समाप्त करके स्वर्गलोक को जा रहे होंगे तो वे यज्ञ में प्राप्त शेष दक्षिणा तुम्हें दे देंगे। अतएव तुम तुरन्त जाओ।” इस तरह नाभाग ने वैसा ही किया जैसा उसके पिता ने सलाह दी थी और अंगिरा वंश के सारे मुनियों ने उसे अपना सारा धन दे दिया और फिर वे स्वर्गलोक को चले गये।

श्लोक 6: जब नाभाग सारा धन ले रहा था तो उत्तर दिशा से एक काला कलूटा व्यक्ति उसके पास आया और बोला, “इस यज्ञशाला की सारी सम्पत्ति मेरी है।”

श्लोक 7: तब नाभाग ने कहा : “यह धन मेरा है। इसे ऋषियों ने मुझे प्रदान किया है।” जब नाभाग ने यह कहा तो उस काले कलूटे ने उत्तर दिया, “चलो तुम्हारे पिता के पास चलें और उनसे इसका निपटारा करने के लिए कहें।” तदनुसार नाभाग ने अपने पिता से पूछा।

श्लोक 8: नाभाग के पिता ने कहा : ऋषियों ने दक्ष यज्ञशाला में जो भी आहुति दी थी, वह शिवजी को उनके भाग के रूप में दी गई थी। अतएव इस यज्ञशाला की प्रत्येक वस्तु निश्चित रूप से शिवजी की है।

श्लोक 9: तत्पश्चात् शिवजी को नमस्कार करने के बाद नाभाग ने कहा : हे पूज्यदेव, इस यज्ञशाला की प्रत्येक वस्तु आपकी है—ऐसा मेरे पिता का मत है। अब मैं विनम्रतापूर्वक आपके समक्ष अपना सिर झुकाकर आपसे कृपा की भीख माँगता हूँ।

श्लोक 10: शिवजी ने कहा : तुम्हारे पिता ने जो कुछ कहा है वह सत्य है और तुम भी वही सत्य कह रहे हो। अतएव वेदमंत्रों का ज्ञाता मैं तुम्हें दिव्य ज्ञान बतलाऊँगा।

श्लोक 11: शिवजी ने कहा : “अब तुम यज्ञ का बचा सारा धन ले सकते हो क्योंकि मैं इसे तुम्हें दे रहा हूँ।” यह कहकर धार्मिक सिद्धान्तों में अटल रहने वाले शिवजी उस स्थान से अदृश्य हो गये।

श्लोक 12: जो कोई इस कथा को प्रात:काल एवं सायंकाल अत्यन्त ध्यानपूर्वक सुनता या स्मरण करता है वह निश्चय ही विद्वान, वैदिक स्तोत्रों को समझने वाला एवं स्वरूपसिद्ध हो जाता है।

श्लोक 13: नाभाग से महाराज अम्बरीष ने जन्म लिया। महाराज अम्बरीष उच्च भक्त थे और अपने महान् गुणों के लिए विख्यात थे। यद्यपि उन्हें एक अच्युत ब्राह्मण ने शाप दिया था, किन्तु वह शाप उनका स्पर्श भी न कर पाया।

श्लोक 14: राजा परीक्षित ने पूछा: हे महापुरुष, महाराज अम्बरीष निश्चय ही अत्यन्त उच्च एवं सच्चरित्र थे। मैं उनके विषय में सुनना चाहता हूँ। यह कितना आश्चर्यजनक है कि एक ब्राह्मण का दुर्लंघ्य शाप उन पर अपना कोई प्रभाव नहीं दिखला सका।

श्लोक 15-16: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अत्यन्त भाग्यवान महाराज अम्बरीष ने सात द्वीपों वाले समस्त विश्व पर शासन किया और पृथ्वी का अक्षय असीम ऐश्वर्य तथा सम्पन्नता प्राप्त की। यद्यपि ऐसा पद विरले ही मिलता है, किन्तु महाराज अम्बरीष ने इसकी तनिक भी परवाह नहीं की क्योंकि उन्हें पता था कि ऐसा सारा ऐश्वर्य भौतिक है। ऐसा ऐश्वर्य स्वप्नतुल्य है और अन्ततोगत्वा विनष्ट हो जायेगा। राजा जानता था कि कोई भी अभक्त ऐसा ऐश्वर्य प्राप्त करके प्रकृति के तमोगुण में अधिकाधिक प्रविष्ट होता है।

श्लोक 17: महाराज अम्बरीष भगवान् वासुदेव के तथा भगवद्भक्त सन्त पुरुषों के महान् भक्त थे। इस भक्ति के कारण वे सारे विश्व को एक पत्थर के टुकड़े के समान नगण्य मानते थे।

श्लोक 18-20: महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में, अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में, अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाडऩे-बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे। वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह, कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों, यथा मथुरा तथा वृन्दावन, को देखने में लगाते रहे। वे अपनी स्पर्श-इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में, अपनी घ्राण-इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूँघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे। उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में, अपने सिर को भगवान् के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान् की सेवा करने में लगाया। निस्सन्देह, महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा। वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे। भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णत: मुक्त होने की यही विधि है।

श्लोक 21: राजा के रूप में अपने नियत कर्तव्यों का पालन करते हुए महाराज अम्बरीष अपने राजसी कार्यकलापों के फलों को सदैव भगवान् कृष्ण को अर्पित करते थे, जो प्रत्येक वस्तु के भोक्ता हैं और भौतिक इन्द्रियों के बोध के परे हैं। वे निश्चित रूप से निष्ठावान भगवद्भक्त ब्राह्मणों से सलाह लेते थे और इस प्रकार वे बिना किसी कठिनाई के पृथ्वी पर शासन करते थे।

श्लोक 22: महाराज अम्बरीष ने उस मरुस्थल में अश्वमेध यज्ञ जैसे महान् यज्ञ सम्पन्न किये जिसमें से होकर सरस्वती नदी बहती है और समस्त यज्ञों के स्वामी भगवान् को प्रसन्न किया। ऐसे यज्ञ महान् ऐश्वर्य तथा उपयुक्त सामग्री द्वारा तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर सम्पन्न किये जाते थे और इन यज्ञों का निरीक्षण वसिष्ठ, असित तथा गौतम जैसे महापुरुषों द्वारा किया जाता था जो यज्ञों के सम्पन्नकर्ता राजा के प्रतिनिधि होते थे।

श्लोक 23: महाराज अम्बरीष द्वारा आयोजित यज्ञ में सभा के सदस्य तथा पुरोहित (विशेष रूप से होता, उद्गाता, ब्रह्मा तथा अध्वर्यु) वस्त्रों से बहुत अच्छी तरह से सज्जित थे और वे सब देवताओं की तरह लग रहे थे। उन्होंने उत्सुकतापूर्वक यज्ञ को समुचित रूप से सम्पन्न कराया।

श्लोक 24: महाराज अम्बरीष की प्रजा भगवान् के महिमामय कार्यकलापों के विषय में कीर्तन एवं श्रवण करने की आदी थी। इस प्रकार वह कभी भी देवताओं के परम प्रिय स्वर्गलोक में जाने की इच्छा नहीं करती थी।

श्लोक 25: जो लोग भगवान् की सेवा करने के दिव्य सुख से परिपूर्ण हैं वे महान् योगियों की उपलब्धियों में भी कोई रुचि नहीं रखते क्योंकि ऐसी उपलब्धियाँ उस भक्त के द्वारा अनुभव किये गये दिव्य आनन्द को वर्धित नहीं करतीं जो अपने हृदय के भीतर सदैव कृष्ण का चिन्तन करता रहता है।

श्लोक 26: इस तरह इस लोक के राजा महाराज अम्बरीष ने भगवान् की भक्ति की और इस प्रयास में उन्होंने कठिन तपस्या की। उन्होंने अपने वैधानिक कार्यकलापों से भगवान् को सदैव प्रसन्न करते हुए धीरे धीरे सारी भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर दिया।

श्लोक 27: महाराज अम्बरीष ने घरेलू कार्यों, पत्नियों, सन्तानों, मित्रों तथा सम्बन्धियों, श्रेष्ठ शक्तिशाली हाथियों, सुन्दर रथों, गाडिय़ों, घोड़ों, अक्षय रत्नों, गहनों, वस्त्रों तथा अक्षय कोश के प्रति सारी आसक्ति छोड़ दी। उन्होंने इन वस्तुओं को नश्वर तथा भौतिक मानकर इनकी आसक्ति छोड़ दी।

श्लोक 28: महाराज अम्बरीष की अनन्य भक्ति से अतीव प्रसन्न होकर भगवान् ने राजा को अपना चक्र प्रदान किया जो शत्रुओं के लिए भयावह है और जो शत्रुओं तथा विपत्तियों से भक्तों की सदैव रक्षा करता है।

श्लोक 29: महाराज अम्बरीष ने अपने ही समान योग्य अपनी रानी के साथ भगवान् कृष्ण की पूजा करने के लिए एक वर्ष तक एकादशी तथा द्वादशी का व्रत रखा।

श्लोक 30: एक वर्ष तक उस व्रत को रखने के बाद, तीन रातों तक उपवास रखकर तथा युमना में स्नान करके महाराज अम्बरीष ने कार्तिक के महीने में भगवान् हरि की मधुवन में पूजा की।

श्लोक 31-32: महाभिषेक के विधि-विधानों के अनुसार महाराज अम्बरीष ने सारी सामग्री से भगवान् कृष्ण के अर्चाविग्रह को स्नान कराया। फिर उन्हें सुन्दर वस्त्रों, आभूषणों, सुगन्धित फूलों की मालाओं तथा पूजा की अन्य सामग्री से अलंकृत किया। उन्होंने ध्यानपूर्वक तथा भक्तिपूर्वक कृष्ण की तथा भौतिक इच्छाओं से मुक्त परम भाग्यशाली ब्राह्मणों की पूजा की।

श्लोक 33-35: तत्पश्चात् महाराज अम्बरीष ने अपने घर में आये सारे अतिथियों को, विशेषकर ब्राह्मणों को संतुष्ट किया। उन्होंने दान में साठ करोड़ गौवें दीं जिनके सींग सोने के पत्तर से और खुर चाँदी के पत्तर से मढ़े थे। सारी गौवें वस्त्रों से खूब सजाई गई थीं और उनके थन दूध से भरे थे। वे सुशील, तरुण तथा सुन्दर थीं और अपने-अपने बछड़ों के साथ थीं। इन गौवों का दान देने के बाद राजा ने सर्वप्रथम सारे ब्राह्मणों को पेटभर भोजन कराया और जब वे पूरी तरह संतुष्ट हो गये तो वे उनकी आज्ञा से एकादशी व्रत तोडक़र उस का पारण करने वाले थे। किन्तु ठीक उसी समय महान् एवं शक्तिशाली दुर्वासा मुनि अनामंत्रित अतिथि के रूप में वहाँ पर प्रकट हुए।

श्लोक 36: दुर्वासा मुनि का स्वागत करने के लिए राजा अम्बरीष ने खड़े होकर उन्हें आसन तथा पूजा की सामग्री प्रदान की। तब उनके पाँवों के पास बैठकर राजा ने मुनि से भोजन करने के लिए प्रार्थना की।

श्लोक 37: दुर्वासा मुनि ने प्रसन्नतापूर्वक महाराज अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली, किन्तु आवश्यक अनुष्ठान करने के लिए वे यमुना नदी में गये। वहाँ उन्होंने पवित्र यमुना नदी के जल में डुबकी लगाई और निराकार ब्रह्म का ध्यान किया।

श्लोक 38: तब तक व्रत तोडऩे के लिए द्वादशी का केवल आधा मुहूर्त शेष था। फलस्वरूप व्रत को तुरन्त तोड़ा जाना अनिवार्य था। ऐसी विकट परिस्थिति में राजा ने विद्वान ब्राह्मणों से परामर्श किया।

श्लोक 39-40: राजा ने कहा : “ब्राह्मणों के प्रति सत्कार के नियमों का उल्लंघन करना निश्चय ही, महान् अपराध है। दूसरी ओर यदि कोई द्वादशी की तिथि में अपने व्रत को नहीं तोड़ता तो व्रत के पालन में दोष आता है। अतएव हे ब्राह्मणो, यदि आप लोग यह सोचें कि यह शुभ है तथा अधर्मनहीं है तो मैं जल पीकर व्रत तोड़ दूँ।” इस प्रकार ब्राह्मणों से परामर्श करने के बाद राजा इस निर्णय पर पहुँचा कि ब्राह्मणों के मतानुसार जल का पीना भोजन करना स्वीकार किया जा सकता है और नहीं भी।

श्लोक 41: हे कुरुश्रेष्ठ, थोड़ा सा जल पीकर राजा अम्बरीष ने अपने मन में भगवान् का ध्यान किया और फिर वे महान् योगी दुर्वासा मुनि के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगे।

श्लोक 42: दोपहर के समय सम्पन्न होने वाले अनुष्ठानों को संपन्न कर लेने के बाद दुर्वासा मुनि यमुना के तट से वापस आये। राजा ने अच्छी प्रकार से उनका स्वागत किया, किन्तु दुर्वासा मुनि ने अपने योगबल से जान लिया कि राजा ने उनकी अनुमति के बिना जल पी लिया है।

श्लोक 43: भूखे, काँपते शरीर, टेढ़े मुँह तथा क्रोध से टेढ़ी भौहें किये दुर्वासा मुनि ने अपने समक्ष हाथ जोड़े खड़े राजा अम्बरीष से क्रोधपूर्वक इस प्रकार कहा।

श्लोक 44: ओह! जरा इस निर्दय व्यक्ति का आचरण तो देखो, यह भगवान् विष्णु का भक्त नहीं है। यह अपने ऐश्वर्य एवं पद के गर्व के कारण अपने आपको ईश्वर समझ रहा है। देखो न, इसने धर्म के नियमों का उल्लंघन किया है।

श्लोक 45: महाराज अम्बरीष, तुमने मुझे अतिथि के रूप में भोजन के लिए बुलाया है लेकिन तुमने मुझे न खिलाकर स्वयं पहले खा लिया है। तुम्हारे इस दुर्व्यवहार के कारण मैं तुमको इसका मजा चखाऊँगा।

श्लोक 46: जब दुर्वासा मुनि ने ऐसा कहा तो क्रोध से उनका मुख लाल पड़ गया। उन्होंने अपने सिर की जटा से एक बाल उखाडक़र महाराज अम्बरीष को दण्ड देने के लिए एक कृत्या उत्पन्न कर दी जो प्रलयाग्नि के समान प्रज्ज्वलित हो रही थी।

श्लोक 47: वह देदीप्यमान कृत्या अपने हाथ में त्रिशूल लेकर तथा अपने पदचाप से धरती को कंपाती हुई महाराज अम्बरीष के सामने आई। किन्तु उसे देखकर राजा तनिक भी विचलित नहीं हुआ और अपने स्थान से रंचभर भी नहीं हटा।

श्लोक 48: जिस प्रकार दावाग्नि एक क्रुद्ध सर्प को तुरन्त जला देती है उसी प्रकार पहले से आदिष्ट भगवान् के सुदर्शन चक्र ने भगवद्भक्त की रक्षा करने के लिए उस सृजित कृत्या को जलाकर क्षार कर दिया।

श्लोक 49: जब दुर्वासा मुनि ने देखा कि उनका निजी प्रयास विफल हो गया है और सुदर्शन चक्र उनकी ओर बढ़ रहा है तो वे अत्यधिक भयभीत हो उठे और अपनी जान बचाने के लिए सारी दिशाओं में दौने लगे।

श्लोक 50: जिस प्रकार दवाग्नि की लपटें साँप का पीछा करती हैं उसी तरह भगवान् का चक्र दुर्वासा मुनि का पीछा करने लगा। दुर्वासा मुनि ने देखा कि यह चक्र उनकी पीठ को छूने वाला है अतएव वे तेजी से दौकर सुमेरु पर्वत की गुफा में घुस जाना चाह रहे थे।

श्लोक 51: अपनी रक्षा करने के लिए दुर्वासा मुनि सर्वत्र भागते रहे—वे आकाश, पृथ्वीतल, गुफाओं, समुद्र, तीनों लोकों के शासकों के विभिन्न लोकों तथा स्वर्गलोक में भी गये, किन्तु जहाँ-जहाँ गये वहीं उन्होंने सुदर्शन चक्र की असह्य अग्नि को उनका पीछा करते देखा।

श्लोक 52: दुर्वासा मुनि भयभीत मन से इधर उधर शरण खोजते रहे, किन्तु जब उन्हें कोई शरण न मिल सकी तो अन्तत: वे ब्रह्माजी के पास पहुँचे और कहा—हे प्रभु, हे ब्रह्माजी, कृपा करके भगवान् द्वारा भेजे गये इस ज्वलित सुदर्शन चक्र से मेरी रक्षा कीजिये।

श्लोक 53-54: ब्रह्माजी ने कहा : द्वि-परार्ध के अन्त में, जब भगवान् की लीलाएँ समाप्त हो जाती हैं तो भगवान् विष्णु अपनी एक भृकुटि के टेढ़ा होने से सारे ब्रह्माण्ड का, जिसमें हमारे निवास स्थान भी सम्मिलित हैं, विनाश कर देते हैं। मैं तथा शिवजी जैसे पुरुष तथा दक्ष, भृगु इत्यादि प्रधान ऋषिमुनि एवं जीवों के शासक, मानव समाज के शासक एवं देवताओं के शासक, हम सभी उन भगवान् विष्णु को अपने अपने सिर झुकाकर समस्त जीवों के कल्याण हेतु उनके आदेशों का पालन करने के लिए उनकी शरण में जाते हैं।

श्लोक 55: जब सुदर्शन चक्र की ज्वलित अग्नि से संतप्त दुर्वासा को ब्रह्माजी ने इस प्रकार मना कर दिया तो उन्होंने कैलास लोक में सदैव निवास करने वाले शिवजी की शरण लेने का प्रयास किया।

श्लोक 56: शिवजी ने कहा : हे पुत्र, मैं, ब्रह्माजी तथा अन्य देवता जो अपनी-अपनी महानता की भ्रान्त धारणा के कारण इस ब्रह्माण्ड के भीतर चक्कर लगाते रहते हैं, भगवान् से स्पर्धा करने की क्षमता नहीं रखते क्योंकि भगवान् के निर्देशन मात्र से असंख्य ब्रह्माण्डों एवं उनके निवासियों का जन्म और संहार होता रहता है।

श्लोक 57-59: मैं (शिवजी), सनत्कुमार, नारद, परमादरणीय ब्रह्माजी, कपिल (देवहूति पुत्र), अपान्तरतम (व्यासदेवजी), देवल, यमराज, आसुरि, मरीचि इत्यादि अनेक सन्तपुरुष एवं सिद्धिप्राप्त अन्य अनेक लोग भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जानने वाले हैं। फिर भी भगवान् की माया से प्रच्छन्न होने के कारण हम यह नहीं समझ पाते कि यह माया कितनी विस्तीर्ण है। तुम उन्हीं भगवान् के पास राहत प्राप्त करने के लिए जाओ क्योंकि यह सुदर्शन चक्र हम लोगों के लिए भी दु:सह है। तुम भगवान् विष्णु के पास जाओ। वे अवश्य ही दयार्द्र होकर तुम्हें सौभाग्य प्रदान करेंगे।

श्लोक 60: तत्पश्चात् शिवजी के द्वारा भी शरण न दिये जाने से निराश होकर दुर्वासा मुनि वैकुण्ठधाम गये जहाँ भगवान् नारायण अपनी प्रियतमा लक्ष्मीदेवी के साथ निवास करते हैं।

श्लोक 61: सुदर्शन चक्र की गर्मी से झुलसे हुए महान् योगी दुर्वासा मुनि नारायण के चरणकमलों पर गिर पड़े। काँपते शरीर से वे इस तरह बोले, “हे अच्युत, हे अनन्त, हे समस्त ब्रह्माण्ड के रक्षक, आप सभी भक्तों के अभीष्ट हैं। हे प्रभु, मैं महान् अपराधी हूँ। कृपया मुझे संरक्षण प्रदान करें।”

श्लोक 62: हे प्रभु, हे परम नियन्ता, मैंने आपकी असीम शक्ति समझे बिना आपके परम प्रिय भक्त के प्रति अपराध किया है। कृपया मुझे इस अपराध के फल से बचा लें। आप हर काम कर सकते हैं क्योंकि यदि कोई व्यक्ति नरक जाने के लायक हो, उसके भी हृदय में अपने पवित्र नाम को जगाकर आप उसका उद्धार कर सकते हैं।

श्लोक 63: भगवान् ने उस ब्राह्मण से कहा : मैं पूर्णत: अपने भक्तों के वश में हूँ। निस्सन्देह, मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ। चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णत: रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में ही निवास करता हूँ। मुझे मेरे भक्त ही नहीं, मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यन्त प्रिय हैं।

श्लोक 64: हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मैं उन साधुपुरुषों के बिना अपना दिव्य आनन्द तथा अपने परम ऐश्वर्यों का भोग नहीं करना चाहता जिनके लिए मैं ही एकमात्र गन्तव्य हूँ।

श्लोक 65: चूँकि शुद्ध भक्तगण इस जीवन में या अगले जीवन में किसी भौतिक उन्नति की इच्छा से रहित होकर अपने घर, पत्नियों, बच्चों, सम्बन्धियों, धन और यहाँ तक कि अपने जीवन का भी परित्याग, मात्र मेरी सेवा करने के लिए, करते हैं तो मैं ऐसे भक्तों को कभी भी किस तरह छोड़ सकता हूँ?

श्लोक 66: जिस तरह सती स्त्रियाँ अपने भद्र पतियों को अपनी सेवा से अपने वश में कर लेती हैं उसी प्रकार से समदर्शी एवं हृदय से मुझमें अनुरक्त शुद्ध भक्तगण मुझको पूरी तरह अपने वश में कर लेते हैं।

श्लोक 67: मेरे जो भक्त मेरी प्रेमाभक्ति में लगे रहकर सदैव सन्तुष्ट रहते हैं वे मोक्ष के चार सिद्धान्तों (सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य तथा सार्ष्टि) में भी तनिक रुचि नहीं रखते यद्यपि उनकी सेवा से ये उन्हें स्वत: प्राप्त हो जाते हैं। तो फिर स्वर्गलोक जाने के नश्वर सुख के विषय में क्या कहा जाए?

श्लोक 68: शुद्ध भक्त सदैव मेरे हृदय में रहता है और मैं शुद्ध भक्त के हृदय में सदैव रहता हूँ। मेरे भक्त मेरे सिवाय और कुछ नहीं जानते और मैं उनके अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता।

श्लोक 69: हे ब्राह्मण, अब मैं तुम्हारी रक्षा के लिए उपदेश देता हूँ। मुझसे सुनो। तुमने महाराज अम्बरीष का अपमान करके आत्म-द्वेष से कार्य किया है। अतएव तुम एक क्षण की भी देरी किये बिना तुरन्त उनके पास जाओ। जो व्यक्ति अपनी तथाकथित शक्ति का प्रयोग भक्त पर करता है उसकी वह शक्ति प्रयोक्ता को ही हानि पहुँचाती है। इस प्रकार कर्ता (विषयी) को हानि पहुँचती है विषय को नहीं।

श्लोक 70: ब्राह्मण के लिए तपस्या तथा विद्या निश्चय ही कल्याणप्रद हैं, किन्तु जब तपस्या तथा विद्या ऐसे व्यक्ति के पास होती हैं जो विनीत नहीं है तो वे अत्यन्त घातक होती हैं।

श्लोक 71: अतएव हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, तुम तुरन्त महाराज नाभाग के पुत्र राजा अम्बरीष के पास जाओ। मैं तुम्हारे कल्याण की कामना करता हूँ। यदि तुम महाराज अम्बरीष को प्रसन्न कर सके तो तुम्हें शान्ति मिल जायेगी।

अध्याय 5: दुर्वासा मुनि को जीवन-दान

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भगवान् विष्णु ने दुर्वासा मुनि को इस प्रकार सलाह दी तो सुदर्शन चक्र से अत्यधिक उत्पीडि़त मुनि तुरन्त ही महाराज अम्बरीष के पास पहुँचे। उन्होंने अत्यन्त दुखित होने के कारण राजा के चरणकमलों पर गिरकर उन्हें पकड़ लिया।

श्लोक 2: जब दुर्वासा मुनि ने महाराज अम्बरीष के पाँव छुए तो वे अत्यन्त लज्जित हो उठे और जब उन्होंने यह देखा कि दुर्वासा उनकी स्तुति करने का प्रयास कर रहे हैं तो वे दयावश और भी अधिक संतप्त हो उठे। अत: उन्होंने तुरन्त ही भगवान् के महान् अस्त्र की स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी।

श्लोक 3: महाराज अम्बरीष ने कहा : हे सुदर्शन चक्र, तुम अग्नि हो, तुम परम शक्तिमान सूर्य हो तथा तुम सारे नक्षत्रों के स्वामी चन्द्रमा हो। तुम जल, पृथ्वी तथा आकाश हो, तुम पाँचों इन्द्रियविषय (ध्वनि, स्पर्श, रूप, स्वाद तथा गंध) हो और तुम्हीं इन्द्रियाँ भी हो।

श्लोक 4: हे भगवान् अच्युत के परम प्रिय, तुम एक हजार अरों वाले हो। हे संसार के स्वामी, समस्त अस्त्रों के विनाशकर्ता, भगवान् की आदि दृष्टि, मैं तुमको सादर नमस्कार करता हूँ। कृपा करके इस ब्राह्मण को शरण दो तथा इसका कल्याण करो।

श्लोक 5: हे सुदर्शन चक्र, तुम धर्म हो, तुम सत्य हो, तुम प्रेरणाप्रद कथन हो, तुम यज्ञ हो तथा तुम्हीं यज्ञ फल के भोक्ता हो। तुम अखिल ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता हो और तुम्हीं भगवान् के हाथों में परम दिव्य तेज हो। तुम भगवान् की मूल दृष्टि हो; अतएव तुम सुदर्शन कहलाते हो। सभी वस्तुएँ तुम्हारे कार्यकलापों से उत्पन्न की हुई हैं, अतएव तुम सर्वव्यापी हो।

श्लोक 6: हे सुदर्शन, तुम्हारी नाभि अत्यन्त शुभ है, अतएव तुम धर्म की रक्षा करने वाले हो। तुम अधार्मिक असुरों के लिए अशुभ पुच्छल तारे के समान हो। निस्सन्देह, तुम्हीं तीनों लोकों के पालक हो। तुम दिव्य तेज से पूर्ण हो, तुम मन के समान तीव्रगामी हो और अद्भुत कर्म करने वाले हो। मैं केवल नम: शब्द कहकर तुम्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 7: हे वाणी के स्वामी, धार्मिक सिद्धान्तों से पूर्ण तुम्हारे तेज से संसार का अंधकार दूर हो जाता है और विद्वान पुरुषों या महात्माओं का ज्ञान प्रकट होता है। निस्सन्देह, कोई तुम्हारे तेज का पार नहीं पा सकता क्योंकि सारी वस्तुएँ, चाहे प्रकट अथवा अप्रकट हों, स्थूल अथवा सूक्ष्म हों, उच्च अथवा निम्न हों, आपके तेज के द्वारा प्रकट होने वाले आपके विभिन्न रूप ही हैं।

श्लोक 8: हे अजित, जब तुम भगवान् द्वारा दैत्यों तथा दानवों के सैनिकों के बीच घुसने के लिए भेजे जाते हो तो तुम युद्धस्थल पर डटे रहते हो और निरन्तर उनके हाथों, पेटों, जाँघों, पाँवों तथा शिरों को विलग करते रहते हो।

श्लोक 9: हे विश्व के रक्षक, तुमको ईर्ष्यालु शत्रुओं को मारने के लिए भगवान् अपने सर्वशक्तिशाली अस्त्र के रूप में प्रयोग करते हैं। हमारे सम्पूर्ण वंश के लाभ हेतु कृपया इस गरीब ब्राह्मण पर दया कीजिये। निश्चय ही, यह हम सब पर कृपा होगी।

श्लोक 10: यदि हमारे परिवार ने सुपात्रों को दान दिया है, यदि हमने कर्मकांड तथा यज्ञ सम्पन्न किये हैं, यदि हमने अपने-अपने वृत्तिपरक कर्तव्यों को ठीक से पूरा किया है और यदि हम विद्वान ब्राह्मणों द्वारा मार्गदर्शन पाते रहे हैं तो मैं चाहूँगा कि उनके बदले में यह ब्राह्मण सुदर्शन चक्र के द्वारा उत्पन्न जलन से मुक्त कर दिया जाय।

श्लोक 11: यदि समस्त दिव्य गुणों के आगार तथा समस्त जीवों के प्राण तथा आत्मा अद्वितीय परमेश्वर हम पर प्रसन्न हैं तो हम चाहेंगे कि यह ब्राह्मण दुर्वासा मुनि जलन की पीड़ा से मुक्त हो जाय।

श्लोक 12: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब राजा ने सुदर्शन चक्र एवं भगवान् विष्णु की स्तुति की तो स्तुतियों के कारण सुदर्शन चक्र शान्त हुआ और उसने दुर्वासा मुनि नामक ब्राह्मण को जलाना बन्द कर दिया।

श्लोक 13: सुदर्शन चक्र की अग्नि से मुक्त किये जाने पर परम शक्तिशाली योगी दुर्वासा मुनि प्रसन्न हुए। तब उन्होंने महाराज अम्बरीष के गुणों की प्रशंसा की और उन्हें उत्तमोत्तम आशीष दिये।

श्लोक 14: दुर्वासा मुनि ने कहा : हे राजा, आज मैंने भगवान् के भक्तों की महानता का अनुभव किया क्योंकि मेरे अपराधी होने पर भी आपने मेरे सौभाग्य के लिए प्रार्थना की है।

श्लोक 15: जिन लोगों ने शुद्ध भक्तों के स्वामी भगवान् को प्राप्त कर लिया है उनके लिए क्या करना असम्भव है और क्या त्यागना असम्भव है?

श्लोक 16: भगवान् के दासों के लिए क्या असम्भव है? भगवान् का पवित्र नाम सुनने मात्र से ही मनुष्य शुद्ध हो जाता है।

श्लोक 17: हे राजन्, आपने मेरे अपराधों को अनदेखा करके मेरा जीवन बचाया है। इस तरह मैं आपका अत्यन्त अनुगृहीत हूँ क्योंकि आप इतने दयावान हैं।

श्लोक 18: राजा ने दुर्वासा मुनि की वापसी की आशा से स्वयं भोजन नहीं किया था। अतएव जब मुनि लौटे तो राजा उनके चरण-कमलों पर गिर पड़ा और उन्हें सभी प्रकार से तुष्ट करके भरपेट भोजन कराया।

श्लोक 19: इस प्रकार राजा ने बड़े आदर के साथ दुर्वासा मुनि का स्वागत किया। वे नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खाकर इतने सन्तुष्ट हुए कि उन्होंने बड़े ही स्नेह से राजा से भी खाने के लिए प्रार्थना की “कृपया भोजन ग्रहण करें।”

श्लोक 20: दुर्वासा मुनि ने कहा : हे राजा, मैं आपसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ। पहले मैंने आपको एक सामान्य व्यक्ति समझकर आपका आतिथ्य स्वीकार किया था, किन्तु बाद में अपनी बुद्धि से मैं समझ सका कि आप भगवान् के अत्यन्त महान् भक्त हैं। इसलिए मात्र आपके दर्शन और आपके चरणस्पर्श से तथा आपसे बातें करके मैं सन्तुष्ट हो गया हूँ और आपका अत्यन्त कृतज्ञ हो गया हूँ।

श्लोक 21: स्वर्गलोक की सारी भाग्यशाली स्त्रियाँ प्रतिक्षण आपके निर्मल चरित्र का गान करेंगी और इस संसार के लोग भी आपकी महिमा का निरन्तर उच्चारण करेंगे।

श्लोक 22: श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार सब तरह से सन्तुष्ट होकर महान् योगी दुर्वासा ने अनुमति ली और वे राजा का निरन्तर यशोगान करते हुए वहाँ से चले गये। वे आकाश मार्ग से ब्रह्मलोक गये जो शुष्क ज्ञानियों से रहित है।

श्लोक 23: दुर्वासा मुनि महाराज अम्बरीष के स्थान से चले गये थे और जब तक वे वापस नहीं लौटे—पूरे एक वर्ष तक—तब तक राजा केवल जल पीकर उपवास करते रहे।

श्लोक 24: एक वर्ष बाद जब दुर्वासा मुनि लौटे तो राजा अम्बरीष ने उन्हें सभी प्रकार के व्यंजन भरपेट खिलाये और तब स्वयं भी भोजन किया। जब राजा ने देखा कि दुर्वासा दग्ध होने के महान् संकट से मुक्त हो चुके हैं तो वे यह समझ सके कि भगवान् की कृपा से वे स्वयं भी शक्तिमान हैं, किन्तु उन्होंने इसका श्रेय अपने को नहीं दिया क्योंकि यह सब भगवान् ने किया था।

श्लोक 25: इस प्रकार अपनी भक्ति के कारण नाना प्रकार के दिव्य गुणों से युक्त महाराज अम्बरीष ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् से भलीभाँति अवगत हो गये और सम्यक् रीति से भक्ति करने लगे। अपनी भक्ति के कारण उन्हें इस भौतिक जगत का सर्वोच्चलोक भी नरक तुल्य लगने लगा।

श्लोक 26: श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : तत्पश्चात् भक्तिमय जीवन की उन्नत दशा के कारण अम्बरीष भौतिक वस्तुओं की किसी तरह से इच्छा न रखते हुए सक्रिय गृहस्थ जीवन से उपरत हो गये। उन्होंने अपनी सम्पत्ति अपने ही समान योग्य पुत्रों में बाँट दी और स्वयं वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार करके भगवान् वासुदेव में अपना मन पूर्णत: एकाग्र करने के लिए जंगल चले गये।

श्लोक 27: जो भी इस कथा को बार-बार पढ़ता है या महाराज अम्बरीष के कार्यकलापों से सम्बन्धित इस कथा का चिन्तन करता है वह अवश्य ही भगवान् का शुद्ध भक्त बन जाता है।

श्लोक 28: भगवत्कृपा से जो लोग महान् भक्त महाराज अम्बरीष के कार्यकलापों के विषय में सुनते हैं, वे अवश्य ही मुक्त हो जाते हैं या तुरन्त भक्त बन जाते हैं।

अध्याय 6: सौभरि मुनि का पतन

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, अम्बरीष के तीन पुत्र हुए—विरूप, केतुमान तथा शम्भु। विरूप के पृषदश्व नामक पुत्र हुआ और पृषदश्व के रथीतर नामक पुत्र हुआ।

श्लोक 2: रथीतर नि:सन्तान था अतएव उसने अंगिरा ऋषि से पुत्र उत्पन्न करने के लिए प्रार्थना की। इस प्रार्थना के फलस्वरूप अंगिरा ने रथीतर की पत्नी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न कराये। ये सारे पुत्र ब्राह्मण तेज से सम्पन्न थे।

श्लोक 3: रथीतर की पत्नी से जन्म लेने के कारण ये सारे पुत्र रथीतर के वंशज कहलाये, किन्तु अंगिरा के वीर्य से उत्पन्न होने के कारण वे अंगिरा के वंशज भी कहलाये। रथीतर की सन्तानों में से ये पुत्र सबसे अधिक प्रसिद्ध थे क्योंकि अपने जन्म के कारण ये ब्राह्मण समझे जाते थे।

श्लोक 4: मनु का पुत्र इक्ष्वाकु था। जब मनु छींक रहे थे तो इक्ष्वाकु उनके नथुनों से उत्पन्न हुआ था। राजा इक्ष्वाकु के एक सौ पुत्र थे जिनमें से विकुक्षि, निमि तथा दण्डका प्रमुख थे।

श्लोक 5: सौ पुत्रों में से पच्चीस पुत्र हिमालय तथा विन्ध्याचल पर्वतों के मध्यवर्ती स्थान आर्यावर्त के पश्चिमी भाग के राजा बने, पच्चीस पुत्र पूर्वी आर्यावर्त के राजा बने और तीन प्रमुख पुत्र मध्यवर्ती प्रदेश के राजा बने। शेष पुत्र अन्य विविध स्थानों के राजा बने।

श्लोक 6: जनवरी, फरवरी तथा मार्च के महीनों में पितरों को दिये जाने वाली भेंटें अष्टका श्राद्ध कहलाती है। श्राद्ध महीने के कृष्णपक्ष में सम्पन्न किया जाता है। जब महाराज इक्ष्वाकु श्राद्ध मनाते हुए भेंटें दे रहे थे तो उन्होंने अपने पुत्र विकुक्षि को आदेश दिया कि वह तुरन्त जंगल में जाकर कुछ शुद्ध मांस ले आये।

श्लोक 7: तत्पश्चात् इक्ष्वाकु पुत्र विकुक्षि जंगल में गया और उसने श्राद्ध में भेंट देने के लिए अनेक पशु मारे। किन्तु जब वह थक गया और भूखा हुआ तो भूल से उसने मारे हुए एक खरगोश को खा लिया।

श्लोक 8: विकुक्षि ने शेष मांस राजा इक्ष्वाकु को लाकर दे दिया जिन्होंने उसे शुद्ध करने के लिए वसिष्ठ को दे दिया। लेकिन वसिष्ठ यह तुरन्त समझ गये कि उस मांस का कुछ भाग विकुक्षि ने पहले ही ग्रहण कर लिया है; अतएव उन्होंने कहा कि यह मांस श्राद्ध में प्रयुक्त होने केलिए अनुपयुक्त है।

श्लोक 9: जब राजा इक्ष्वाकु वसिष्ठ द्वारा बताये जाने पर समझ गये कि उनके पुत्र विकुक्षि ने क्या किया है तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए। इस प्रकार उन्होंने विकुक्षि को देश छोडऩे की आज्ञा दे दी क्योंकि उसने विधि-विधान का उल्लंघन किया था।

श्लोक 10: महान् एवं विद्वान ब्राह्मण वसिष्ठ के साथ परम सत्य विषयक वार्तालाप के बाद उनके द्वारा उपदेश दिये जाने पर महाराज इक्ष्वाकु विरक्त हो गये। उन्होंने योगी के नियमों का पालन करते हुए भौतिक शरीर त्यागने के बाद परम सिद्धि प्राप्त की।

श्लोक 11: अपने पिता के चले जाने पर विकुक्षि अपने देश लौट आया और पृथ्वीलोक पर शासन करते हुए तथा भगवान् को प्रसन्न करने के लिए विविध यज्ञ करते हुए वह राजा बना। बाद में विकुक्षि शशाद नाम से विख्यात हुआ।

श्लोक 12: शशाद का पुत्र पुरञ्जय हुआ जो इन्द्रवाह के रूप में और कभी-कभी ककुत्स्थ के नाम से विख्यात है। अब मुझसे यह सुनो कि उसने विभिन्न कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न नाम किस तरह प्राप्त किये।

श्लोक 13: पूर्वकाल में देवताओं तथा असुरों के मध्य एक घमासान युद्ध हुआ। पराजित होकर देवताओं ने पुरञ्जय को अपना सहायक बनाया और तब वे असुरों को पराजित कर सके। अतएव यह वीर पुरञ्जय कहलाता है अर्थात् जिसने असुरों के निवासों को जीत लिया है।

श्लोक 14: पुरञ्जय ने सारे असुरों को इस शर्त पर मारना स्वीकार किया कि इन्द्र उसका वाहन बनेगा। किन्तु गर्ववश इन्द्र ने यह प्रस्ताव पहले अस्वीकार कर दिया, किन्तु बाद में भगवान् विष्णु के आदेश से उसने इसे स्वीकार कर लिया और पुरञ्जय की सवारी के लिए वह बड़ा सा बैल बन गया।

श्लोक 15-16: कवच से भलीभाँति सुरक्षित होकर और युद्ध करने की इच्छा से पुरञ्जय ने अपना दिव्य धनुष तथा अत्यन्त तीक्ष्ण बाण धारण किया और देवताओं द्वारा अत्यधिक प्रशंसित होकर वह बैल (इन्द्र) की पीठ पर सवार हुआ तथा उसके डिल्ले पर बैठ गया। इसलिए वह ककुत्स्थ कहलाता है। परमात्मा तथा परम पुरुष भगवान् विष्णु से शक्ति प्राप्त करके पुरञ्जय उस बड़े बैल पर सवार हो गया, इसलिए वह इन्द्रवाह कहलाता है। देवताओं को साथ लेकर उसने पश्चिम में असुरों के निवासस्थानों पर आक्रमण कर दिया।

श्लोक 17: असुरों तथा पुरञ्जय के मध्य घनघोर लड़ाई छिड़ गई। निस्सन्देह, यह इतनी भयानक थी कि सुनने वाले के रोंगटे खड़े हो जाते। जितने सारे असुर पुरञ्जय के समक्ष आने का साहस करते वे सभी उसके तीरों से तुरन्त यमराज के घर भेज दिये जाते।

श्लोक 18: इन्द्रवाह के अग्नि उगलते तीरों से अपने को बचाने के लिए वे असुर, जो अपनी सेना के मारे जाने के बाद बचे थे, तेजी से अपने-अपने घरों को भाग खड़े हुए क्योंकि यह अग्नि युग के अन्त में उठने वाली प्रलयाग्नि के समान थी।

श्लोक 19: शत्रु को जीतने के बाद सन्त राजा पुरञ्जय ने वज्रधारी इन्द्र को सब कुछ लौटा दिया जिसमें शत्रु का धन तथा पत्नियाँ सम्मिलित थीं। इसी हेतु वह पुरञ्जय नाम से विख्यात है। इस तरह पुरञ्जय अपने विविध कार्यकलापों के कारण विभिन्न नामों से जाना जाता है।

श्लोक 20: पुरञ्जय का पुत्र अनेना कहलाया। अनेना का पुत्र पृथु था और पृथु का पुत्र विश्वगन्धि। विश्वगन्धि का पुत्र चन्द्र हुआ और चन्द्र का पुत्र युवनाश्व था।

श्लोक 21: युवनाश्व का पुत्र श्रावस्त था जिसने श्रावस्ती नामक पुरी का निर्माण कराया। श्रावस्त का पुत्र बृहदश्व था और उसका पुत्र कुवलयाश्व था। इस तरह यह वंश बढ़ता रहा।

श्लोक 22: उतंक ऋषि को संतुष्ट करने के लिए परम शक्तिशाली कुवलयाश्व ने धुन्धु नामक असुर का वध किया। उसने अपने इक्कीस हजार पुत्रों की सहायता से ऐसा किया।

श्लोक 23-24: हे महाराज परीक्षित, इस कारण से कुवलयाश्व धुन्धुमार कहलाता है। किन्तु उसके तीन पुत्रों को छोडक़र शेष सभी धुन्धु के मुख से निकलने वाली अग्नि से जलकर राख हो गये। बचे हुए पुत्रों के नाम हैं—दृढ़ाश्व, कपिलाश्व तथा भद्राश्व। दृढ़ाश्व के हर्यश्व नामक पुत्र हुआ जिसका पुत्र निकुम्भ नाम से विख्यात है।

श्लोक 25: निकुम्भ का पुत्र बहुलाश्व था, बहुलाश्व का पुत्र कृशाश्व और कृशाश्व का पुत्र सेनजित हुआ। सेनजित का पुत्र युवनाश्व था। युवनाश्व के कोई सन्तान नहीं थी इसलिए वह गृहस्थ जीवन त्यागकर जंगल चला गया।

श्लोक 26: यद्यपि युवनाश्व अपनी एक सौ पत्नियों सहित जंगल में चला गया, किन्तु वे सभी अत्यन्त खिन्न थीं। तथापि जंगल के ऋषि राजा पर अत्यन्त दयालु थे, अतएव वे मनोयोगपूर्वक इन्द्रयज्ञ करने लगे जिससे राजा के पुत्र उत्पन्न हो सके।

श्लोक 27: एक रात्रि को प्यासे होने के कारण राजा यज्ञशाला में घुस गया और जब उसने देखा कि सारे ब्राह्मण लेटे हुए हैं तो उसने अपनी पत्नी के पीने के लिए रखे हुए मंत्र से पवित्र किये गये जल को स्वयं पी लिया।

श्लोक 28: जब सारे ब्राह्मण जगे और उन्होंने देखा कि जलपात्र खाली है तो उन्होंने पूछा कि संतान उत्पन्न करने वाले जल को किसने पिया है?

श्लोक 29: जब ब्राह्मणों को यह ज्ञात हुआ कि ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर राजा ने जल पी लिया है तो उन्होंने विस्मित होकर कहा, “ओह! विधाता की शक्ति ही असली शक्ति है। ईश्वर की शक्ति का कोई भी निराकरण नहीं कर सकता।” इस तरह उन्होंने भगवान् को सादर नमस्कार किया।

श्लोक 30: तत्पश्चात् कालक्रम से राजा युवनाश्व के उदर के दाहिनी ओर के निचले भाग से चक्रवर्ती राजा के उत्तम लक्षणों से युक्त एक पुत्र उत्पन्न हुआ।

श्लोक 31: वह बालक स्तन के दूध के लिए इतना अधिक रोया कि सारे ब्राह्मण चिन्तित हो उठे। उन्होंने कहा “इस बालक को कौन पालेगा?” तब उस यज्ञ में पूजित इन्द्र आये और उन्होंने बालक को सान्त्वना दी “मत रोओ।” फिर इन्द्र ने उस बालक के मुँह में अपनी तर्जनी अँगुली डालकर कहा “तुम मुझे पी सकते हो।”

श्लोक 32: चूँकि उस बालक के पिता युवनाश्व को ब्राह्मणों का आशीर्वाद प्राप्त था अत: वह मृत्यु का शिकार नहीं हुआ। इस घटना के बाद उसने कठिन तपस्या की और उसी स्थान पर सिद्धि प्राप्त की।

श्लोक 33-34: युवनाश्व-पुत्र मान्धाता, रावण तथा चिन्ता उत्पन्न करने वाले अन्य चोर उचक्कों के लिए भय का कारण बना था। हे राजा परीक्षित, चूँकि वे सब उससे भयभीत रहते थे, अतएव युवनाश्व का पुत्र त्रसद्दस्यु कहलाता था। यह नाम इन्द्र द्वारा रखा गया था। भगवान् की कृपा से युवनाश्व-पुत्र इतना शक्तिशाली था कि जब वह सम्राट बना तो उसने सात द्वीपों से युक्त सारे विश्व पर शासन किया। वह अद्वितीय शासक था।

श्लोक 35-36: भगवान् महान् यज्ञों के कल्याणकारी पक्षो से—यथा यज्ञ की सामग्री, वैदिक स्तोत्रों का उच्चारण, विधि-विधान, यज्ञकर्ता, पुरोहित, यज्ञ-फल, यज्ञ-शाला, यज्ञ के समय, इत्यादि से भिन्न नहीं हैं। मान्धाता ने आत्म-साक्षात्कार के नियमों को जानते हुए दिव्य पद पर स्थित परमात्मा स्वरूप उन भगवान् विष्णु की पूजा की जो समस्त देवताओं से युक्त हैं। उसने ब्राह्मणों को भी प्रचुर दान दिया और इस तरह उसने भगवान् की पूजा करने के लिए यज्ञ किया।

श्लोक 37: क्षितिज में जहाँ से सूर्य उदय होकर चमकता है और जहाँ सूर्य अस्त होता है वे सारे स्थान युवनाश्व के पुत्र विख्यात मान्धाता के अधिकार में माने जाते हैं।

श्लोक 38: शशबिन्दु की पुत्री बिन्दुमती के गर्भ से मान्धाता को तीन पुत्र उत्पन्न हुए। इनके नाम थे पुरुकुत्स, अम्बरीष तथा महान् योगी मुचुकुन्द। इन तीनों भाइयों के पचास बहिनें थीं जिन्होंने सौभरि ऋषि को अपना पति चुना।

श्लोक 39-40: सौभरि ऋषि यमुना नदी के गहरे जल में तपस्या में तल्लीन थे कि उन्होंने मछलियों के एक जोड़े को संभोगरत देखा। इस तरह उन्होंने विषयी जीवन का सुख अनुभव किया जिससे प्रेरित होकर वे राजा मान्धाता के पास गये और उनसे उनकी एक कन्या की याचना की। इस याचना के उत्तर में राजा ने कहा, “हे ब्राह्मण, मेरी कोई भी पुत्री अपनी इच्छा से किसी को भी पति चुन सकती है।”

श्लोक 41-42: सौभरि मुनि ने सोचा: मैं वृद्धावस्था के कारण अब निर्बल हो गया हूँ। मेरे बाल सफेद हो चुके हैं, मेरी चमड़ी झूल रही है और मेरा सिर सदा हिलता रहता है। इसके अतिरिक्त मैं योगी हूँ। अतएव ये स्त्रियाँ मुझे पसन्द नहीं करतीं। चूँकि राजा ने मुझे तिरस्कृत कर दिया है अतएव मैं अपने शरीर को ऐसा बनाऊँगा कि मैं संसारी राजाओं की कन्याओं का ही नहीं अपितु सुर-सुन्दरियों के लिए भी अभीष्ट बन जाऊँ।

श्लोक 43: तत्पश्चात् जब सौभरि मुनि तरुण और रूपवान हो गये तब राजप्रासाद का दूत उन्हें राजकुमारियों के अन्त:पुर में ले गया जो अत्यन्त ऐश्वर्यमय था। तत्पश्चात् उन पचासों राजकुमारियों ने उस अकेले व्यक्ति को अपना पति बना लिया।

श्लोक 44: तत्पश्चात् राजकुमारियाँ सौभरि मुनि द्वारा आकृष्ट होकर अपना बहिन का नाता भूल गईं और परस्पर यह कहकर झगडऩे लगीं “यह व्यक्ति मेरे योग्य है, तुम्हारे योग्य नहीं।” इस तरह से उन सबों में काफी विरोध उत्पन्न हो गया।

श्लोक 45-46: चूँकि सौभरि मुनि मंत्रोचारण करने में पूर्णरूपेन पटु थे अतएव उनकी कठिन तपस्या से ऐश्वर्यशाली घर, वस्त्र, गहने, सुसज्जित दास तथा दासियाँ स्वच्छ जलवाली झीलें, उद्यानों से युक्त विविध बगीचे उत्पन्न हो गये। उद्यानों में विविध प्रकार के सुगन्धित फूल, चहकते पक्षी तथा गुनगुनाते भौंरे थे और मुनि पेशेवर गायकों से घिरे थे। सौभरि मुनि के घर में मूल्यवान बिस्तर, आसन, गहने, स्नानागार और तरह-तरह के चन्दनलेप, फूलमालाएँ तथा स्वादिष्ट व्यंजन थे। इस प्रकार ऐश्वर्यशाली साज-सामान से घिरे हुए सौभरि मुनि अपनी अनेक पत्नियों के साथ गृहकार्यों में व्यस्त हो गये।

श्लोक 47: सप्तद्वीपमय जगत के राजा मान्धाता ने जब सौभरि मुनि के घरेलू ऐश्वर्य को देखा तो वे आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने जगत के सम्राट के रूप में अपनी झूठी प्रतिष्ठा छोड़ दी।

श्लोक 48: इस प्रकार सौभरि मुनि इस भौतिक जगत में इन्द्रियतृप्ति करते रहे, किन्तु वे तनिक भी सन्तुष्ट नहीं थे जिस प्रकार निरन्तर घी की बूँदें पाते रहने से अग्नि कभी जलना बन्द नहीं करती।

श्लोक 49: तत्पश्चात् मंत्रोच्चार करने में पटु सौभरि मुनि एक दिन जब एकान्त स्थान में बैठे थे, तो उन्होंने अपने पतन के कारण के विषय में सोचा। कारण यही था कि उन्होंने एक मछली के मैथुन से अपने आपको सम्बद्ध कर दिया था।

श्लोक 50: ओह! गम्भीर जल के भीतर तपस्या करने पर भी तथा साधु पुरुषों द्वारा अभ्यास किये जाने वाले सारे विधि-विधानों का पालन करते हुए भी मैंने मात्र मछली के मैथुन-सान्निध्य के कारण अपनी दीर्घकालीन तपस्या का फल हाथों से जाने दिया। हर एक को इस पतन को देखकर इससे सीख लेनी चाहिए।

श्लोक 51: भवबन्धन से मोक्ष की कामना करने वाले पुरुष को वासनामय जीवन में रुचि रखने वाले व्यक्तियों की संगति छोड़ देनी चाहिए और अपनी इन्द्रियों को किसी बाह्यकर्म में (देखने, सुनने, बोलने, चलने इत्यादि) नहीं लगाना चाहिए। उसे सदैव एकान्त स्थान में ठहरना चाहिए और मन को अनन्त भगवान् के चरणकमलों पर पूर्णत: स्थिर करना चाहिए। यदि कोई संगति करनी भी हो तो उसे उसी प्रकार के कार्य में लगे पुरुषों की संगति करनी चाहिए।

श्लोक 52: शुरू में मैं अकेला था और योग की तपस्या करता रहता था, किन्तु बाद में मैथुनरत मछली की संगति के कारण मुझमें विवाह करने की इच्छा जगी। तब मैं पचास पत्नियों का पति बन गया और हर एक ने एक एक सौ पुत्र उत्पन्न किये। इस तरह मेरे परिवार में पाँच हजार सदस्य हो गये। प्रकृति के गुणों से प्रभावित होकर मेरा पतन हुआ और मैंने सोचा कि भौतिक जीवन में मैं सुखी रहूँगा। इस तरह इस जीवन तथा अगले जीवन में भोग के लिए मेरी इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है।

श्लोक 53: इस तरह उसने कुछ काल तक घरेलू कार्यों में अपना जीवन बिताया लेकिन बाद में वह भौतिक भोग से विरक्त हो गया। उसने भौतिक संगति का परित्याग करने के लिए वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण किया और फिर वह जंगल में चला गया। पतिपरायणा पत्नियों ने उसका अनुसरण किया क्योंकि अपने पति के अतिरिक्त उनका कोई आश्रय न था।

श्लोक 54: जब आत्मवान सौभरि मुनि जंगल में चले गये तो उन्होंने कठोर तपस्याएँ की। इस तरह अन्तत: मृत्यु के समय उन्होंने अग्नि में स्वयं को भगवान् की सेवा में लगा दिया।

श्लोक 55: हे महाराज परीक्षित, अपने पति को आध्यात्मिक जगत की ओर प्रगति करते देखकर सौभरि मुनि की पत्नियाँ भी मुनि की आध्यात्मिक शक्ति से वैकुण्ठलोक में प्रवेश करने में समर्थ हुईं जिस तरह अग्नि बुझाने पर अग्नि की ज्वालाएँ शमित हो जाती हैं।

अध्याय 7: राजा मान्धाता के वंशज

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : मान्धाता का सर्वप्रमुख पुत्र अम्बरीष नाम से विख्यात हुआ। अम्बरीष को उसके बाबा युवनाश्व ने पुत्र रूप में स्वीकार किया। अम्बरीष का पुत्र यौवनाश्व हुआ और यौवनाश्व का पुत्र हारीत था। मान्धाता के वंश में अम्बरीष, हारीत तथा यौवनाश्व अत्यन्त प्रमुख थे।

श्लोक 2: नर्मदा के सर्प-भाइयों ने उसे पुरुकुत्स को दे दिया। वासुकि द्वारा भेजे जाने पर नर्मदा पुरुकुत्स को ब्रह्माण्ड के निम्न भाग (रसातल) में ले गई।

श्लोक 3: रसातल में भगवान् विष्णु द्वारा शक्ति प्रदान किये जाने के कारण पुरुकुत्स मारे जाने के योग्य सभी गन्धर्वों का वध करने में समर्थ हो गया। पुरुकुत्स को सर्पों से यह वर प्राप्त हुआ कि जो कोई नर्मदा द्वारा रसातल में उसके लाये जाने के इतिहास को स्मरण करेगा उसे सर्पों के आक्रमण से सुरक्षा प्रदान की जायेगी।

श्लोक 4: पुरुकुत्स का पुत्र त्रसद्दस्यु हुआ जो अनरण्य का पिता था। अनरण्य का पुत्र हर्यश्व हुआ जो प्रारुण का पिता बना। प्रारुण का पुत्र त्रिबन्धन हुआ।

श्लोक 5-6: त्रिबन्धन का पुत्र सत्यव्रत था जो त्रिशंकु नाम से विख्यात है। चूँकि उसने विवाह-मण्डप से एक ब्राह्मणपुत्री का अपहरण कर लिया था इसलिए उसके पिता ने उसे चण्डाल बनने का शाप दे दिया जो शूद्र से भी नीचे होता है। तत्पश्चात् विश्वामित्र के प्रभाव से वह सदेह स्वर्गलोक गया, किन्तु देवताओं के पराक्रम से वह पुन: नीचे गिर गया। तो भी विश्वामित्र की शक्ति से वह एकदम नीचे नहीं गिरा। आज भी वह आकाश में सिर के बल लटकता देखा जा सकता है।

श्लोक 7: त्रिशंकु का पुत्र हरिश्चन्द्र हुआ। हरिश्चन्द्र को लेकर विश्वामित्र तथा वसिष्ठ में युद्ध हुआ। वे दोनों पक्षी के रूप में बदले जाकर वर्षों तक लड़ते रहे।

श्लोक 8: हरिश्चन्द्र के कोई पुत्र न था; अतएव वह अत्यन्त खिन्न रहता था। अतएव एक बार नारद मुनि के उपदेश से उसने वरुण की शरण ग्रहण की और उनसे कहा “हे प्रभु, मेरे कोई पुत्र नहीं है। क्या आप मुझे एक पुत्र दे सकेंगे?”

श्लोक 9: हे राजा परीक्षित, हरिश्चन्द्र ने वरुण से याचना की, “हे प्रभु, यदि मेरे पुत्र उत्पन्न होगा तो मैं आपकी तुष्टि के लिए उसी से एक यज्ञ करूँगा।” जब हरिश्चन्द्र ने यह कहा तो वरुण ने उत्तर दिया “एवमस्तु,” वरुण के आशीर्वाद से हरिश्चन्द्र के रोहित नाम का पुत्र हुआ।

श्लोक 10: अत:, जब पुत्र उत्पन्न हो गया तो वरुण ने हरिश्चन्द्र के पास आकर कहा “अब तुम्हारे पुत्र हो गया है। तुम इस पुत्र से मेरा यज्ञ कर सकते हो।” इसके उत्तर में हरिश्चन्द्र ने कहा “पशु अपने जन्म के दस दिन बाद ही यज्ञ (बलि दिये जाने) के योग्य होता है।”

श्लोक 11: दस दिन बाद वरुण पुन: आया और हरिश्चन्द्र से कहा “अब तुम यज्ञ कर सकते हो।” हरिश्चन्द्र ने उत्तर दिया, “जब पशु के दाँत आ जाते हैं तो वह बलि देने के योग्य शुद्ध बनता है।”

श्लोक 12: जब दाँत उग आये तो वरुण ने आकर हरिश्चन्द्र से कहा, “अब पशु के दाँत उग आये हैं। तुम यज्ञ कर सकते हो।” हरिश्चन्द्र ने उत्तर दिया, “जब इसके सारे दाँत गिर जायेंगे तो यह बलि के योग्य हो जायेगा।”

श्लोक 13: जब दाँत गिर चुके तो वरुण फिर आया और हरिश्चन्द्र से बोला “अब पशु के दाँत गिर चुके हैं और तुम यज्ञ कर सकते हो।” किन्तु हरिश्चन्द्र ने उत्तर दिया, “जब पशु के दाँत फिर से उग आयेंगे तो वह बलि देने के लिए अत्यन्त शुद्ध होगा।”

श्लोक 14: जब दाँत फिर से उग आये तो वरुण फिर आया और हरिश्चन्द्र से बोला, “अब तुम यज्ञ कर सकते हो।” किन्तु तब हरिश्चन्द्र ने कहा, “हे राजा, जब बलि का पशु क्षत्रिय बन जाता है और वह अपने शत्रु से अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाता है, तभी वह शुद्ध बनेगा।”

श्लोक 15: हरिश्चन्द्र अपने पुत्र के प्रति अत्यधिक अनुरक्त था। इस स्नेह के कारण उसने वरुण देव से प्रतीक्षा करने के लिए कहा। इस तरह वरुण समय आने की प्रतीक्षा करता रहा।

श्लोक 16: रोहित समझ गया कि उसके पिता उसे बलि का पशु बनाना चाहते हैं। अतएव मृत्यु से बचने के लिए उसने धनुष-बाण से अपने आपको सज्जित किया और वह जंगल में चला गया।

श्लोक 17: जब रोहित ने सुना कि वरुण के कारण उसके पिता को जलोदर रोग हो गया है और उसका पेट फूल गया है तो वह राजधानी लौट आना चाहता था लेकिन राजा इन्द्र ने ऐसा करने से उसे मना कर दिया।

श्लोक 18: राजा इन्द्र ने रोहित को सलाह दी कि वह विभिन्न तीर्थस्थानों तथा पवित्र स्थलों की यात्रा करे क्योंकि ऐसे कार्य पवित्र होते हैं। इस आदेश का पालन करते हुए रोहित एक वर्ष के लिए जंगल में चला गया।

श्लोक 19: इस तरह द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ तथा पंचम वर्षों के अन्त में जब-जब रोहित अपनी राजधानी लौटना चाहता तो इन्द्र एक वृद्ध ब्राह्मण के वेश में उसके पास पहुँचता और वापस जाने के लिए उसे मना करता। वह गत वर्ष जैसे ही शब्दों को फिर से दुहराता।

श्लोक 20: तत्पश्चात् छठे वर्ष जंगल में घूमने के बाद रोहित अपने पिता की राजधानी में लौट आया। उसने अजीगर्त से उसके दूसरे पुत्र शुन:शेफ को मोल लिया। फिर उसे लाकर अपने पिता हरिश्चन्द्र को भेंट किया जिससे वह बलि-पशु के रूप में प्रयुक्त किया जा सके। उसने हरिश्चन्द्र को सादर नमस्कार किया।

श्लोक 21: तत्पश्चात् इतिहास के महापुरुष एवं सुप्रसिद्ध राजा हरिश्चन्द्र ने एक मनुष्य की बलि देकर महान् यज्ञ सम्पन्न किया और सारे देवताओं को प्रसन्न किया। इस प्रकार वरुण द्वारा उत्पन्न किया गया उसका जलोदर रोग जाता रहा।

श्लोक 22: उस पुरुषमेध यज्ञ में विश्वामित्र होता थे, आत्मवान जमदग्नि अध्वर्यु थे, वसिष्ठ ब्रह्मा थे और अयास्य मुनि साम-गायक थे।

श्लोक 23: हरिश्चन्द्र से अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा इन्द्र ने उसे सोने का रथ दान में दिया। शुन:शेफ की महिमाओं का वर्णन विश्वामित्र के पुत्र के वर्णन के साथ-साथ प्रस्तुत किया जायेगा।

श्लोक 24: विश्वामित्र ने देखा कि महाराज हरिश्चन्द्र अपनी पत्नी सहित सत्यप्रिय, सहिष्णु तथा दृढ़ था। इस तरह उन्होंने मानव उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्हें अक्षय ज्ञान प्रदान किया।

श्लोक 25-26: इस प्रकार महाराज हरिश्चन्द्र ने पहले भौतिक भोग से पूर्ण अपने मन को पृथ्वी के साथ मिलाकर शुद्ध किया। तब उसने पृथ्वी को जल के साथ, जल को अग्नि के साथ, अग्नि को वायु के साथ तथा वायु को आकाश के साथ मिला दिया। तत्पश्चात् उसने आकाश को महत्-तत्त्व से और महत्- तत्त्व को आध्यात्मिक ज्ञान से मिला दिया। यह आध्यात्मिक ज्ञान अपने आपको भगवान् के अंश रूप में अनुभव करना है। जब स्वरूपसिद्ध जीव भगवान् की सेवा में लगता है तो वह नित्य रूप से अवर्णनीय तथा अचिन्त्य होता है। इस प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हो जाने पर वह भव-बन्धन से पूर्णत: मुक्त हो जाता है।

अध्याय 8: भगवान् कपिलदेव से सगर-पुत्रों की भेंट

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : रोहित का पुत्र हरित हुआ और हरित का पुत्र चम्प हुआ जिसने चम्पापुरी नामक नगर का निर्माण कराया। चम्प का पुत्र सुदेव हुआ और सुदेव का पुत्र विजय था।

श्लोक 2: विजय का पुत्र भरुक, भरुक का पुत्र वृक और उसका पुत्र बाहुक हुआ। राजा बाहुक के शत्रुओं ने उसकी सारी सम्पत्ति छीन ली जिससे उसने वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण कर लिया और अपनी पत्नी सहित वन में चला गया।

श्लोक 3: जब बाहुक वृद्ध होकर मर गया तो उसकी एक पत्नी उसके साथ सती होना चाहती थी। किन्तु उस समय और्व मुनि ने यह जानते हुए कि वह गर्भवती है उसे सती होने से मना किया।

श्लोक 4: यह जानते हुए कि वह गर्भवती थी, उसकी सौतों ने उसको भोजन के साथ विष देने की मंत्रणा की लेकिन यह फलीभूत नहीं हुई। किन्तु इस विष सहित एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो सगर (विष सहित) कहलाया। बाद में सगर सम्राट बना। गंगासागर नामक स्थान उसके पुत्रों द्वारा खोदा गया था।

श्लोक 5-6: सगर महाराज ने अपने गुरु और्व के आदेशानुसार तालजंघ, यवन, शक, हैहय तथा बर्बर जातियों के असभ्य लोगों का वध नहीं किया अपितु उनमें से कुछ को भद्दे वस्त्र पहनने को बाध्य कर दिया, कुछ के सिर घुटवा दिये लेकिन मूँछें रखने दीं, कुछ के बालों को खुलवा दिया, कुछ के सिर आधे घुटवा दिए, कुछ को बिना भीतरी वस्त्र के कर दिया और कुछ को निर्वस्त्र करा दिया। इस प्रकार ये जातियाँ भिन्न-भिन्न वस्त्र धारण करने के लिए बाध्य की गईं, किन्तु राजा सगर ने इन्हें मारा नहीं।

श्लोक 7: और्व मुनि के आदेशानुसार सगर महाराज ने अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किया और इस तरह भगवान् को प्रसन्न किया जो परम नियन्ता, समस्त विद्वानों के परमात्मा तथा सभी वेदों के ज्ञाता हैं। किन्तु स्वर्ग के राजा इन्द्र ने यज्ञ में बलि दिये जाने वाले घोड़े को चुरा लिया।

श्लोक 8: (राजा सगर के दो पत्नियाँ थीं—सुमति तथा केशिनी)। सुमति के पुत्रों ने, जिन्हें अपने पराक्रम तथा प्रभाव पर गर्व था, अपने पिता के आदेशानुसार खोये हुए घोड़े को सर्वत्र ढूँढा। ऐसा करते हुए उन्होंने पृथ्वी को बहुत दूर तक खोद डाला।

श्लोक 9-10: तत्पश्चात् जब उन्होंने उत्तरपूर्व दिशा में कपिल मुनि के आश्रम के निकट घोड़े को देखा तो वे बोल उठे “यह रहा घोड़ाचोर! यह आँखें बन्द किये बैठा है। यह निश्चय ही बड़ा पापी है। इसे मारो, मारो।” इस प्रकार चिल्लाते हुए सगर के साठ हजार पुत्रों ने एकसाथ अपने हथियार उठा लिये। जब वे मुनि के निकट पहुँचे तो मुनि ने अपनी आँखें खोलीं।

श्लोक 11: स्वर्ग के राजा इन्द्र के प्रभाव से सगर के पुत्रों की बुद्धि मारी गई जिससे उन्होंने एक महापुरुष का अपमान कर दिया। फलस्वरूप उनके शरीरों से अग्नि निकलने लगी और वे तुरन्त जलकर राख हो गये।

श्लोक 12: कभी-कभी यह तर्क दिया जाता है कि राजा सगर के सारे पुत्र कपिल मुनि की आँखों से निकली अग्नि से भस्मसात् हुए थे। लेकिन विद्वान पुरुष इस मत की पुष्टि नहीं करते क्योंकि कपिल मुनि का शरीर नितान्त सात्विक था अतएव उससे क्रोध के रूप में तमोगुण प्रकट नहीं हो सकता जिस तरह निर्मल आकाश को पृथ्वी की धूल दूषित नहीं कर सकती।

श्लोक 13: कपिल मुनि ने इस जगत में सांख्य दर्शन का प्रवर्तन किया जो अज्ञानरूपी सागर को पार करने के लिए दृढ़ नाव है। निस्सन्देह, भवसागर को पार करने के इच्छुक व्यक्ति को इस दर्शन का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। ऐसे महापुरुष में, जो अध्यात्म के उच्चपद को प्राप्त हो, एक मित्र तथा शत्रु में कोई अन्तर कैसे हो सकता है?

श्लोक 14: महाराज सगर के पुत्रों में एक का नाम असमंजस था जो राजा की दूसरी पत्नी केशिनी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। असंमजस का पुत्र अंशुमान था और वह अपने बाबा सगर महाराज के कल्याण- कार्य में सदैव लगा रहता था।

श्लोक 15-16: पिछले जन्म में असमंजस एक महान् योगी था, किन्तु कुसंगति के कारण वह अपने उच्चपद से नीचे गिर गया था। अब, इस जन्म में वह राजपरिवार में उत्पन्न हुआ था और जाति-स्मर था अर्थात् वह अपने पूर्वजन्म को स्मरण करने में समर्थ था। फिर भी वह अपने आपको दुर्जन के रूप में दिखलाना चाहता था; अतएव वह ऐसा कार्य किया करता था जो जनता तथा उसके परिजनों की दृष्टि में गर्हित तथा प्रतिकूल होता। वह सरयू नदी में खेल करते बालकों को गहरे जल में फेंककर उन्हे तगं करता रहता था।

श्लोक 17: चूँकि असमंजस ऐसे गर्हित कार्यों में लगा रहता था अतएव उसके पिता ने उससे स्नेह करना छोड़ दिया और उसे घर से निकाल दिया। तब असमंजस ने उन बालकों को जीवित करके उन्हें राजा तथा उनके माता-पिताओं को दिखलाकर अपनी योगशक्ति का प्रदर्शन किया। तत्पश्चात् असमंजस ने अयोध्या छोड़ दिया।

श्लोक 18: हे राजा परीक्षित, जब सारे अयोध्यावासियों ने देखा कि उनके लडक़े पुन: जीवित हो उठे हैं तो वे स्तम्भित रह गये और राजा सगर को अपने पुत्र की अनुपस्थिति पर अत्यधिक पश्चाताप हुआ।

श्लोक 19: तत्पश्चात् महाराज सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को घोड़ा ढूँढ लाने का आदेश दिया। अंशुमान अपने चाचाओं के पथ से होकर धीरे-धीरे राख के ढेर तक पहुँचा और उसने उसी के निकट घोड़े को पाया।

श्लोक 20: महान् अंशुमान ने विष्णु अवतार कपिल नामक मुनि को देखा जो घोड़े के निकट आसीन थे। अंशुमान ने उन्हें हाथ जोडक़र नमस्कार किया और दत्तचित्त होकर उनकी प्रार्थना की।

श्लोक 21: अंशुमान ने कहा : हे भगवान्, आज तक ब्रह्माजी भी आपके अगम्य पद को ध्यान या चिन्तन द्वारा समझ पाने में असमर्थ हैं तो हम जैसों की कौन कहे जो ब्रह्मा द्वारा देवता, पशु, मनुष्य, पक्षी तथा पशु इत्यादि के विविध रूपों में उत्पन्न किये गये हैं? हम पूरी तरह अज्ञान में हैं। अतएव हम साक्षात् ब्रह्म स्वरूप आपको कैसे जान सकते हैं?

श्लोक 22: हे स्वामी, आप सबों के हृदयों मे भलीभाँति स्थित हैं, किन्तु भौतिक शरीर से आवृत सारे जीव आपको नहीं देख पाते क्योंकि वे त्रिगुणमयी माया द्वारा प्रेरित बहिरंगा शक्ति के द्वारा प्रभावित रहते हैं। उनकी बुद्धि सतो, रजो तथा तमो गुणों से ढकी होने से वे प्रकृतिके इन तीनों गुणों की क्रियाओं- प्रतिक्रियाओं को ही देख पाते हैं। तमोगुण की क्रिया-प्रतिक्रियाओं के कारण जाग्रत या सुप्त जीव प्रकृति की कार्यविधि को ही देख पाते हैं; वे आप (भगवान्) को नहीं देख सकते।

श्लोक 23: हे प्रभु, प्रकृति के तीनों गुणों के प्रभाव से मुक्त हुए साधुपुरुष, यथा चारों कुमार (सनत्, सनक, सनन्दन तथा सनातन) ही ज्ञान के पुंज आपके विषय में सोच सकते हैं। भला मुझ जैसा अज्ञानी व्यक्ति आपके विषय में कैसे सोच सकता है?

श्लोक 24: हे परम शान्तिमय स्वामी, यद्यपि यह प्रकृति, सारे सकाम कर्म तथा उनके फलस्वरूप भौतिक नाम तथा रूप आपकी सृष्टि हैं, तथापि आप उनसे अप्रभावित रहते हैं। अतएव आपका दिव्य नाम भौतिक नामों से भिन्न है और आपका स्वरूप भौतिक स्वरूपों से भिन्न है। आप भगवद्गीता जैसे ज्ञान का हमें उपदेश देने के लिए ही भौतिक शरीर के ही समान रूप धारण करते हैं लेकिन वस्तुत: आप रहते हैं परम आदि पुरुष ही। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 25: हे भगवन्, जिनके मन काम, लोभ, ईर्ष्या तथा मोह से मोहित हैं वे आपकी माया द्वारा सृजित इस जगत में झूठे ही घर, गृहस्थी आदि में रुचि रखते हैं। वे घर, पत्नी तथा सन्तान में आसक्त रहकर इसी जगत में निरन्तर घूमते रहते हैं।

श्लोक 26: हे समस्त जीवों के परमात्मा, हे भगवान्, मैं अब आपके दर्शनमात्र से सारी कामवासनाओं से मुक्त हो गया हूँ जो दुर्लंघ्य मोह तथा संसार-बन्धन के मूल कारण हैं।

श्लोक 27: हे राजा परीक्षित, जब अंशुमान ने भगवान् का इस प्रकार महिमागायन किया तो महामुनि कपिल ने, जो विष्णु के सशक्त अवतार हैं, उस पर कृपालु होकर उसे ज्ञान का मार्ग बतलाया।

श्लोक 28: भगवान् कपिल ने कहा : हे प्रिय अंशुमान, यह रहा तुम्हारे बाबा द्वारा खोजा जा रहा यज्ञ-पशु। इसे लो। दग्ध हुए तुम्हारे इन पुरखों का उद्धार केवल गंगाजल से हो सकता है, किसी अन्य साधन से नहीं।

श्लोक 29: तत्पश्चात् अंशुमान ने कपिल मुनि की परिक्रमा की और अपना सिर झुकाकर उन्हें सादर नमस्कार किया। इस तरह उन्हें पूरी तरह सन्तुष्ट करके अंशुमान यज्ञ-पशु को वापस ले आया और महाराज सगर ने इस घोड़े से यज्ञ का शेष अनुष्ठान सम्पन्न किया।

श्लोक 30: अंशुमान को अपने राज्य की बागडोर देकर तथा सारी भौतिक चिन्ता एवं बन्धन से मुक्त होकर सगर महाराज ने और्व मुनि के द्वारा उपदिष्ट साधनों का पालन करते हुए परम गति प्राप्त की।

अध्याय 9: अंशुमान की वंशावली

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : राजा अंशुमान ने अपने पितामह की तरह दीर्घकाल तक तपस्या की तो भी वह गंगा नदी को इस भौतिक जगत में न ला सका और उसके बाद कालक्रम में उसका देहान्त हो गया।

श्लोक 2: अंशुमान की भाँति उसका पुत्र दिलीप भी गंगा को इस भौतिक जगत में ला पाने में असमर्थ रहा और कालक्रम में उसकी भी मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् दिलीप के पुत्र भगीरथ ने गंगा को इस भौतिक जगत में लाने के लिए अत्यन्त कठिन तपस्या की।

श्लोक 3: तत्पश्चात् माता गंगा राजा भगीरथ के समक्ष प्रकट होकर बोलीं, “मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यधिक प्रसन्न हूँ और तुम्हें मुँहमाँगा वर देने को तैयार हूँ।” गंगादेवी द्वारा इस प्रकार सम्बोधित हुए राजा ने उनके समक्ष अपना सिर झुकाया और अपना मन्तव्य बतलाया।

श्लोक 4: माता गंगा ने उत्तर दिया: जब मैं आकाश से पृथ्वीलोक के धरातल पर गिरूँगी तो मेरा जल अत्यन्त वेगवान होगा। इस वेग को कौन धारण कर सकेगा? यदि कोई मुझे धारण नहीं कर सकेगा तो मैं पृथ्वी की सतह को भेदकर रसातल में अर्थात् ब्रह्माण्ड के पाताल क्षेत्र में चली जाऊँगी।

श्लोक 5: हे राजा, मैं पृथ्वीलोक पर नहीं उतरना चाहती क्योंकि सभी लोग अपने पापकर्मों के फलों को धोने के लिए मुझमें स्नान करेंगे। जब ये सारे पापकर्मों के फल मुझमें एकत्र हो जायेंगे तो मैं उनसे किस तरह मुक्त हो सकूँगी? तुम इस पर ध्यानपूर्वक विचार करो।

श्लोक 6: भगीरथ ने कहा : जो भक्ति के कारण सन्त प्रकृति के हैं और भौतिक इच्छाओं से मुक्त संन्यासी बन चुके हैं, तथा जो वेदवर्णित अनुष्ठानों का पालन करने में पटु हैं और शुद्ध भक्त हैं वे सर्वदा महिमामंडित हैं और शुद्धाचरण वाले हैं तथा सभी पतितात्माओं का उद्धार करने में समर्थ हैं। जब ऐसे शुद्ध भक्त आपके जल में स्नान करेंगे तो अन्य लोगों के संचित पापों के फलों का निश्चय ही निराकरण हो सकेगा क्योंकि ऐसे भक्तगण उन भगवान् को अपने हृदयों में सदा धारण करते हैं जो सारे पापों को दूर कर सकते हैं।

श्लोक 7: जिस प्रकार वस्त्र के सारे डोरे लम्बाई तथा चौाई में गुँथे रहते हैं, उसी तरह यह समग्र विश्व अपने अक्षांश-देशान्तरों सहित भगवान् की विभिन्न शक्तियों में स्थित है। शिवजी भी भगवान् के अवतार हैं अतएव वे देहधारी जीव में परमात्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं।वे अपने सिर पर आपकी वेगवान तरंगों को धारण कर सकते हैं।

श्लोक 8: ऐसा कहने के बाद भगीरथ ने तपस्या करके शिवजी को प्रसन्न किया। हे राजा परीक्षित, शिवजी शीघ्र ही भगीरथ से तुष्ट हो गये।

श्लोक 9: जब राजा भगीरथ शिवजी के पास गये और उनसे गंगा की वेगवान लहरों को धारण करने के लिए प्रार्थना की तो शिवजी ने एवमस्तु कहते हुए प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। तब उन्होंने अत्यन्त ध्यानपूर्वक गंगा को अपने सिर पर धारण कर लिया क्योंकि भगवान् विष्णु के अँगूठे से निकलने के कारण गंगा का जल शुद्ध करने वाला है।

श्लोक 10: महान् एवं साधु राजा भगीरथ समस्त पतितात्माओं का उद्धार करने वाली गंगाजी को पृथ्वी पर उस स्थान में ले गये जहाँ उनके पितरों के शरीर भस्म होकर पड़े हुए थे।

श्लोक 11: भगीरथ एक तेज रथ पर सवार हुए और गंगा माता के आगे-आगे चले जो अनेक देशों को शुद्ध करती हुई उनके पीछे पीछे चलती हुईं उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ सगर के पुत्र भगीरथ के पितृगण की भस्म पड़ी थी। इस पर गंगा का जल छिडक़ा गया।

श्लोक 12: चूँकि सगर महाराज के पुत्रों ने महापुरुष का अपमान किया था अतएव उनके शरीर का ताप बढ़ गया था और वे जलकर भस्म हो गये थे। किन्तु मात्र गंगाजल के छिडक़ने से वे सभी स्वर्गलोक जाने के पात्र बन गये। अतएव जो लोग गंगा की पूजा करने के लिए गंगाजल का प्रयोग करते हैं उनके विषय में क्या कहा जाए? है?

श्लोक 13: भस्म शरीरों की राखों का गंगाजल के साथ सम्पर्क होने से सगर महाराज के पुत्र स्वर्गलोक चले गये। अतएव उन लोगों के विषय में क्या कहा जाय जो संकल्प लेकर श्रद्धापूर्वक गंगा मइया की पूजा करते हैं? ऐसे भक्तों को मिलने वाले लाभ की मात्र कल्पना की जा सकती है।

श्लोक 14: चूँकि गंगामाता भगवान् अनन्तदेव के चरणकमल के अँगूठे से निकलती हैं, अतएव वे मनुष्य को भवबन्धन से मुक्त करने में सक्षम हैं। इसलिए यहाँ पर उनके विषय में जो कुछ बतलाया जा रहा है वह तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है।

श्लोक 15: मुनिगण भौतिक कामवासनाओं से सर्वथा मुक्त होकर, अपना ध्यान पूरी तरह भगवान् की सेवा में लगाते हैं। ऐसे व्यक्ति बिना किसी कठिनाई के भवबन्धन से छूट जाते हैं और वे भगवान् का आध्यात्मिक गुण प्राप्त करके दिव्यपद को प्राप्त होते हैं। भगवान् की यही महिमा है।

श्लोक 16-17: भगीरथ का पुत्र श्रुत था और श्रुत का पुत्र नाभ था। (यह नाभ पूर्ववर्णित नाभ से भिन्न है)। नाभ का पुत्र सिंधुद्वीप हुआ, जिसका पुत्र अयुतायु था और अयुतायु का पुत्र ऋतूपर्ण हुआ जो नल राजा का मित्र बन गया। ऋतूपर्ण ने नल राजा को द्यूतक्रीड़ा सिखलाई और बदले में उसने नल राजा से घोड़ों को वश में करना तथा उनकी देखरेख करना सीखा। ऋतूपर्ण का पुत्र सर्वकाम था।

श्लोक 18: सर्वकाम के एक सुदास नामक पुत्र हुआ जिसका पुत्र सौदास कहलाया जो दमयन्ती का पति था। कभी-कभी सौदास मित्रसह या कल्माषपाद के नाम से जाना जाता है। अपने ही दुष्कर्मों के कारण मित्रसह नि:सन्तान था और उसे वसिष्ठ द्वारा राक्षस बनने का शाप मिला।

श्लोक 19: राजा परीक्षित ने कहा : हे शुकदेव गोस्वामी, सौदास के गुरु वसिष्ठ ने इस महापुरुष को शाप क्यों दिया? मैं इसे जानना चाहता हूँ। यदि यह गोपनीय विषय न हो तो कृपया कह सुनायें।

श्लोक 20-21: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एक बार सौदास जंगल में मृगया के लिए गया जहाँ उसने एक राक्षस को मार डाला, किन्तु राक्षस के भाई को क्षमा करके छोड़ दिया। किन्तु उस भाई ने बदला लेने का निश्चय किया। राजा को क्षति पहुँचाने के विचार से वह राजा के घर में रसोइया बन गया। एक दिन जब राजा के गुरु वसिष्ठ मुनि को भोजन करने के लिए आमंत्रित किया गया तो इस राक्षस रसोइये ने उन्हें मनुष्य का मांस परोस दिया।

श्लोक 22: वसिष्ठ मुनि, परोसे भोजन की परीक्षा करते हुए, अपने योगबल से समझ गये कि यह मनुष्य का मांस है अतएव अभक्ष्य है। फलत: वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए और उन्होंने तुरन्त ही सौदास को मनुष्यभक्षी (राक्षस) बनने का शाप दे डाला।

श्लोक 23-24: जब वसिष्ठ समझ गये कि यह मांस राजा द्वारा नहीं, अपितु राक्षस द्वारा ही परोसा गया है तो उन्होंने निर्दोष राजा को शाप देने के प्रायश्चित स्वरूप अपने को शुद्ध करने के लिए बारह वर्ष तक तपस्या की। तब राजा सौदास ने अंजुली में पानी लेकर वसिष्ठ को शाप देने के लिए शापमंत्र का उच्चारण करना चाहा, किन्तु उसकी पत्नी मदयन्ती ने उसे ऐसा करने से रोका। तब राजा ने देखा कि दसों दिशाओं, आकाश तथा पृथ्वी पर सर्वत्र जीव ही जीव थे।

श्लोक 25: इस तरह सौदास ने मानवभक्षी प्रवृत्ति अर्जित कर ली और उसके पाँव में एक काला धब्बा हो गया जिससे वह कल्माषपाद कहलाया। एक बार कल्माषपाद ने एक ब्राह्मण दम्पति को जंगल में संभोगरत देखा।

श्लोक 26-27: राक्षस-वृत्ति से प्रभावित होने तथा अत्यन्त भूखा रहने के कारण राजा सौदास ने ब्राह्मण को पकड़ लिया। तब ब्राह्मण की बेचारी पत्नी ने राजा से कहा : हे वीर, तुम असली राक्षस नहीं हो, प्रत्युत तुम महाराज इक्ष्वाकु के वंशज हो। निस्सन्देह, तुम महान् योद्धा और मदयन्ती के पति हो। तुम्हें इस तरह पाप-कर्म नहीं करना चाहिए। मुझे पुत्र प्राप्त करने की इच्छा है अतएव मेरे पति को छोड़ दो, अभी उसने मुझे गर्भित नहीं किया है।

श्लोक 28: हे राजा, हे वीर, यह मानव शरीर सबों के लाभ के निमित्त है। यदि तुम इस शरीर का असमय वध कर दोगे तो तुम मानव जीवन के सारे लाभों की हत्या कर डालोगे।

श्लोक 29: यह ब्राह्मण विद्वान अत्यन्त योग्य, तपस्या में रत तथा समस्त जीवों के हृदय में वास करने वाले परमात्मा परब्रह्म की पूजा करने के लिए परम उत्सुक है।

श्लोक 30: हे प्रभु, तुम धार्मिक सिद्धान्तों से पूर्णतया अवगत हो। जिस तरह पुत्र कभी भी अपने पिता द्वारा वध्य नहीं है, उसी तरह इस ब्राह्मण की राजा द्वारा रक्षा होनी चाहिए न कि वध। तुम जैसे राजर्षि द्वारा इसका वध किस तरह उचित है?

श्लोक 31: तुम विख्यात हो और विद्वानों में पूजित हो। तुम किस तरह इस ब्राह्मण का वध करने का साहस कर रहे हो जो साधु, निष्पाप तथा वैदिक ज्ञान में पटु है? उसका वध करना गर्भ के भीतर भ्रूण नष्ट करने या गोवध के तुल्य होगा।

श्लोक 32: मैं अपने पति के बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती। यदि तुम मेरे पति को खा जाना चाहते हो, तो अच्छा होगा कि पहले तुम मुझे खा लो क्योंकि मैं अपने पति के बिना मृतक तुल्य हूँ।

श्लोक 33: वसिष्ठ के शापवश राजा सौदास उस ब्राह्मण को निगल गया, जिस तरह कोई बाघ अपने शिकार को निगल जाता है। यद्यपि ब्राह्मणपत्नी ने अत्यन्त कातरभाव से विनय की, किन्तु उसके विलाप से भी सौदास नहीं पसीजा।

श्लोक 34: जब ब्राह्मण की सती पत्नी ने देखा कि उसका पति, जो गर्भाधान के लिए उद्यत ही था, उस मनुष्यभक्षक द्वारा खा लिया गया तो वह शोक तथा विलाप से अत्यधिक सन्तप्त हो उठी। इस तरह उसने क्रोध में आकर राजा को शाप दे दिया।

श्लोक 35: अरे मूर्ख पापी, चूँकि तूने मेरे पति को तब निगला जब मैं कामेच्छा से पीडि़त और गर्भाधान के लिए लालायित थी अतएव मैं तुझे भी तभी मरते देखना चाहती हूँ जब तू अपनी पत्नी में गर्भाधान करने को उद्यत हो। दूसरे शब्दों में, जब भी तू अपनी पत्नी से संभोग करना चाहेगा तू मर जाएगा।

श्लोक 36: इस प्रकार ब्राह्मणपत्नी ने राजा सौदास को, जो मित्रसह के नाम से विख्यात है, शाप दे डाला। तत्पश्चात् अपने पति के साथ जाने के लिए सन्नद्ध उसने पति की अस्थियों में आग लगा दी, स्वयं वह उसमें कूद पड़ी और पति के साथ-साथ उसी गन्तव्य को प्राप्त हुई।

श्लोक 37: बारह वर्ष बाद जब राजा सौदास वसिष्ठ द्वारा दिये गये शाप से मुक्त हुआ तो उसने अपनी पत्नी के साथ सम्भोग करना चाहा। किन्तु रानी ने उसे ब्राह्मणी द्वारा दिये गये शाप का स्मरण कराया। इस तरह उसे सम्भोग करने से रोक दिया।

श्लोक 38: इस प्रकार आदिष्ट होने पर राजा ने भावी संभोग-सुख त्याग दिया और भाग्यवश निस्सन्तान रहता रहा। बाद में राजा की अनुमति से ऋषि वसिष्ठ ने मदयन्ती के गर्भ से एक शिशु उत्पन्न किया।

श्लोक 39: मदयन्ती सात वर्षों तक बालक को गर्भ में धारण किये रही और उसने बच्चे को जन्म नहीं दिया। अतएव वसिष्ठ ने एक पत्थर से उसके पेट पर प्रहार किया जिससे बालक उत्पन्न हुआ। फलस्वरूप बच्चे का नाम अश्मक (पत्थर से उत्पन्न) पड़ा।

श्लोक 40: अश्मक से बालिक उत्पन्न हुआ। चूँकि स्त्रियों से घिरा रहने के कारण बालिक परशुराम के क्रोध से बच गया था अतएव वह नारीकवच कहलाया। जब परशुराम ने सारे क्षत्रियों का विनाश कर दिया तो बालिक अन्य क्षत्रियों का जनक बना। इसीलिए वह मूलक अर्थात् क्षत्रिय वंश का मूल कहलाया।

श्लोक 41: बालिक का पुत्र दशरथ हुआ, दशरथ का पुत्र ऐडविडि तथा ऐडविडि का पुत्र राजा विश्वसह हुआ। विश्वसह का पुत्र सुप्रसिद्ध महाराज खट्वांग था।

श्लोक 42: राजा खट्वांग किसी भी युद्ध में दुर्जेय था। असुरों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए देवताओं द्वारा प्रार्थना करने पर उसने विजय प्राप्त की और एक ही मनुष्य जन्म में देवताओं ने प्रसन्न होकर उसे वर देना चाहा। जब राजा ने उनसे अपनी आयु के विषय में पूछा तो उसे बतलाया गया कि केवल एक मुहूर्त शेष है। अतएव उसने तुरन्त अपने घर जाकर भगवान् के चरणकमलों में अपना मन लगाया।

श्लोक 43: महाराज खट्वांग ने सोचा: ब्राह्मण संस्कृति तथा मेरे कुलपूज्य ब्राह्मणों की अपेक्षा मेरा जीवन भी मुझे अधिक प्रिय नहीं है। तो फिर मेरे राज्य, भूमि, पत्नी, सन्तान तथा ऐश्वर्य के विषय में क्या कहा जा सकता है? मुझे ब्राह्मणों से अधिक प्रिय कुछ भी नहीं है।

श्लोक 44: अपने बचपन में भी मैं नगण्य वस्तुओं या अधार्मिक सिद्धान्तों के प्रति कभी आकृष्ट नहीं हुआ। मुझे भगवान् से बढक़र तथ्यपूर्ण अन्य कोई वस्तु नहीं मिल पाई।

श्लोक 45: तीनों लोकों के निदेशक देवतागण मुझे इच्छित वर देना चाहते थे, किन्तु मुझे उनके वर नहीं चाहिए थे क्योंकि मेरी रुचि भगवान् में है जिन्होंने इस संसार की सारी वस्तुओं को बनाया है। मेरी रुचि भौतिक वरों की अपेक्षा भगवान् में कहीं अधिक है।

श्लोक 46: यद्यपि देवताओं को स्वर्गलोक में स्थित होने का लाभ मिलता है, किन्तु उनके मन, इन्द्रियाँ तथा बुद्धि भौतिक अवस्थाओं से विक्षुब्ध रहती हैं। अतएव ऐसे महापुरुष भी हृदय में निरन्तर स्थित भगवान् का साक्षात्कार नहीं कर पाते। तो फिर अन्यों के विषय में, यथा मनुष्यों के विषय में, क्या कहा जाय जिन्हें बहुत ही कम लाभ प्राप्त हैं?

श्लोक 47: अतएव मुझे अब भगवान् की बहिरंगा शक्ति अर्थात् माया द्वारा सृजित वस्तुओं से आसक्ति को त्याग देना चाहिए। मुझे भगवान् के ध्यान में संलग्न होना चाहिए और इस तरह उनकी शरण में जाना चाहिए। यह भौतिक सृष्टि भगवान् की माया से सृजित होने के कारण पर्वत पर या जंगल में स्थित काल्पनिक नगर के सदृश है। हर बद्धजीव को भौतिक वस्तुओं से प्राकृतिक आकर्षण एवं आसक्ति होती है, किन्तु मनुष्य को चाहिए कि इन्हें त्यागकर भगवान् की शरण में जाये।

श्लोक 48: इस तरह भगवान् की सेवा करने में अपनी उन्नत बुद्धि से महाराज खट्वांग ने अज्ञानमय शरीर से मिथ्या सम्बन्ध का परित्याग कर दिया। अपनी नित्य सेवक की मूल स्थिति में रहकर उन्होंने भगवान् की सेवा करने में अपने को संलग्न कर लिया।

श्लोक 49: वे बुद्धिहीन मनुष्य जो भगवान् के निर्विशेष या शून्य न होने पर भी, उन्हें ऐसा मानते हैंउनके लिए भगवान् वासुदेव कृष्ण को समझ पाना अत्यन्त कठिन है। अतएव शुद्ध भक्त ही भगवान् को समझते तथा उनका गान करते हैं।

अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : महाराज खट्वांग का पुत्र दीर्घबाहु हुआ और उसके पुत्र विख्यात महाराज रघु हुए। महाराज रघु से अज उत्पन्न हुए और अज से महापुरुष महाराज दशरथ हुए।

श्लोक 2: देवताओं द्वारा प्रार्थना करने पर भगवान् परम सत्य अपने अंश तथा अंशों के भी अंश के साथ साक्षात् प्रकट हुए। उनके पवित्र नाम थे राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न। ये विख्यात अवतार महाराज दशरथ के पुत्रों के रूप में चार स्वरूपों में प्रकट हुए।

श्लोक 3: हे राजा परीक्षित, भगवान् रामचन्द्र के दिव्य कार्यकलापों का वर्णन उन साधु पुरुषों द्वारा किया गया है जिन्होंने सत्य का दर्शन किया है। चूँकि आप सीतापति रामचन्द्र के विषय में बारम्बार सुन चुके हैं अतएव मैं इन कार्यकलापों का वर्णन संक्षेप में ही करूँगा। कृपया सुनें।

श्लोक 4: अपने पिता के वचनों को अक्षत रखने के लिए भगवान् रामचन्द्र ने तुरन्त ही राजपद छोड़ दिया और अपनी पत्नी सीतादेवी के साथ एक जंगल से दूसरे जंगल में अपने उन चरणकमलों से घूमते रहे जो इतने कोमल थे कि वे सीता की हथेलियों का स्पर्श भी सहन नहीं कर सकते थे। भगवान् के साथ उनके अनुज लक्ष्मण तथा वानरों के राजा हनुमान (या एक अन्य वानर सुग्रीव) भी थे। ये दोनों जंगल में घूमते हुए राम-लक्ष्मण की थकान मिटाने में सहायक बने। शूर्पणखा की नाक तथा कान काटकर उसे कुरूप बनाकर भगवान् सीतादेवी से बिछुड़ गये। अतएव वे अपनी भौहें तानकर क्रुद्ध हुए और सागर को डराया जिसने भगवान् को अपने ऊपर से होकर पुल बनाने की अनुमति दे दी। तत्पश्चात् भगवान् रावण को मारने के लिए दावानल की भाँति उसके राज्य में प्रविष्ट हुए। ऐसे भगवान् रामचन्द्र हम सबों की रक्षा करें।

श्लोक 5: अयोध्यानरेश भगवान् रामचन्द्र ने विश्वामित्र द्वारा सम्पन्न किये गए यज्ञ के क्षेत्र में अनेक राक्षसों तथा असभ्य पुरुषों का वध किया जो तमोगुण से प्रभावित होकर रात में विचरण करते थे। ऐसे रामचन्द्र जिन्होंने लक्ष्मण की उपस्थिति में इन असुरों का वध किया हमारी रक्षा करने की कृपा करें।

श्लोक 6-7: हे राजन्, भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ हाथी के बच्चे के समान अत्यन्त अद्भुत थीं। उस सभाभवन में जिसमें सीतादेवी को अपने पति का चुनाव करना था, उन्होंने इस संसार के वीरों के बीच भगवान् शिव के धनुष को तोड़ दिया। यह धनुष इतना भारी था कि इसे तीन सौ व्यक्ति उठाकर लाए थे लेकिन भगवान् रामचन्द्र ने इसे मोडक़र डोरी चढ़ाई और बीच से उसे वैसे ही तोड़ डाला जिस तरह हाथी का बच्चा गन्ने को तोड़ देता है। इस तरह भगवान् ने सीतादेवी का पाणिग्रहण किया जो उन्हीं के समान दिव्य रूप, सौन्दर्य, आचरण, आयु तथा स्वभाव से युक्त थीं। निस्सन्देह, वे भगवान् के वक्षस्थल पर सतत विद्यमान लक्ष्मी थीं। प्रतियोगियों की सभा में से उसे जीतकर उस के मायके से लौटते हुए भगवान् रामचन्द्र को परशुराम मिले। यद्यपि परशुराम अत्यन्त घमंडी थे क्योंकि उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार राजाओं से विहीन बनाया था, किन्तु वे क्षत्रियवंशी राजा भगवान् राम से पराजित हो गये।

श्लोक 8: अपनी पत्नी के वचनों से बँधे पिता का आदेश पालन करते हुए भगवान् रामचन्द्र ने उसी तरह अपना राज्य, ऐश्वर्य, मित्र, शुभचिन्तक, निवास तथा अन्य सर्वस्व त्याग दिया जिस तरह मुक्तात्मा अपना जीवन त्याग देता है। तब वे सीता सहित जंगल में चले गये।

श्लोक 9: जंगल में घूमते हुए, वहाँ पर अनेक कठिनाइयों को झेलते तथा अपने हाथ में महान् धनुष-बाण लिए भगवान् रामचन्द्र ने कामवासना से दूषित रावण की बहन के नाक-कान काटकर उसे कुरूप कर दिया। उन्होंने उसके चौदह हजार मित्रों को भी मार डाला जिनमें खर, त्रिशिर तथा दूषण मुख्य थे।

श्लोक 10: हे परीक्षित, जब दस शिरों वाले रावण ने सीता के सुन्दर एवं आकर्षक स्वरूप के विषय में सुना तो उसका मन कामवासनाओं से उत्तेजित हो उठा और वह उनको हरने गया। रावण ने भगवान् रामचन्द्र को उनके आश्रम से दूर ले जाने के लिए सोने के मृग का रूप धारण किये मारीच को भेजा और जब भगवान् ने उस अद्भुत मृग को देखा तो उन्होंने अपना आश्रम छोडक़र उसका पीछा करना शुरू कर दिया। अन्त में उसे तीक्ष्ण बाण से उसी तरह मार डाला जिस तरह शिवजी ने दक्ष को मारा था।

श्लोक 11: जब रामचन्द्रजी जंगल में प्रविष्ट हुए और लक्ष्मण भी वहाँ नहीं थे तो दुष्ट राक्षस रावण ने विदेह राजा की पुत्री सीतादेवी का उसी तरह अपहरण कर लिया जिस तरह गडरिये की अनुपस्थिति में बाघ किसी असुरक्षित भेड़ को पकड़ लेता है। तब श्रीरामचन्द्रजी अपने भाई लक्ष्मण के साथ जंगल में इस तरह घूमने लगे मानो कोई अत्यन्त दीन व्यक्ति अपनी पत्नी के वियोग में घूम रहा हो। इस तरह उन्होंने अपने व्यक्तिगत उदाहरण से एक स्त्री-अनुरक्त पुरुष जैसी दशा प्रदर्शित की।

श्लोक 12: भगवान् रामचन्द्रजी ने, जिनके चरणकमल ब्रह्माजी तथा शिवजी द्वारा पूजित हैं, मनुष्य का रूप धारण किया था। अतएव उन्होंने जटायु का दाहसंस्कार किया, जिसे रावण ने मारा था। तत्पश्चात् भगवान् ने कबन्ध नामक असुर को मारा और वानरराजों से मैत्री स्थापित करके बालि का वध किया तथा सीतादेवी के उद्धार की व्यवस्था करके वे समुद्र के तट पर गये।

श्लोक 13: समुद्र तट पर पहुँच कर भगवान् रामचन्द्र ने तीन दिन तक उपवास किया और वे साक्षात् समुद्र के आने की प्रतीक्षा करते रहे। जब समुद्र नहीं आया तो भगवान् ने अपनी क्रोध लीला प्रकट की और समुद्र पर दृष्टिपात करते ही समुद्र के सारे प्राणी, जिनमें घडिय़ाल तथा मगर सम्मिलित थे, भय के मारे उद्विग्न हो उठे। तब शरीर धारण करके डरता हुआ समुद्र पूजा की सारी सामग्री लेकर भगवान् के पास पहुँचा। उसने भगवान् के चरणकमलों पर गिरते हुए इस प्रकार कहा।

श्लोक 14: हे सर्वव्यापी परम पुरुष, हम लोग मन्द बुद्धि होने के कारण यह नहीं जान पाये कि आप कौन हैं, किन्तु अब हम जान पाये हैं कि आप सारे ब्रह्माण्ड के स्वामी, अक्षर तथा आदि परम पुरुष हैं। देवता लोग सतोगुण से, प्रजापति रजोगुण से तथा भूतों के ईश तमोगुण द्वारा अन्धे हो जाते हैं, किन्तु आप इन समस्त गुणों के स्वामी हैं।

श्लोक 15: हे प्रभु, आप इच्छानुसार मेरे जल का उपयोग कर सकते हैं। निस्सन्देह, आप इसे पार करके उस रावण की पुरी में जा सकते हैं जो उपद्रवी है और तीनों जगतों को रुलाने वाला है। वह विश्रवा का पुत्र है, किन्तु मूत्र के समान तिरस्कृत है। कृपया जाकर उसका वध करें और अपनी पत्नी सीतादेवी को फिर से प्राप्त करें। हे महान् वीर, यद्यपि मेरे जल के कारण आपको लंका जाने में कोई बाधा नहीं होगी लेकिन आप इसके ऊपर पुल बनाकर अपने दिव्य यश का विस्तार करें। आपके इस अद्भुत असामान्य कार्य को देखकर भविष्य में सारे महान् योद्धा तथा राजा आपकी महिमा का गान करेंगे।

श्लोक 16: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जल में उन पर्वत शृंगों को फेंककर जिनके सारे वृक्ष बन्दरों द्वारा हाथ से हिलाये गये थे, समुद्र के ऊपर पुल बना चुकने के बाद भगवान् रामचन्द्र सीतादेवी को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए लंका गये। रावण के भाई विभीषण की सहायता से भगवान् सुग्रीव, नील, हनुमान इत्यादि वानर सैनिकों के साथ रावण के राज्य लंका में प्रविष्ट हुए जिसे हनुमान ने पहले ही भस्म कर दिया था।

श्लोक 17: लंका में प्रवेश करने के बाद सुग्रीव, नील, हनुमान आदि वानर सेनापतियों के नेतृत्व में वानर सैनिकों ने सारे विहारस्थलों, अन्न के गोदामों, खजानों, महलों के द्वारों, नगर के फाटकों, सभाभवनों, महल के छज्जों और यहाँ तक कि कबूतरघरों में अधिकार कर लिया। जब नगरी के सारे चौराहे, चबूतरे, झंडे तथा गुम्बदों पर रखे सुनहरे गमले ध्वस्त कर दिये गये तो समूची लंका नगरी उस नदी के सदृश प्रतीत हो रही थी जिसे हाथियों के झुंड ने मथ दिया हो।

श्लोक 18: जब राक्षसपति रावण ने वानर सैनिकों द्वारा किये जा रहे उपद्रवों को देखा तो उसने निकुम्भ, कुम्भ, धूभ्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक तथा अन्य राक्षसों एवं अपने पुत्र इन्द्रजित को भी बुलवाया। तत्पश्चात् उसने प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन को और अन्त में कुम्भकर्ण को बुलवाया। इसके बाद उसने अपने सारे अनुयायियों को शत्रुओं से लडऩे के लिए प्रोत्साहित किया।

श्लोक 19: लक्ष्मण तथा सुग्रीव, हनुमान, गन्धमाद, नील, अंगद, जाम्बवन्त तथा पनस नामक वानर सैनिकों से घिरे हुए भगवान् रामचन्द्र ने उन राक्षस सैनिकों पर आक्रमण कर दिया जो विविध अजेय हथियारों से, यथा तलवारों, भालों, बाणों, प्रासों, ऋष्टियों, शक्तिबाणों, खड्गों तथा तोमरों से सज्जित थे।

श्लोक 20: अंगद तथा रामचन्द्र के अन्य सेनापतियों ने शत्रुओं के हाथियों, पैदल सैनिकों, घोड़ों तथा रथों का सामना किया और उन पर बड़े-बड़े वृक्ष, पर्वत-शृंग, गदा तथा बाण फेंके। इस तरह श्री रामचन्द्रजी के सैनिकों ने रावण के सैनिकों को जिनका सौभाग्य पहले ही लुट चुका था, मार डाला क्योंकि सीतादेवी के क्रोध से रावण पहले ही ध्वस्त हो चुका था।

श्लोक 21: तत्पश्चात् जब राक्षसराज रावण ने देखा कि उसके सारे सैनिक मारे जा चुके हैं तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। अतएव वह अपने विमान में सवार हुआ जो फूलों से सजाया हुआ था और रामचन्द्रजी की ओर बढ़ा जो इन्द्र के सारथी मातलि द्वारा लाये गये तेजस्वी रथ पर आसीन थे। तब रावण ने भगवान् रामचन्द्र पर तीक्ष्ण बाणों की वर्षा की।

श्लोक 22: भगवान् रामचन्द्र ने रावण से कहा : तुम मानवभक्षियों में अत्यन्त गर्हित हो। निस्सन्देह, तुम उनकी विष्ठा तुल्य हो। तुम कुत्ते के समान हो क्योंकि वह घर के मालिक के न होने पर रसोई से खाने की वस्तु चुरा लेता है। तुमने मेरी अनुपस्थिति में मेरी पत्नी सीतादेवी का अपहरण किया है। इसलिए जिस तरह यमराज पापी व्यक्तियों को दण्ड देता है उसी तरह मैं भी तुम्हें दण्ड दूँगा। तुम अत्यन्त नीच, पापी तथा निर्लज्ज हो। अतएव आज मैं तुम्हें दण्ड दूँगा क्योंकि मेरा वार कभी खाली नहीं जाता।

श्लोक 23: इस प्रकार रावण को धिक्कारने के बाद भगवान् रामचन्द्र ने अपने धनुष पर बाण रखा और रावण को निशाना बनाकर बाण छोड़ा जो रावण के हृदय में वज्र के समान बेध गया। इसे देखकर रावण के अनुयायियों ने चिल्लाते हुए तुमुल ध्वनि की “हाय! हाय!” “क्या हो गया?” क्योंकि रावण अपने दसों मुखों से रक्त वमन करता हुआ अपने विमान से उसी तरह नीचे गिर पड़ा जिस प्रकार कोई पुण्यात्मा अपने पुण्यों के चुक जाने पर स्वर्ग से पृथ्वी पर आ गिरता है।

श्लोक 24: तत्पश्चात् वे सारी स्त्रियाँ जिनके पति युद्ध में मारे जा चुके थे, रावण की पत्नी मन्दोदरी के साथ लंका से बाहर आईं। वे निरन्तर विलाप करती हुई रावण तथा अन्य राक्षसों के शवों के निकट पहुँचीं।

श्लोक 25: लक्ष्मण के बाणों द्वारा मारे गये अपने-अपने पतियों के शोक में अपनी छाती पीटती हुई स्त्रियों ने अपने-अपने पतियों का आलिंगन किया और फिर वे कारुणिक स्वर में रोदन करने लगीं जो हर एक को द्रवित करने वाला था।

श्लोक 26: हे नाथ! हे स्वामी! तुम अन्यों की मुसीबत की प्रतिमूर्ति थे; अतएव तुम रावण कहलाते थे। किन्तु अब जब तुम पराजित हो चुके हो, हम भी पराजित हैं क्योंकि तुम्हारे बिना इस लंका के राज्य को शत्रु ने जीत लिया है। बताओ न अब लङ्का किसकी शरण में जायेगी?

श्लोक 27: हे परम सौभाग्यवान, तुम कामवासना के वशीभूत हो गये थे; अतएव तुम सीतादेवी के प्रभाव (तेज) को नहीं समझ सके। तुम भगवान् रामचन्द्र द्वारा मारे जाकर सीताजी के शाप से इस दशा को प्राप्त हुए हो।

श्लोक 28: हे राक्षसकुल के हर्ष, तुम्हारे ही कारण अब लंका-राज्य तथा हम सबों का भी कोई संरक्षक नहीं रहा। तुमने अपने कृत्यों के ही कारण अपने शरीर को गीधों का आहार और अपनी आत्मा को नरक जाने का पात्र बना दिया है।

श्लोक 29: श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : रावण के पवित्र भाई तथा रामचन्द्र के भक्त विभीषण को कोसल के राजा भगवान् रामचन्द्र से अनुमति प्राप्त हो गई तो उसने अपने परिवार के सदस्यों को नरक जाने से बचाने के लिए आवश्यक अन्त्येष्टि कर्म सम्पन्न किये।

श्लोक 30: तत्पश्चात् भगवान् रामचन्द्र ने सीतादेवी को अशोकवन में शिंशपा नामक वृक्ष के नीचे एक छोटी सी कुटिया में बैठी पाया। वे राम के वियोग के कारण दुखी होने से अत्यन्त दुबली-पतली हो गई थीं।

श्लोक 31: अपनी पत्नी को उस दशा में देखकर भगवान् रामचन्द्र अत्यधिक दयार्द्र हो उठे। जब वे पत्नी के समक्ष आये तो वे भी अपने प्रियतम को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुईं और उनके कमल सदृश मुख से आह्लाद झलकने लगा।

श्लोक 32: भगवान् रामचन्द्र ने विभीषण को लंका के राक्षसों पर एक कल्प तक राज्य करने का अधिकार सौंपकर सीतादेवी को पुष्प से सज्जित विमान (पुष्पक विमान) में बैठाया और फिर वे स्वयं उसमें बैठ गये। अपने वनवास की अवधि समाप्त होने पर, हनुमान, सुग्रीव तथा अपने भाई लक्ष्मणसमेत, भगवान् अयोध्या लौट आये।

श्लोक 33: जब भगवान् रामचन्द्र अपनी राजधानी अयोध्या लौटे तो मार्ग पर लोकपालों ने उनके स्वागतार्थ उनके शरीर पर सुन्दर सुगन्धित फूलों की वर्षा की और ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं जैसे महापुरुषों ने परम प्रसन्न होकर भगवान् के कार्यों का गुणगान किया।

श्लोक 34: अयोध्या पहुँचकर भगवान् रामचन्द्र ने सुना कि उनकी अनुपस्थिति में उनका भाई भरत गोमूत्र में पकाये जौ को खाता था, अपने शरीर को वृक्षों की छाल से ढकता था, सिर पर जटा बढ़ाये, कुशों की चटाई पर सोता था। अत्यन्त कृपालु भगवान् ने इस पर अत्यधिक सन्ताप व्यक्त किया।

श्लोक 35-38: जब भरतजी को पता चला कि भगवान् रामचन्द्र अपनी राजधानी अयोध्या लौट रहे हैं तो तुरन्त ही वे भगवान् की खड़ाऊँ अपने सिर पर रखे और नन्दिग्राम स्थित अपने खेमे से बाहर आ गये। भरतजी के साथ मंत्री, पुरोहित, अन्य भद्र नागरिक, मधुर गायन करते पेशेवर गवैये तथा वैदिक मंत्रों का उच्चस्वर से पाठ करने वाले विद्वान ब्राह्मण थे। उनके पीछे जुलूस में रथ थे जिनमें सुन्दर घोड़े जुते थे जिनकी लगामें सुनहरी रस्सियों की थीं। ये रथ सुनहरी किनारी वाली पताकाओं तथा अन्य विविध आकार-प्रकार की पताकाओं से सजाये गये थे। सैनिक सुनहरे कवचों से लैस थे, नौकर पान-सुपारी लिए थे और साथ में अनेक विख्यात सुन्दर वेश्याएँ थीं। अनेक नौकर पैदल चल रह थे और वे छाता, चामर, बहुमूल्य रत्न तथा उपयुक्त विविध राजसी सामान लिए हुए थे। इस तरह प्रेमानन्द से आर्द्र हृदय एवं अश्रुओं से पूरित नेत्रोंवाले भरतजी भगवान् रामचन्द्र के निकट पहुँचे और अत्यन्त भावविभोर होकर उनके चरणकमलों पर गिर गये।

श्लोक 39-40: भगवान् रामचन्द्र के समक्ष खड़ाओं को रखकर भरतजी आँखों में आँसू भरकर और दोनों हाथ जोडक़र खड़े रहे। भगवान् रामचन्द्र अपनी दोनों भुजाओं में भरत को भरकर दीर्घकाल तक आलिंगन करते रहे और उन्होंने उन्हें अपने आँसुओं से नहला दिया। तत्पश्चात् सीतादेवी तथा लक्ष्मण के साथ रामचन्द्र ने विद्वान ब्राह्मणों तथा परिवार के गुरुजनों को नमस्कार किया। समस्त अयोध्यावासियों ने भगवान् को सादर नमस्कार किया।

श्लोक 41: अयोध्या के नागरिकों ने अपने राजा को दीर्घकाल के बाद लौटे देखकर उन्हें फूल की मालाएँ अर्पित कीं, अपने उत्तरीय वस्त्र (दुपट्टे) हिलाए और वे परम प्रसन्न होकर खूब नाचे।

श्लोक 42-43: हे राजा, भरतजी भगवान् राम की खड़ाऊँ लिये थे, सुग्रीव तथा विभीषण चँवर तथा सुन्दर पंखा लिये थे, हनुमान सफेद छाता लिये हुए थे, शत्रुघ्न धनुष तथा दो तरकस लिए थे तथा सीतादेवी तीर्थस्थानों के जल से भरा पात्र लिए थीं। अंगद तलवार लिए थे और ऋक्षराज जाम्बवान सुनहरी ढाल लिए थे।

श्लोक 44: हे राजा परीक्षित, अपने पुष्पक विमान पर बैठे भगवान् रामचन्द्र स्त्रियों द्वारा स्तुति किये जाने पर तथा बन्दीजनों द्वारा गुणगान किये जाने पर ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों तारों तथा ग्रहों के बीच चन्द्रमा हो।

श्लोक 45-46: तत्पश्चात् अपने भाई भरत द्वारा स्वागत किये जाकर भगवान् रामचन्द्र एक उत्सव के बीच अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए। जब वे महल में घुसे तो उन्होंने कैकेयी तथा महाराज दशरथ की अन्य पत्नी एवं अपनी माता कौशल्या—इन सभी माताओं को नमस्कार किया। उन्होंने अपने गुरुओं को, यथा वसिष्ठ को भी प्रणाम किया। उनके हमउम्र मित्रों तथा उनसे कम आयु वाले मित्रों ने उनकी पूजा की तो उन्होंने भी उनका अभिवादन किया। लक्ष्मण तथा सीतादेवी ने भी वैसा ही किया। इस प्रकार वे सभी महल में प्रविष्ट हुए।

श्लोक 47: अपने पुत्रों को देखकर राम, लक्ष्मण भरत तथा शत्रुघ्न की माताएँ तुरन्त उठ खड़ी हुईं मानो निश्चेष्ट शरीर में चेतना आ गई हो। माताओं ने अपने पुत्रों को अपनी गोदों में भर लिया और उन्हें आँसुओं से नहलाकर अपने दीर्घकालीन विछोह के सन्ताप से छुटकारा पा लिया।

श्लोक 48: कुलगुरु वसिष्ठ ने भगवान् रामचन्द्र के सिर की जटाएँ मुँड़वा दीं। तत्पश्चात् कुल के गुरुजनों के सहयोग से उन्होंने चारों समुद्रों के जल तथा अन्य सामग्रियों के द्वारा भगवान् रामचन्द्र का अभिषेक उसी तरह सम्पन्न किया जिस तरह राजा इन्द्र का हुआ था।

श्लोक 49: भलीभाँति स्नान करके तथा अपना सिर घुटा करके भगवान् रामचन्द्र ने अपने आपको सुन्दर वस्त्रों से सज्जित और एक माला तथा आभूषणों से अलंकृत किया। इस प्रकार वे अपने ही समान वस्त्र तथा आभूषण धारण किये अपने भाइयों तथा पत्नी के साथ अत्यन्त तेजोमय लग रहे थे।

श्लोक 50: तब भरत की पूर्ण शरणागति से प्रसन्न होकर भगवान् रामचन्द्र ने राजसिंहासन स्वीकार किया। वे प्रजा की रक्षा पिता की भाँति करने लगे और प्रजा ने भी वर्ण तथा आश्रम के अनुसार अपने- अपने वृत्तिपरक कार्यों में लगकर उन्हें पितृतुल्य स्वीकार किया।

श्लोक 51: भगवान् रामचन्द्र त्रेतायुग में राजा बने थे, किन्तु उनकी सरकार अच्छी होने से वह युग सत्ययुग जैसा था। प्रत्येक व्यक्ति धार्मिक एवं पूर्ण सुखी था।

श्लोक 52: हे भरतश्रेष्ठ महाराज परीक्षित, भगवान् रामचन्द्र के राज में सारे वन, नदियाँ, पर्वत, राज्य, सातों द्वीप तथा सातों समुद्र सारे जीवों को जीवन की आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करने के लिए अनुकूल थे।

श्लोक 53: जब भगवान् रामचन्द्र इस जगत के राजा थे तो सारे शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, रोग, बुढ़ापा, विछोह, पश्चाताप, दुख, डर तथा थकावट का नामोनिशान न था। यहाँ तक कि न चाहने वालों के लिए मृत्यु भी नहीं थी।

श्लोक 54: भगवान् रामचन्द्र ने एक पत्नी रखने का तथा किसी अन्य स्त्री से सम्बन्ध न रखने का व्रत ले रखा था। वे एक साधु राजा थे और उनका चरित्र उत्तम था; क्रोध उन्हें छू तक नहीं गया था। उन्होंने हर एक को, विशेष रूप से गृहस्थों को वर्णाश्रम धर्म के रूप में सदाचरण का पाठ पढ़ाया। इस तरह उन्होंने अपने निजी कार्यकलापों से सामान्य जनता को शिक्षा दी।

श्लोक 55: सीतादेवी अत्यन्त विनीत, आज्ञाकारिणी, लज्जालु तथा सती थीं और सदा अपने पति के भाव को समझने वाली थीं। इस प्रकार अपने चरित्र एवं प्रेम तथा सेवा से वे भगवान् के मन को पूरी तरह मोह सकीं।

अध्याय 11: भगवान् रामचन्द्र का विश्व पर राज्य करना

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तत्पश्चात् भगवान् रामचन्द्र ने एक आचार्य स्वीकार करके श्रेष्ठ साज समान सहित बड़ी धूमधाम से यज्ञ सम्पन्न किये। इस तरह उन्होंने स्वयं ही अपनी पूजा की क्योंकि वे सभी देवताओं के परमेश्वर हैं।

श्लोक 2: भगवान् रामचन्द्र ने होता पुरोहित को सम्पूर्ण पूर्व दिशा, ब्रह्मा पुरोहित को सम्पूर्ण दक्षिण दिशा, अध्वर्यु पुरोहित को पश्चिम दिशा और सामवेद के गायक उद्गाता पुरोहित को उत्तर दिशा दे दी। इस प्रकार उन्होंने अपना सारा साम्राज्य दे डाला।

श्लोक 3: तत्पश्चात् यह सोचकर कि ब्राह्मण लोग निष्काम होते हैं अतएव उन्हें ही सारे जगत का स्वामी होना चाहिए, भगवान् रामचन्द्र ने पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण के बीच की भूमि आचार्य को दे दी।

श्लोक 4: ब्राह्मणों को सर्वस्व दान देने के बाद भगवान् रामचन्द्र के पास केवल उनके निजी वस्त्र तथा आभूषण बचे रहे और इसी तरह रानी सीतादेवी के पास उनकी नथुनी के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहा।

श्लोक 5: यज्ञकार्य में संलग्न सारे ब्राह्मण भगवान् रामचन्द्र से अत्यधिक प्रसन्न हुए क्योंकि वे ब्राह्मणों के प्रति अत्यन्त वत्सल एवं अनुकूल थे। अत: उन्होंने द्रवित होकर दान में प्राप्त सारी सम्पत्ति उन्हें लौटा दी और इस प्रकार बोले।

श्लोक 6: हे प्रभु, आप सारे विश्व के स्वामी हैं। आपने हमें क्या नहीं दिया है? आपने हमारे हृदयों में प्रवेश करके अपने तेज से हमारे अज्ञान के अंधकार को दूर किया है। यही सबसे बड़ा उपहार है। हमें भौतिक दान की आवश्यकता नहीं है।

श्लोक 7: हे प्रभु, आप भगवान् हैं और आपने ब्राह्मणों को अपना आराध्य देव स्वीकार किया है। आपका ज्ञान तथा स्मृति कभी चिन्ताग्रस्त नहीं होते। आप इस संसार के सभी विख्यात पुरुषों में प्रमुख हैं और आपके चरणों की पूजा अदण्डनीय मुनियों द्वारा की जाती है। हे भगवान् रामचन्द्र, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

श्लोक 8: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : एक बार जब भगवान् रामचन्द्र रात्रि में किसी को बताये बिना वेश बदलकर छिपकर अपने विषय में लोगों का अभिमत जानने के लिए घूम रहे थे तो उन्होंने एक व्यक्ति को अपनी पत्नी सीतादेवी के विषय में अनुचित बातें कहते सुना।

श्लोक 9: (वह व्यक्ति अपनी कुलटा पत्नी से कह रहा था) तुम दूसरे व्यक्ति के घर जाती हो; अतएव तुम कुलटा तथा दूषित हो। अब मैं और अधिक तुम्हारा भार नहीं वहन कर सकता। भले ही रामचन्द्र जैसा स्त्रीभक्त पति सीता जैसी पत्नी को स्वीकार कर ले मैं उनकी तरह स्त्रीभक्त नहीं हूँ; अतएव मैं तुम्हें फिर से नहीं रख सकता।

श्लोक 10: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अल्पज्ञ तथा घृणित चरित्र वाले व्यक्ति अंटशंट बकते रहते हैं। ऐसे धूर्तों के भय से भगवान् रामचन्द्रजी ने अपनी पत्नी सीतादेवी का परित्याग किया यद्यपि वे गर्भिणी थीं। इस तरह सीतादेवी वाल्मीकि मुनि के आश्रम में गईं।

श्लोक 11: समय आने पर गर्भवती सीतादेवी ने जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया जो बाद में लव तथा कुश नाम से विख्यात हुए। उनका जातकर्म संस्कार वाल्मीकि मुनि द्वारा सम्पन्न हुआ।

श्लोक 12: हे महाराज परीक्षित, लक्ष्मणजी के दो पुत्र हुए जिनके नाम अंगद और चित्रकेतु थे और भरतजी के भी दो पुत्र हुए जिनके नाम तक्ष तथा पुष्कल थे।

श्लोक 13-14: शत्रुघ्न के सुबाहु तथा श्रुतसेन नामक दो पुत्र हुए। जब भरतजी सभी दिशाओं को जीतने गये तो उन्हें करोड़ों गन्धर्वों का वध करना पड़ा जो सामान्यतया कपटी होते हैं। उन्होंने उनकी सारी सम्पत्ति छीन ली और उसे लाकर भगवान् रामचन्द्र को अर्पित कर दिया। शत्रुघ्न ने भी लवण नामक एक राक्षस का वध किया जो मधु राक्षस का पुत्र था। इस तरह उन्होंने मधुवन नामक महान् जंगल में मथुरा नामक पुरी की स्थापना की।

श्लोक 15: अपने पति द्वारा परित्यक्ता सीतादेवी ने अपने दोनों पुत्रों को वाल्मीकि मुनि की देखरेख में छोड़ दिया। तत्पश्चात् भगवान् रामचन्द्र के चरणकमलों का ध्यान करती हुईं वे पृथ्वी में प्रविष्ट हो गईं।

श्लोक 16: सीतादेवी के पृथ्वी में प्रविष्ट होने का समाचार सुनकर भगवान् निश्चित रूप से दुखी हुए। यद्यपि वे भगवान् हैं, किन्तु सीतादेवी के महान् गुणों का स्मरण करके वे दिव्य प्रेमवश अपने शोक को रोक न सके।

श्लोक 17: स्त्री तथा पुरुष अथवा नर और मादा के मध्य आकर्षण हर जगह और हर समय पाया जाता है जिससे हर व्यक्ति सदा भयभीत रहता है। यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे नियन्ताओं में भी ऐसी भावनाएँ पाई जाती हैं और उनके लिए भी ये भय के कारण हैं। तो फिर उन लोगों के विषय में क्या कहा जाय जो इस भौतिक जगत में गृहस्थ-जीवन के प्रति आसक्त हैं?

श्लोक 18: सीता द्वारा पृथ्वी में प्रवेश करने के बाद भगवान् रामचन्द्र ने पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया और तेरह हजार वर्षों तक वे अनवरत अग्निहोत्र यज्ञ करते रहे।

श्लोक 19: यज्ञ पूरा कर लेने के बाद दण्डकारण्य में रहते हुए भगवान् रामचन्द्र के जिन चरणकमलों में कभी-कभी काँटे चुभ जाते थे उन चरण-कमलों को उन्होंने उन लोगों के हृदयों में रख दिया जो उनका निरन्तर चिन्तन करते हैं। तत्पश्चात् वे ब्रह्मज्योति से परे अपने धाम वैकुण्ठलोक में प्रविष्ट हुए।

श्लोक 20: विभिन्न लीलाओं में सदैव संलग्न दिव्य देहधारी भगवान् रामचन्द्र का वास्तविक यश इसमें नहीं है कि उन्होंने देवताओं के आग्रह पर बाणों की वर्षा करके रावण का वध किया और समुद्र पर सेतु का निर्माण किया। न तो कोई भगवान् रामचन्द्र के तुल्य है न उनसे बढक़र; अतएव उन्हें रावण पर विजय प्राप्त करने में वानरों से कोई सहायता लेने की आवश्यकता नहीं थी।

श्लोक 21: भगवान् रामचन्द्र का निर्मल नाम तथा यश सारे पापों के फलों को नष्ट करने वाला है। सारी दिशाओं में वह उसी तरह विख्यात है जिस तरह समस्त दिशाओं पर विजय पाने वाले हाथी का लटकता अलंकृत झूल हो। मार्कण्डेय ऋषि जैसे महान् साधु पुरुष अब भी महाराज युधिष्ठिर जैसे सम्राटों की सभाओं में उनके गुणों का गान करते हैं। इसी तरह सारे ऋषि तथा देवता, जिनमें शिवजी तथा ब्रह्माजी भी सम्मिलित हैं, अपने-अपने मुकुटों को झुकाकर भगवान् की पूजा करते हैं। उन भगवान् के चरणकमलों को मैं नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 22: भगवान् रामचन्द्र अपने धाम को लौट आये जहाँ भक्तियोगी जाते हैं। यही वह स्थान है जहाँ अयोध्या के सारे निवासी भगवान् को उनकी प्रकट लीलाओं में नमस्कार करके, उनके चरणकमलों का स्पर्श करके, उन्हें पितृतुल्य राजा मानकर, उनकी बराबरी में बैठकर या लेटकर या मात्र उनके साथ रहकर, उनकी सेवा करने के बाद वापस गये।

श्लोक 23: हे राजा परीक्षित, जो भी व्यक्ति भगवान् रामचन्द्र के गुणों से सम्बन्धित कथाओं को कानों से सुनता है वह अन्ततोगत्वा ईर्ष्या के रोग से मुक्त हो जायेगा और फलस्वरूप कर्मबन्धन से छूट जायेगा।

श्लोक 24: महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा: भगवान् ने स्वयं किस तरह का बर्ताव किया और अपने विस्तार (अंश) स्वरूप अपने भाइयों के साथ कैसा बर्ताव किया? और उनके भाइयों ने तथा अयोध्यावासियों ने उनके साथ कैसा बर्ताव किया?

श्लोक 25: शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया: अपने छोटे भाई भरत के आग्रह पर राजसिंहासन स्वीकार करने के बाद भगवान् रामचन्द्र ने अपने छोटे भाइयों को आदेश दिया कि वे बाहर जाकर सारे विश्व को जीतें जबकि वे स्वयं राजधानी में रहकर सारे नागरिकों तथा प्रासाद के वासियों को दर्शन देते रहे तथा अपने अन्य सहायकों के साथ राजकाज की निगरानी करते रहे।

श्लोक 26: भगवान् रामचन्द्र के शासन काल में अयोध्या की सडक़ें सुगन्धित जल से तथा हाथियों द्वारा अपनी सूँडों से फेंके गये सुगन्धित तरल की बूँदों से सींची जाती थीं। जब नागरिकों ने देखा कि भगवान् स्वयं ही इतने वैभव के साथ शहर के मामलों की देखरेख कर रहे हैं तो उन्होंने इस वैभव की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

श्लोक 27: सारे महल, महलों के द्वार, सभाभवन, चबूतरे, मन्दिर तथा अन्य ऐसे स्थान सुनहरे जलपात्रों (कलशों) से सजाये और विभिन्न प्रकार की झंडियों से अलंकृत किये जाते थे।

श्लोक 28: जहाँ कहीं भगवान् रामचन्द्र जाते, वहीं केले के वृक्षों तथा फल-फूलों से युक्त सुपारी के वृक्षों से स्वागत-द्वार बनाये जाते थे। इन द्वारों को रंगबिरंगे वस्त्र से बनी पताकाओं, बन्दनवारों, दर्पणों तथा मालाओं से सजाया जाता था।

श्लोक 29: भगवान् रामचन्द्र जहाँ कहीं भी जाते, लोग पूजा की सामग्री लेकर उनके पास पहुँचते और उनके आशीर्वाद की याचना करते। वे कहते, “हे प्रभु, जिस प्रकार आपने अपने सूकर अवतार में समुद्र के नीचे से पृथ्वी का उद्धार किया, उसी तरह अब आप उसका पालन करें। हम आपसे यही आशीष माँगते हैं।”

श्लोक 30: तत्पश्चात्, दीर्घकाल से भगवान् का दर्शन न किये रहने से, नर तथा नारी उन्हें देखने के लिए अत्यधिक उत्सुक होकर अपने-अपने घरों को त्यागकर महलों की छतों पर चढ़ गये। कमलनयन भगवान् रामचन्द्र के मुखमण्डल का दर्शन करके न अघाने के कारण वे उन पर फूलों की वर्षा करने लगे।

श्लोक 31-34: तत्पश्चात् भगवान् रामचन्द्र अपने पूर्वजों के महल में गये। इस महल के भीतर विविध खजाने तथा मूल्यवान अल्मारियाँ थीं। प्रवेश द्वार के दोनों ओर की बैठकें मूँगे से बनी थीं, आँगन वैदूर्यमणि के ख भों से घिरा था, फर्श अत्यधिक पालिश की हुई मरकतमणि से बनी थी और नींव संगमरमर की बनी थी। सारा महल झंडियों तथा मालाओं से सजाया गया था एवं मूल्यवान, चमचमाते मणियों से अलंकृत किया गया था। महल पूरी तरह मोतियों से सजाया गया था और धूप-दीप से घिरा था। महल के भीतर के स्त्री-पुरुष देवताओं के समान थे और वे विविध आभूषणों से अलंकृत थे। ये आभूषण उनके शरीरों में पहने जाने के कारण सुन्दर लग रहे थे।

श्लोक 35: श्रेष्ठ विद्वान पंडितों में अग्रणी भगवान् रामचन्द्र ने उस महल में अपनी ह्लादिनी शक्ति सीतादेवी के साथ निवास किया और पूर्ण शान्ति का भोग किया।

श्लोक 36: धर्म के सिद्धान्तों का उल्लंघन किये बिना उन रामचन्द्र ने जिनके चरण-कमलों की पूजा भक्तगण ध्यान में करते हैं, जब तक चाहा, दिव्य आनन्द की सारी सामग्री का भोग किया।

अध्याय 12: भगवान् रामचन्द्र के पुत्र कुश की वंशावली

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : रामचन्द्र का पुत्र कुश हुआ, कुश का पुत्र अतिथि था, अतिथि का पुत्र निषध और निषध का पुत्र नभ था। नभ का पुत्र पुण्डरीक हुआ जिसके पुत्र का नाम क्षेमधन्वा था।

श्लोक 2: क्षेमधन्वा का पुत्र देवानीक था और देवानीक का पुत्र अनीह हुआ जिसके पुत्र का नाम पारियात्र था। पारियात्र का पुत्र बलस्थल था, जिसका पुत्र वज्रनाभ हुआ जो सूर्यदेव के तेज से उत्पन्न बतलाया जाता है।

श्लोक 3-4: वज्रनाभ का पुत्र सगण हुआ और उसका पुत्र विधृति हुआ। विधृति का पुत्र हिरण्यनाभ था जो जैमिनि का शिष्य और फिर योग का महान् आचार्य बना। इन्हीं हिरण्यनाभ से ऋषि याज्ञवल्क्य ने अध्यात्म योग नामक योग की अत्युच्च प्रणाली सीखी जो हृदय की भौतिक आसक्ति की गाँठ को खोलने में समर्थ है।

श्लोक 5: हिरण्यनाभ के पुत्र का नाम पुष्प था जिससे ध्रुवसन्धि नामक पुत्र हुआ। ध्रुवसन्धि का पुत्र सुदर्शन और उसका पुत्र अग्निवर्ण था। अग्निवर्ण के पुत्र का नाम शीघ्र था और उसके पुत्र का नाम मरु था।

श्लोक 6: योगशक्ति में सिद्धि प्राप्त करके मरु अब भी कलाप ग्राम नामक गाँव में रह रहा है। वह कलियुग की समाप्ति पर पुत्र उत्पन्न करेगा जिससे विनष्ट सूर्यवंश पुनरुज्जीवित होगा।

श्लोक 7: मरु से प्रसुश्रुत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिससे सन्धि, फिर सन्धि से अमर्षण और अमर्षण से महस्वान नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। महस्वान से विश्वबाहु का जन्म हुआ।

श्लोक 8: विश्वबाहु से प्रसेनजित नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिससे तक्षक और तक्षक से बृहद्बल हुआ जो तुम्हारे पिता द्वारा युद्ध में मारा गया।

श्लोक 9: ये सारे राजा इक्ष्वाकु वंश में हो चुके हैं। अब उन राजाओं के नाम सुनो जो भविष्य में होंगे। बृहद्बल से बृहद्रण का जन्म होगा।

श्लोक 10: बृहद्रण का पुत्र ऊरुक्रिय होगा जिसके वत्सवृद्ध नामक पुत्र उत्पन्न होगा। वत्सवृद्ध के पुत्र का नाम प्रतिव्योम और उसके पुत्र का नाम भानु होगा जिससे महान् सेनापति दिवाक नाम का पुत्र जन्म लेगा।

श्लोक 11: तत्पश्चात् दिवाक का पुत्र सहदेव होगा और उसका पुत्र महान् वीर बृहदाश्व होगा। बृहदाश्व से भानुमान होगा जिससे प्रतीकाश्व नाम का पुत्र होगा। प्रतीकाश्व का पुत्र सुप्रतीक होगा।

श्लोक 12: तत्पश्चात् सुप्रतीक से मरुदेव, मरुदेव से सुनक्षत्र, सुनक्षत्र से पुष्कर और पुष्कर से अन्तरिक्ष होगा जिसका पुत्र सुतपा होगा। सुतपा का पुत्र अमित्रजित होगा।

श्लोक 13: अमित्रजित से बृहद्राज होगा, बृहद्राज से बर्हि, बर्हि से कृतञ्जय, कृतञ्जय से रणञ्जय और रणञ्जय से सञ्जय नामक पुत्र उत्पन्न होगा।

श्लोक 14: सञ्जय से शाक्य, शाक्य से शुद्धोद, शुद्धोद से लांगल और लांगल से प्रसेनजित तथा प्रसेनजित से क्षुद्रक उत्पन्न होगा।

श्लोक 15: क्षुद्रक का पुत्र रणक, रणक का सुरथ, सुरथ का पुत्र सुमित्र होगा और इस तरह वंश का अन्त हो जायेगा। यह बृहद्बल के वंश का वर्णन है।

श्लोक 16: इक्ष्वाकु वंश का अन्तिम राजा सुमित्र होगा; उसके बाद सूर्यदेव के वंश में और कोई पुत्र न होगा और इस वंश का अन्त हो जायेगा।

अध्याय 13: महाराज निमि की वंशावली

श्लोक 1: श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यज्ञों का शुभारम्भ कराने के बाद इक्ष्वाकु पुत्र महाराज निमि ने वसिष्ठ मुनि से प्रधान पुरोहित का पद ग्रहण करने के लिए अनुरोध किया। उस समय वसिष्ठ ने उत्तर दिया, “हे महाराज निमि, मैंने इन्द्र द्वारा प्रारम्भ किये गये एक यज्ञ में इसी पद को पहले से स्वीकार कर रखा है।”

श्लोक 2: “मैं इन्द्र का यज्ञ पूरा कराकर यहाँ वापस आ जाऊँगा। कृपया तब तक मेरी प्रतीक्षा करें।” महाराज निमि चुप हो गए और वसिष्ठ इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न करने में लग गये।

श्लोक 3: महाराज निमि स्वरूपसिद्ध जीव थे अतएव उन्होंने सोचा कि यह जीवन क्षणिक है; अतएव दीर्घकाल तक वसिष्ठ की प्रतीक्षा न करके उन्होंने अन्य पुरोहितों से यज्ञ सम्पन्न कराना शुरू कर दिया।

श्लोक 4: इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न कर लेने के बाद गुरु वसिष्ठ वापस आये तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य महाराज निमि ने उनके आदेशों का उल्लंघन कर दिया है। अतएव उन्होंने निमि को शाप दिया, “अपने को पण्डित मानने वाले निमि का भौतिक शरीर तुरन्त ही नष्ट हो जाय।”

श्लोक 5: महाराज निमि द्वारा किसी प्रकार का अपराध न किये जाने पर व्यर्थ ही गुरु द्वारा शापित होने पर उन्होंने भी बदले में शाप दिया, “स्वर्ग के राजा इन्द्र से भेंट पाने के निमित्त आपने अपनी धार्मिक बुद्धि खो दी है; अतएव मेरा शाप है कि आपका भी शरीरपात हो जाय।”

श्लोक 6: यह कहकर अध्यात्म में पटु महाराज निमि ने अपना शरीर छोड़ दिया। प्रपितामह वसिष्ठ ने भी अपना शरीर त्याग दिया, किन्तु मित्र तथा वरुण के वीर्य से उर्वशी के गर्भ से उन्होंने पुन: जन्म लिया।

श्लोक 7: यज्ञ सम्पन्न करते समय महाराज निमि द्वारा त्यक्त शरीर को सुगन्धित वस्तुओं द्वारा सुरक्षित रखा गया और सत्रयाग के अन्त में मुनियों तथा ब्राह्मणों ने वहाँ एकत्रित सारे देवताओं से निम्नलिखित प्रार्थना की।

श्लोक 8: “यदि आप इस यज्ञ से संतुष्ट हैं और यदि वास्तव में आप ऐसा करने में समर्थ हों तो कृपया इस शरीर में महाराज निमि को फिर से जीवित कर दें।” देवताओं ने मुनियों की यह प्रार्थना स्वीकर कर ली, किन्तु महाराज निमि ने कहा, “कृपया मुझे भौतिक शरीर में पुन: बन्दी न बनाएँ।”

श्लोक 9: महाराज निमि ने आगे कहा : सामान्य रूप से मायावादी लोग भौतिक शरीर धारण नहीं करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें उसका त्याग करने में भय लगता है। किन्तु जिन भक्तों की चेतना सदैव भगवान् की सेवा से पूरित रहती है वे भयभीत नहीं रहते। निस्सन्देह, वे इस शरीर का उपयोग भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में करते हैं।

श्लोक 10: मैं भौतिक शरीर पाने का इच्छुक नहीं हूँ क्योंकि ऐसा शरीर विश्वभर में सर्वत्र दुख, शोक तथा भय का कारण होता है जिस तरह कि जल में रहने वाली मछली मृत्यु के भय से सदैव चिन्ताग्रस्त रहती है।

श्लोक 11: देवताओं ने कहा : महाराज निमि भौतिक शरीर से विहीन होकर रहें। वे आध्यात्मिक शरीर से भगवान् के निजी पार्षद बन कर रहें और वे अपनी इच्छानुसार जब चाहें सामान्य देहधारी लोगों को दिखें या न दिखें।

श्लोक 12: तत्पश्चात् लोगों को अराजकता के भय से बचाने के लिए ऋषियों ने निमि महाराज के भौतिक शरीर को मथा जिसके फलस्वरूप शरीर से एक पुत्र उत्पन्न हुआ।

श्लोक 13: असामान्य विधि से उत्पन्न होने के कारण वह पुत्र जनक कहलाया और चूँकि वह अपने पिता के मृत शरीर से उत्पन्न हुआ था अतएव वह वैदेह कहलाया। अपने पिता के भौतिक शरीर के मन्थन से उत्पन्न होने से वह मिथिल कहलाया और उसने राजा मिथलि के रूप में जो नगर निर्मित किया वह मिथिला कहलाया।

श्लोक 14: हे राजा परीक्षित, मिथिल से जो पुत्र उत्पन्न हुआ वह उदावसु कहलाया; उदावसु से नन्दिवर्धन; नन्दिवर्धन से सुकेतु और सुकेतु से देवरात उत्पन्न हुआ।

श्लोक 15: देवरात से बृहद्रथ नामक पुत्र हुआ और बृहद्रथ का पुत्र महावीर्य हुआ जो सुधृति का पिता बना। सुधृति का पुत्र धृष्टकेतु कहलाया और धृष्टकेतु से हर्यश्व हुआ। हर्यश्व का पुत्र मरु हुआ।

श्लोक 16: मरु का पुत्र प्रतीपक हुआ और प्रतीपक का पुत्र कृतरथ हुआ। कृतरथ से देवमीढ, देवमीढ से विश्रुत एवं विश्रुत से महाधृति हुआ।

श्लोक 17: महाधृति से कृतिरात नामक पुत्र हुआ, कृतिरात से महारोमा हुआ, महारोमा से स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमा से ह्रस्वरोमा उत्पन्न हुआ।

श्लोक 18: ह्रस्वरोमा से शीरध्वज (जिसका नाम जनक भी था) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह खेत जोत रहा था तो उसके हल (शीर) के अग्रभाग से सीतादेवी नामक कन्या प्रकट हुई जो बाद में भगवान् रामचन्द्र की पत्नी बनी। इस तरह वह शीरध्वज कहलाया।

श्लोक 19: शीरध्वज का पुत्र कुशध्वज हुआ और कुशध्वज का पुत्र राजा धर्मध्वज हुआ जिसके कृतध्वज तथा मितध्वज नाम के दो पुत्र हुए।

श्लोक 20-21: हे महाराज परीक्षित, कृतध्वज का पुत्र केशिध्वज हुआ और मितध्वज का पुत्र खाण्डिक्य था। कृतध्वज का पुत्र आध्यात्मिक ज्ञान में पटु था और मितध्वज का पुत्र वैदिक कर्मकाण्ड में। खाण्डिक्य केशिध्वज के भय से भाग गया। केशिध्वज का पुत्र भानुमान था और भानुमान का पुत्र शतद्युम्न हुआ।

श्लोक 22: शतद्युम्न के पुत्र का नाम शुचि था। शुचि से सनद्वाज उत्पन्न हुआ और सनद्वाज का पुत्र ऊर्जकेतु था। ऊर्जकेतु का पुत्र अज था और अज का पुत्र पुरुजित हुआ।

श्लोक 23: पुरुजित का पुत्र अरिष्टनेमि हुआ, जिसका पुत्र श्रुतायु हुआ, श्रुतायु का पुत्र सुपार्श्वक था और उसका पुत्र चित्ररथ था। चित्ररथ का पुत्र क्षेमाधि था जो मिथिला का राजा बना।

श्लोक 24: क्षेमाधि का पुत्र समरथ हुआ और उसका पुत्र सत्यरथ था। सत्यरथ का पुत्र उपगुरु हुआ और उपगुरु का पुत्र उपगुप्त हुआ जो अग्निदेव का अंशरूप था।

श्लोक 25: उपगुप्त का पुत्र वस्वनन्त था, जिसका पुत्र युयुध हुआ। युयुध का पुत्र सुभाषण, सुभाषण का पुत्र श्रुत, श्रुत का पुत्र जय और जय का पुत्र विजय था। विजय का पुत्र ऋत था।

श्लोक 26: ऋत का पुत्र शुनक था, शुनक का वीतहव्य, वीतहव्य का धृति, धृति का बहुलाश्व, बहुलाश्व का कृति तथा उसका पुत्र महावशी था।

श्लोक 27: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, मिथिल वंश के सारे राजा अध्यात्म ज्ञान में पटु थे। अतएव वे घर पर रहते हुए भी संसार के द्वन्द्वों से मुक्त हो गये।

अध्याय 14: पुरुरवा का उर्वशी पर मोहित होना

श्लोक 1: श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा : हे राजन्, अभी तक आपने सूर्यवंश का विवरण सुना है। अब सोमवंश का अत्यन्त कीर्तिप्रद एवं पावन वर्णन सुनिए। इसमें ऐल (पुरुरवा) जैसे राजाओं का उल्लेख है जिनके विषय में सुनना कीर्तिप्रद होता है।

श्लोक 2: भगवान् विष्णु (गर्भोदकशायी विष्णु) सहस्रशीर्ष पुरुष भी कहलाते हैं। उनकी नाभि रूपी सरोवर से एक कमल निकला जिससे ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। ब्रह्मा का पुत्र अत्रि अपने पिता के ही समान योग्य था।

श्लोक 3: अत्रि के हर्षाश्रुओं से सोम नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो स्निग्ध किरणों से युक्त था। ब्रह्माजी ने उसे ब्राह्मणों, ओषधियों तथा नक्षत्रों (तारों) का निदेशक नियुक्त किया।

श्लोक 4: तीनों लोकों को जीत लेने के बाद सोम ने राजसूय नामक महान् यज्ञ सम्पन्न किया। अत्यधिक गर्वित होने के कारण उसने बृहस्पति की पत्नी तारा का बलपूर्वक हरण कर लिया।

श्लोक 5: यद्यपि देवताओं के गुरु बृहस्पति ने सोम से बारम्बार अनुरोध किया कि वह तारा को लौटा दे, किन्तु उसने नहीं लौटाया। यह उसके मिथ्या गर्व के कारण हुआ। फलस्वरूप देवताओं तथा असुरों के बीच युद्ध छिड़ गया।

श्लोक 6: बृहस्पति तथा शुक्र के मध्य शत्रुता होने से शुक्र ने सोम (चन्द्रमा) का पक्ष लिया और सारे असुर उनके साथ हो लिये। किन्तु अपने गुरु का पुत्र होने के कारण शिवजी स्नेहवश बृहस्पति के पक्ष में हो लिये और उनके साथ सारे भूत-प्रेत भी हो लिये।

श्लोक 7: इन्द्र सभी देवताओं को साथ लेकर बृहस्पति के पक्ष में हो लिया। इस तरह महान् युद्ध हुआ जिसमें बृहस्पति की पत्नी तारा के कारण ही असुरों तथा देवताओं का विनाश हो गया।

श्लोक 8: जब अंगिरा ने ब्रह्माजी को सारी घटना की जानकारी दी तो उन्होंने सोम को बुरी तरह फटकारा। इस तरह ब्रह्माजी ने तारा को उसके पति को वापस दिलवा दिया जिसे यह ज्ञात हो गया कि उसकी पत्नी गर्भवती है।

श्लोक 9: बृहस्पति ने कहा : अरे मूर्ख स्त्री! जिस गर्भ को मेरे वीर्य से निषेचित होना था वह किसी अन्य के द्वारा निषेचित हो चुका है। तुम तुरन्त ही बच्चा जनो। तुरन्त जनो। आश्वस्त रहो कि इस बच्चे के जनने के बाद मैं तुम्हें भस्म नहीं करूँगा। मुझे पता है कि यद्यपि तुम दुराचारिणी हो, किन्तु तुम पुत्र की इच्छुक थी। अतएव मैं तुम्हें दण्ड नहीं दूँगा।

श्लोक 10: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : बृहस्पति का आदेश पाकर अत्यन्त लज्जित हुई तारा ने तुरन्त ही बच्चे को जन्म दिया जो अत्यन्त सुन्दर था और जिसकी शारीरिक कान्ति सोने जैसी थी। बृहस्पति तथा सोम दोनों ने ही उस सुन्दर पुत्र को सराहा।

श्लोक 11: फिर से बृहस्पति और सोम के बीच झगड़ा होने लगा क्योंकि दोनों दावा कर रहे थे, “यह मेरा पुत्र है, तुम्हारा नहीं है।” वहाँ पर उपस्थित सारे ऋषियों तथा देवताओं ने तारा से पूछा कि यह नवजात शिशु वास्तव में किसका है, किन्तु वह लज्जित होने के कारण तुरन्त कुछ भी उत्तर न दे पाई।

श्लोक 12: तब बालक अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और उसने अपनी माता से तुरन्त सच-सच बतलाने के लिए कहा, “हे दुराचारिणी! तुम्हारे द्वारा यह लज्जा व्यर्थ है। तुम अपने दोष को स्वीकार क्यों नहीं कर लेती? तुम मुझसे अपने दोषी चरित्र के विषय में बतलाओ।”

श्लोक 13: तत्पश्चात् ब्रह्माजी तारा को एकान्त में ले गये और सान्त्वना देने के बाद उससे पूछा कि वास्तव में यह पुत्र किसका है। उसने धीमे से उत्तर दिया “यह सोम का है।” तब सोम ने तुरन्त ही उस बालक को स्वीकार कर लिया।

श्लोक 14: हे महाराज परीक्षित, जब ब्रह्माजी ने देखा कि वह बालक अत्यधिक बुद्धिमान है तो उन्होंने उसका नाम बुध रख दिया। इस पुत्र के कारण नक्षत्रों के राजा सोम ने अत्यधिक हर्ष का अनुभव किया।

श्लोक 15-16: तत्पश्चात् इला के गर्भ से बुध को पुरुरवा नामक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका वर्णन नवम स्कन्ध के प्रारम्भ में किया जा चुका है। जब नारद ने इन्द्र के दरबार में पुरुरवा के सौन्दर्य, गुण, उदारता, आचरण, ऐश्वर्य तथा शक्ति का वर्णन किया तो देवांगना उर्वशी उसके प्रति आकृष्ट हो गई। वह कामदेव के बाणों से बिंधकर उसके पास पहुँची।

श्लोक 17-18: मित्र तथा वरुण से शापित उस देवांगना उर्वशी ने मानवीय गुण अर्जित कर लिए। अतएव पुरुषश्रेष्ठ, कामदेव के समान सुन्दर पुरुरवा को देखते ही उसने अपने को सँभाला। और वह उसके निकट पहुँची। जब राजा पुरुरवा ने उर्वशी को देखा तो उसकी आँखें हर्ष से चमक उठीं और उसको रोमांच हो आया। वह उससे विनीत एवं मधुर वचनों में इस प्रकार बोला।

श्लोक 19: राजा पुरुरवा ने कहा : हे श्रेष्ठ सुन्दरी, तुम्हारा स्वागत है। कृपा करके यहाँ बैठो और कहो कि मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ? तुम जब तक चाहो मेरे साथ भोग कर सकती हो। हम दोनों सुखपूर्वक दम्पति-जीवन व्यतीत करें।

श्लोक 20: उर्वशी ने उत्तर दिया: हे रूपवान, ऐसी कौन सी स्त्री होगी जिसका मन तथा दृष्टि आपके प्रति आकृष्ट न हो जाए? यदि कोई स्त्री आपके वक्षस्थल की शरण ले तो वह आपसे रमण किये बिना नहीं रह सकती।

श्लोक 21: हे राजा पुरुरवा, आप इन दोनों मेमनों को शरण दें क्योंकि ये भी मेरे साथ गिर गए हैं। यद्यपि मैं स्वर्गलोक की हूँ और आप पृथ्वी लोक के हैं, किन्तु मैं निश्चय ही आपके साथ संभोग करूँगी। आपको पति रूप में स्वीकार करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि आप हर प्रकार से श्रेष्ठ हैं।

श्लोक 22: उर्वशी ने कहा, “हे वीर, मैं केवल घी की बनी वस्तुएँ खाऊँगी और आपको मैथुन-समय के अतिरिक्त अन्य किसी समय नग्न नहीं देखना चाहूँगी।” विशालहृदय पुरुरवा ने इन प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया।

श्लोक 23: पुरुरवा ने कहा : हे सुन्दरी, तुम्हारा सौन्दर्य अद्भुत है और तुम्हारी भावभंगिमाएँ भी अद्भुत हैं। निस्सन्देह, तुम सारे मानव समाज के लिए आकर्षक हो। अतएव क्योंकि तुम स्वेच्छा से स्वर्ग लोक से यहाँ आई हो तो भला इस पृथ्वीलोक पर ऐसा कौन होगा जो तुम जैसी देवी की सेवा करने के लिए तैयार नहीं होगा?

श्लोक 24: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : पुरुषश्रेष्ठ पुरुरवा उर्वशी के साथ मुक्त भाव से भोग करने लगा। वे दोनों चैत्ररथ, नन्दन कानन जैसे अनेक दैवी स्थलों में रतिक्रीड़ा में व्यस्त रहने लगे, जहाँ पर देवतागण भोग-विहार करते हैं।

श्लोक 25: उर्वशी का शरीर कमल के केसर की भाँति सुगन्धित था। उसके मुख तथा शरीर की सुगन्ध से अनुप्राणित होकर पुरुरवा ने अत्यन्त उल्लासपूर्वक अनेक दिनों तक उसके साथ रमण किया।

श्लोक 26: उर्वशी को अपनी सभा में न देखकर स्वर्ग के राजा इन्द्र ने कहा, “उर्वशी के बिना मेरी सभा सुन्दर नहीं लगती।” यह सोचकर उसने गन्धर्वों से अनुरोध किया कि वे उसे पुन: स्वर्गलोक में ले आएँ।

श्लोक 27: इस तरह गन्धर्वगण पृथ्वी पर आये और अर्धरात्रि के अंधकार में पुरुरवा के घर में प्रकट हुए तथा उर्वशी द्वारा प्रदत्त दोनों मेमने चुरा लिए।

श्लोक 28: उर्वशी इन दोनों मेमनों को पुत्रस्वरूप मानती थी। अतएव जब उन्हें गन्धर्वगण लिए जा रहे थे और जब उन्होंने मिमियाना शुरू किया तो उर्वशी ने इसे सुना। उसने अपने पति को फटकारते हुए कहा, “हाय! अब मैं ऐसे अयोग्य पति के संरक्षण में रहती हुई मारी जा रही हूँ जो कायर एवं नपुंसक है किन्तु अपने को परम वीर समझता है।

श्लोक 29: “चूँकि मैं उस (अपने पति) पर आश्रित थी, अतएव लुटेरों ने मुझसे मेरे दोनों पुत्रवत् मेमनों को छीन लिया है और अब मैं विनष्ट हो गई हूँ। मेरा पति रात्रि में डर के मारे उसी तरह सो रहा है जैसे कोई स्त्री हो, यद्यपि दिन में वह पुरुष प्रतीत होता है।”

श्लोक 30: पुरुरवा उर्वशी के कर्कश शब्दों से आहत होने के कारण उसी तरह से अत्यधिक क्रुद्ध हुआ जिस तरह हाथी महावत के अंकुश से होता है। वह बिना उचित वस्त्र पहने, हाथ में तलवार लेकर मेमना चुराने वाले गन्धर्वों का पीछा करने के लिए नंगा बाहर चला गया।

श्लोक 31: उन दोनों मेमनों को छोडक़र गन्धर्वगण बिजली के समान प्रकाशमान हो उठे जिससे पुरुरवा का घर प्रकाशित हो उठा। तब उर्वशी ने देखा कि उसका पति दोनों मेमनों को हाथ में लिए लौट आया है, किन्तु वह नग्न है; अतएव उसने उसका परित्याग कर दिया।

श्लोक 32: उर्वशी को अपने बिस्तर पर न देखकर पुरुरवा अत्यधिक दुखित हो उठा। उसके प्रति अत्यधिक आसक्ति के कारण वह मन में क्षुब्ध था। तत्पश्चात् विलाप करते हुए वह पागल की तरह सारी पृथ्वी में भ्रमण करने लगा।

श्लोक 33: एक बार विश्व का भ्रमण करते हुए पुरुरवा ने उर्वशी को उसकी पाँच सखियों सहित सरस्वती नदी के तट पर कुरुक्षेत्र में देखा। प्रसन्न-मुख होकर वह उस से मधुर शब्दों में इस प्रकार बोला।

श्लोक 34: हे प्रिय पत्नी! हे क्रूर! जरा ठहरो तो। मैं जानता हूँ कि अभी तक मैं तुम्हें कभी भी सुखी नहीं बना पाया, किन्तु तुम्हें इस कारण से मेरा परित्याग नहीं करना चाहिए। यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। मान लो कि तुम मेरा साथ छोडऩे का निश्चय कर चुकी हो, किन्तु तो भी आओ कुछ क्षण बैठकर बातें करें।

श्लोक 35: हे देवी, चूँकि तुमने मुझे अस्वीकार कर दिया है अतएव मेरा यह सुन्दर शरीर यहीं धराशायी हो जायगा और चूँकि मैं तुम्हारे सुख के अनुकूल नहीं हूँ इसलिए इसे लोमडिय़ाँ तथा गीध खा जायेंगे।

श्लोक 36: उर्वशी ने कहा : हे राजन, तुम पुरुष हो, वीर हो। अधीर मत होओ और अपने प्राणों को मत त्यागो। गम्भीर बनो और लोमडिय़ों की भाँति अपनी इन्द्रियों के वश में मत होओ। तुम लोमडिय़ों का भोजन मत बनो। दूसरे शब्दों में, तुम्हें अपनी इन्द्रियों के वशीभूत नहीं होना चाहिए। प्रत्युत तुम्हें स्त्री के हृदय को लोमड़ी जैसा जानना चाहिए। स्त्रियों से मित्रता करने से कोई लाभ नहीं।

श्लोक 37: स्त्रियों की जाति करुणाविहीन तथा चतुर होती है। वे थोड़ा सा भी अपमान सहन नहीं कर सकतीं। वे अपने आनन्द के लिए कुछ भी अधर्म कर सकती हैं; अतएव वे अपने आज्ञाकारी पति या भाई तक का वध करते हुए नहीं डरतीं।

श्लोक 38: स्त्रियाँ पुरुषों द्वारा आसानी से ठग ली जाती हैं, अतएव दूषित स्त्रियाँ अपने शुभेच्छु पुरुष की मित्रता छोडक़र मूर्खों से झूठी दोस्ती स्थापित कर लेती हैं। निस्सन्देह, वे एक के बाद एक नित नये मित्रों की खोज में रहती हैं।

श्लोक 39: हे राजा, तुम हर एक साल के बाद केवल एक रात के लिए मेरे साथ पति रूप में रमण कर सकोगे। इस तरह तुम्हें एक-एक करके अन्य सन्तानें भी मिलती रहेंगी।

श्लोक 40: यह जानकर कि उर्वशी गर्भवती है, पुरुरवा अपने महल में वापस आ गया। एक वर्ष बाद कुरुक्षेत्र में ही उर्वशी से पुन: उसकी भेंट हुई; तब वह एक वीर पुत्र की माता थी।

श्लोक 41: वर्ष के अन्त में उर्वशी को फिर से पाकर राजा पुरुरवा अत्यधिक हर्षित था और उसने एक रात उसके साथ संभोग में बिताई। किन्तु उससे विलग होने के विचार से वह अत्यधिक दुखी था; इसलिए उर्वशी ने उससे इस प्रकार कहा।

श्लोक 42: उर्वशी ने कहा : हे राजन, तुम गन्धर्वों की शरण में जाओ क्योंकि वे मुझे पुन: तुम्हें दे सकेंगे। इन वचनों के अनुसार राजा ने स्तुतियों द्वारा गन्धर्वों को प्रसन्न किया और जब गन्धर्व प्रसन्न हुए तो उन्होंने उसे उर्वशी जैसी ही एक अग्निस्थाली कन्या प्रदान की। यह सोचकर कि यह कन्या उर्वशी ही है, वह राजा उसके साथ जंगल में विचरण करने लगा, किन्तु बाद में उसकी समझ में आ गया कि वह उर्वशी नहीं अपितु अग्निस्थाली है।

श्लोक 43: तब राजा पुरुरवा ने अग्निस्थाली को जंगल में छोड़ दिया और स्वयं घर वापस चला आया जहाँ उसने रात भर उर्वशी का ध्यान किया। उसके ध्यान के ही समय त्रेतायुग का शुभारम्भ हो गया; अतएव वेदत्रयी के सारे सिद्धान्त, जिनमें कर्म की पूर्ति के लिए यज्ञ करने की विधियाँ भी सम्मिलित थीं, उसके हृदय के भीतर प्रकट हुए।

श्लोक 44-45: जब पुरुरवा के हृदय के कर्मकाण्डीय यज्ञ की विधि प्रकट हुई तो वह उसी स्थान पर गया जहाँ उसने अग्निस्थाली को छोड़ा था। वहाँ उसने देखा कि शमी वृक्ष के भीतर से एक अश्वत्थ वृक्ष उग आया है। उसने उस वृक्ष से लकड़ी का एक टुकड़ा लिया और उससे दो अरणियाँ बना लीं। उसने उर्वशी के रहने वाले लोक में जाने की इच्छा से, निचली अरणी में उर्वशी का और ऊपरी अरणी में अपना ध्यान तथा बीच के काष्ठ में अपने पुत्र का ध्यान करते हुए मंत्रोच्चार किया। इस तरह वह अग्नि प्रज्ज्वलित करने लगा।

श्लोक 46: पुरुरवा द्वारा अरणियों के रगडऩे से अग्नि उत्पन्न हुई। ऐसी अग्नि से मनुष्य को भौतिक भोग में पूर्ण सफलता मिल सकती है और वह सन्तान उत्पत्ति, दीक्षा तथा यज्ञ करते समय शुद्ध हो सकता है जिन्हें अ, उ, म् (ओम्) शब्दों के द्वारा आवाहन किया जा सकता है। इस प्रकार वह अग्नि राजा पुरुरवा का पुत्र मान ली गई।

श्लोक 47: उर्वशी-लोक जाने के इच्छुक पुरुरवा ने उस अग्नि के द्वारा एक यज्ञ किया जिससे उसने यज्ञफल के भोक्ता भगवान् हरि को तुष्ट किया। इस प्रकार उसने इन्द्रियानुभूति से परे एवं समस्त देवताओं के आगार भगवान् की पूजा की।

श्लोक 48: प्रथम युग, सत्ययुग में, सारे वैदिक मंत्र एक ही मंत्र प्रणव में सम्मिलित थे जो सारे वैदिक मंत्रों का मूल है। दूसरे शब्दों में अथर्ववेद ही समस्त वैदिक ज्ञान का स्रोत था। भगवान् नारायण ही एकमात्र आराध्य थे और देवताओं की पूजा की संस्तुति नहीं की जाती थी। अग्नि केवल एक थी और मानव समाज में केवल एक वर्ण था जो हंस कहलाता था।

श्लोक 49: हे महाराज परीक्षित, त्रेतायुग के प्रारम्भ में राजा पुरुरवा ने एक कर्मकाण्ड यज्ञ का सूत्रपात किया। इस प्रकार यज्ञिक अग्नि को पुत्र मानने वाला पुरुरवा इच्छानुसार गन्धर्वलोक जाने में समर्थ हुआ।

अध्याय 15: भगवान् का योद्धा अवतार, परशुराम

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा परीक्षित, पुरुरवा ने उर्वशी के गर्भ से छ: पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम थे—आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय तथा जय।

श्लोक 2-3: श्रुतायु का पुत्र वसुमान हुआ, सत्यायु का पुत्र श्रुतञ्जय हुआ, रय के पुत्र का नाम एक था, जय का पुत्र अमित था और विजय का पुत्र भीम हुआ। भीम का पुत्र काञ्चन, काञ्चन का पुत्र होत्रक और होत्रक का पुत्र जह्नु था जिसने एक ही घूँट में गंगा का सारा पानी पी लिया था।

श्लोक 4: जह्नु का पुत्र पुरु था, पुरु का बलाक, बलाक का अजक और अजक का पुत्र कुश हुआ। कुश के चार पुत्र हुए जिनके नाम थे कुशाम्बुज, तनय, वसु तथा कुशनाभ। कुशाम्बु का पुत्र गाधि था।

श्लोक 5-6: गाधि के एक पुत्री थी जिसका नाम सत्यवती था जिससे विवाह करने के लिए ऋचीक नामक ब्रह्मर्षि ने राजा से विनती की। किन्तु राजा गाधि ने इस ब्रह्मर्षि को अपनी पुत्री के लिए अयोग्य पति समझ कर उससे कहा, “महोदय, मैं कुशवंशी हूँ। चूँकि हम लोग राजसी क्षत्रिय हैं अतएव आपको मेरी पुत्री के लिए कुछ दहेज देना होगा। अत: आप कम से कम एक हजार ऐसे घोड़े लायें जो चाँदनी की तरह उज्ज्वल हों और जिनके एक कान, दायाँ या बायाँ, काला हो।”

श्लोक 7: जब राजा गाधि ने यह माँग पेश की तो महर्षि ऋचीक को राजा के मन की बात समझ में आ गई। अतएव वह वरुणदेव के पास गया और वहाँ से गाधि द्वारा माँगे गये एक हजार घोड़े ले आया। इन घोड़ों को भेंट करके मुनि ने राजा की सुन्दर पुत्री के साथ विवाह कर लिया।

श्लोक 8: तत्पश्चात् ऋचीक मुनि की पत्नी तथा सास दोनों ने पुत्र की इच्छा से मुनि से प्रार्थना की कि वह चरु (आहुति) तैयार करे। तब मुनि ने अपनी पत्नी के लिए ब्राह्मण मंत्र से एक चरु और क्षत्रिय मंत्र से अपनी सास के लिए एक अन्य चरु तैयार किया। फिर वह स्नान करने चला गया।

श्लोक 9: इसी बीच सत्यवती की माता ने सोचा कि उसकी पुत्री के लिए तैयार की गई चरु अवश्य ही श्रेष्ठ होगी अतएव उसने अपनी पुत्री से वह चरु माँग ली। सत्यवती ने वह चरु अपनी माता को दे दी और स्वयं अपनी माता की चरु खा ली।

श्लोक 10: जब ऋषि ऋचीक स्नान करके घर लौटे और उन्हें यह पता लगा कि उनकी अनुपस्थिति में क्या घटना घटी है तो उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवती से कहा, “तुमने बहुत बड़ी भूल की है। तुम्हारा पुत्र घोर क्षत्रिय होगा, जो हर एक को दण्ड दे सकेगा और तुम्हारा भाई अध्यात्म विद्या का पण्डित होगा।”

श्लोक 11: किन्तु सत्यवती ने मधुर वचनों से ऋचीक मुनि को शान्त किया और प्रार्थना की कि उसका पुत्र क्षत्रिय की तरह भयंकर न हो। ऋचीक मुनि ने उत्तर दिया, “तो तुम्हारा पौत्र क्षत्रिय गुणवाला होगा।” इस प्रकार सत्यवती के पुत्र रूप में जमदग्नि का जन्म हुआ।

श्लोक 12-13: बाद में सत्यवती समस्त संसार को पवित्र करने वाली कौशिकी नामक पुण्य नदी बन गई और उसके पुत्र जमदग्नि ने रेणु की पुत्री रेणुका से विवाह किया। जमदग्नि के वीर्य से रेणुका की कुक्षि से वसुमान इत्यादि कई पुत्र हुए जिनमें से राम या परशुराम सबसे छोटा था।

श्लोक 14: विद्वान लोग इस परशुराम को भगवान् वासुदेव का विख्यात अवतार मानते हैं जिसने कार्तवीर्य के वंश का विनाश किया। परशुराम ने पृथ्वी के सभी क्षत्रियों का इक्कीस बार वध किया।

श्लोक 15: जब राजवंश रजो तथा तमो गुणों के कारण अत्यधिक गर्वित होकर अधार्मिक बन गया और ब्राह्मणों द्वारा बनाये गये नियमों की परवाह न करने लगा तो परशुराम ने उन सबको मार डाला। यद्यपि उनके अपराध बहुत बड़े न थे, किन्तु धरती का भार कम करने के लिए उन्होंने उन्हें मार डाला।

श्लोक 16: राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा: अपनी इन्द्रियों को वश में न रख सकने वाले राजाओं का वह कौन सा अपराध था जिसके कारण भगवान् के अवतार परशुराम ने क्षत्रियवंश का बारम्बार विनाश किया?

श्लोक 17-19: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : क्षत्रियश्रेष्ठ हैहयराज कार्तवीर्यार्जुन ने भगवान् नारायण के स्वांश दत्तात्रेय की पूजा करके एक हजार भुजाएँ प्राप्त कीं। वह शत्रुओं द्वारा अपराजेय बन गया और उसे अव्याहत इन्द्रिय शक्ति, सौन्दर्य, प्रभाव, बल, यश तथा अणिमा, लघिमा जैसी आठ योग सिद्धियाँ प्राप्त करने की योग शक्ति मिल गई। इस तरह पूर्ण ऐश्वर्यशाली बनकर वह सारे संसार में वायु की तरह बेजोड़ बनकर घूमने लगा।

श्लोक 20: एक बार नर्मदा नदी के जल में क्रीड़ा करते हुए सुन्दरी स्त्रियों से घिरे एवं विजय की माला धारण किये हुए गर्वोन्नत कार्तवीर्यार्जुन ने अपनी बाँहों से जल के प्रवाह को रोक दिया।

श्लोक 21: चूँकि कार्तवीर्यार्जुन ने जलप्रवाह की दिशा पलट दी थी अत: नर्मदा नदी के तट पर महिष्मती नगर के निकट रावण का लगा खेमा जलमग्न हो गया। यह दससिरों वाले रावण के लिए असह्य हो उठा क्योंकि वह अपने को महान् वीर मानता था और वह कार्तवीर्यार्जुन के बल को सहन नहीं कर सका।

श्लोक 22: जब रावण ने स्त्रियों के समक्ष कार्तवीर्यार्जुन का अपमान करना चाहा और उसे नाराज कर दिया तो उसने रावण को खेल-खेल में उसी प्रकार बन्दी बनाकर माहिष्मती नगर के कारागार में डाल दिया जिस प्रकार कोई बन्दर को पकड़ ले। बाद में उसने परवाह किए बिना उसे मुक्त कर दिया।

श्लोक 23: एक बार जब कार्तवीर्यार्जुन बिना किसी कार्यक्रम के एकान्त जंगल में घूमकर शिकार कर रहा था तो वह जमदग्नि के निवास के निकट पहुँचा।

श्लोक 24: जंगल में कठिन तपस्या में रत ऋषि जमदग्नि ने सैनिकों, मंत्रियों तथा पालकी वाहकों समेत राजा का अच्छी तरह स्वागत किया। उन्होंने इन अतिथियों को पूजा करने की सारी सामग्री जुटाई क्योंकि उनके पास कामधेनु गाय थी जो हर वस्तु प्रदान करने में सक्षम थी।

श्लोक 25: कार्तवीर्यार्जुन ने सोचा कि जमदग्नि उसकी तुलना में अधिक शक्तिशाली एवं सम्पन्न है क्योंकि उसके पास कामधेनु रूपी रत्न है अतएव उसने तथा उसके हैहयजनों ने जमदग्नि के सत्कार की अधिक प्रशंसा नहीं की। उल्टे, वे उस कामधेनु को लेना चाहते थे जो अग्निहोत्र यज्ञ के लिए लाभदायक थी।

श्लोक 26: भौतिक शक्ति से गर्वित कार्तवीर्यार्जुन ने अपने व्यक्तियों को जमदग्नि की कामधेनु चुरा लेने के लिए प्रेरित किया। फलत: वे व्यक्ति रोती-विलपती कामधेनु को उसके बछड़े समेत बलपूर्वक कार्तवीर्यार्जुन की राजधानी माहिष्मती ले आये।

श्लोक 27: जब कामधेनु सहित कार्तवीर्याजुर् न चला गया तो जमदग्नि का सबसे छोटा पुत्र परशुराम आश्रम में लौटा। जब उसने कार्तवीर्यार्जुन के दुष्कर्म के विषय में सुना तो वह कुचले हुए साँप की तरह क्रुद्ध हो उठा।

श्लोक 28: अपना भयानक फरसा, ढाल, धनुष तथा तरकस लेकर अत्यधिक क्रुद्ध परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन का पीछा किया जिस तरह सिंह हाथी का पीछा करता है।

श्लोक 29: अभी राजा कार्तवीर्यार्जुन अपनी राजधानी माहिष्मती पुरी में प्रवेश कर ही रहा था कि उसने भृगुवंशियों में श्रेष्ठ भगवान् परशुराम को फरसा, ढाल, धनुष तथा बाण लिए अपना पीछा करते देखा। परशुरामजी ने काले हिरन की खाल पहन रखी थी और उनका जटाजूट सूर्य के तेज जैसा प्रतीत हो रहा था।

श्लोक 30: परशुराम को देखते ही कार्तवीर्यार्जुन डर गया और उसने तुरन्त ही उनसे युद्ध करने के लिए अनेक हाथी, रथ, घोड़े तथा पैदल सैनिक भेजे जो गदा, तलवार, बाण, ऋष्टि, शतघ्नि, शक्ति इत्यादि विविध हथियारों से युक्त थे। उसने परशुराम को रोकने के लिए पूरे सत्रह अक्षौहिणी सैनिक भेजे, किन्तु भगवान् परशुराम ने अकेले ही सबों का सफाया कर दिया।

श्लोक 31: शत्रु की सेना को मारने में कुशल भगवान् परशुराम ने मन तथा वायु की गति से काम करते हुए अपने फरसे से शत्रुओं के टुकड़े कर दिये। वे जहाँ-जहाँ गये सारे शत्रु खेत होते रहे, उनके पाँव, हाथ तथा धड़ अलग-अलग हो गये, उनके सारथी मार डाले गये और उनके वाहन, हाथी तथा घोड़े सभी विनष्ट कर दिये गये।

श्लोक 32: अपने फरसे तथा बाणों को व्यवस्थित करके परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन के सिपाहियों की ढालों, उनके झंडों, धनुषों तथा उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले जो युद्धभूमि में गिर गये और जिनके रक्त से भूमि पंकिल हो गई। अपनी पराजय होते देखकर अत्यन्त क्रुद्ध होकर कार्तवीर्यार्जुन युद्धभूमि की ओर लपका।

श्लोक 33: तब कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम को मारने के लिए एक हजार भुजाओं में एकसाथ पाँच सौ धनुषों पर बाण चढ़ा लिए। किन्तु श्रेष्ठ लड़ाकू भगवान् परशुराम ने एक ही धनुष से इतने बाण छोड़े कि कार्तवीर्यार्जुन के हाथों के सारे धनुष तथा बाण तुरन्त कटकर टुकड़े-टुकड़े हो गये।

श्लोक 34: जब कार्तवीर्यार्जुन के बाण छिन्न-भिन्न हो गये तो उसने अपने हाथों से अनेक वृक्ष तथा पर्वत उखाड़ लिये और वह फिर से परशुरामजी को मारने के लिए उनकी ओर तेजी से दौा। किन्तु परशुराम ने अपने फरसे से अत्यन्त वेग से कार्तवीर्यार्जुन की भुजाएँ काट लीं जिस तरह कोई सर्प के फनों को काट ले।

श्लोक 35-36: तत्पश्चात् परशुराम ने बाँह-कटे कार्तवीर्यार्जुन के सिर को पर्वतशृंग के समान काट लिया। जब कार्तवीर्यार्जुन के दस हजार पुत्रों ने अपने पिता को मारा गया देखा तो वे सब डर के मारे भाग गये। तब शत्रु का वध करके परशुराम ने कामधेनु को छुड़ाया, जिसे काफी कष्ट मिल चुका था और वे उसे बछड़े समेत अपने घर ले आये तथा उसे अपने पिता जमदग्नि को दे दिया।

श्लोक 37: परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन के वध सम्बन्धी अपने कार्यकलापों का वर्णन अपने पिता तथा भाइयों से किया। इन कार्यों को सुनकर जमदग्नि अपने पुत्र से इस प्रकार बोले।

श्लोक 38: हे वीर, हे पुत्र परशुराम, तुमने व्यर्थ ही राजा को मार डाला है क्योंकि वह सारे देवताओं का मूर्तरूप माना जाता है। इस प्रकार तुमने पाप किया है।

श्लोक 39: हे पुत्र, हम सभी ब्राह्मण हैं और अपनी क्षमाशीलता के कारण जनसामान्य के लिए पूज्य बने हुए हैं। इस गुण के कारण ही इस ब्रह्माण्ड के परम गुरु ब्रह्माजी को उनका पद प्राप्त हुआ है।

श्लोक 40: ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वे क्षमाशीलता के गुण का संवर्धन करें क्योंकि यह सूर्य के समान तेजवान है। भगवान् हरि क्षमाशील व्यक्तियों से प्रसन्न होते हैं।

श्लोक 41: हे प्रिय पुत्र, एक सम्राट का वध ब्राह्मण की हत्या से भी अधिक पापमय है। किन्तु अब यदि तुम कृष्णभावनाभावित होकर तीर्थस्थानों की पूजा करो तो इस महापाप का प्रायश्चित हो सकता है।

अध्याय 16: भगवान् परशुराम द्वारा विश्व के क्षत्रियों का विनाश

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, हे कुरुवंशी, जब भगवान् परशुराम को उनके पिता ने यह आदेश दिया तो उन्होंने तुरन्त ही यह कहते हुए उसे स्वीकार किया, “ऐसा ही होगा।” वे एक वर्ष तक तीर्थस्थलों की यात्रा करते रहे। तत्पश्चात् वे अपने पिता के आश्रम में लौट आये।

श्लोक 2: एक बार जब जमदग्नि की पत्नी रेणुका गंगा नदी के तट पर पानी भरने गई तो उन्होंने कमल फूल की माला से अलंकृत तथा अप्सराओं के साथ गंगा में विहार करते गन्धर्वों के राजा को देखा।

श्लोक 3: वह गंगा नदी से जल लाने गई थी, किन्तु जब उसने गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करते देखा तो वह उसकी ओर उन्मुख सी हुई और यह भूल ही गई कि अग्निहोत्र का समय बीत रहा है।

श्लोक 4: तत्पश्चात् यह समझकर कि यज्ञ करने का समय बीत चुका है, रेणुका अपने पति द्वारा शापित होने से भयभीत हो उठी। अतएव जब वह लौटकर आई तो वह उनके समक्ष जलपात्र रखकर हाथ जोडक़र खड़ी हो गई।

श्लोक 5: मुनि जमदग्नि अपनी पत्नी के मन के पाप को समझ गये। अतएव वे अत्यन्त कुपित हुए और अपने बेटों से बोले, “पुत्रो, इस पापिनी स्त्री को मार डालो।” लेकिन बेटों ने उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया।

श्लोक 6: तब जमदग्नि ने अपने सबसे छोटे पुत्र परशुराम को अवज्ञाकारी भाइयों तथा मानसिक रूप से पाप करने वाली उसकी माता को मार डालने की आज्ञा दी। परशुराम ने तुरन्त ही अपनी माता तथा भाइयों का वध कर दिया क्योंकि उन्हें ध्यान तथा तपस्या द्वारा अर्जित अपने पिता के पराक्रम का ज्ञान था।

श्लोक 7: सत्यवती-पुत्र जमदग्नि परशुराम से अत्यधिक प्रसन्न हुए और उनसे इच्छानुसार वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने कहा, “मेरी माता तथा मेरे भाइयों को फिर से जीवित हो जाने दें और उन्हें यह स्मरण न रहे कि मैंने उन्हें मारा था। मैं आपसे इतना ही वर माँगता हूँ।”

श्लोक 8: तत्पश्चात् जमदग्नि के वर से भगवान् परशुराम की माता तथा उनके सारे भाई तुरन्त जीवित हो उठे और वे सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए मानो गहरी नींद से जगे हों। परशुराम ने अपने पिता के आदेश पर अपने परिजनों का वध कर दिया था क्योंकि वे अपने पिता के बल, तपस्या तथा विद्वत्ता से परिचित थे।

श्लोक 9: हे राजा परीक्षित, परशुराम की श्रेष्ठ शक्ति द्वारा पराजित कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों को कभी सुख नहीं मिल पाया क्योंकि उन्हें अपने पिता का वध सदैव याद आता रहा।

श्लोक 10: एकबार जब परशुराम वसुमान तथा अन्य भाइयों के साथ आश्रम से जंगल गये हुए थे तो कार्तवीर्यार्जुन के पुत्र अवसर का लाभ उठा कर अपनी शत्रुता का बदला लेने के उद्देश्य से जमदग्नि के आश्रम में गये।

श्लोक 11: कार्तवीर्यार्जुन के पुत्र पापकृत्य करने के लिए कृतसंकल्प थे। अतएव जब उन्होंने जमदग्नि को अग्नि के निकट यज्ञ करते एवं उत्तमश्लोक भगवान् का ध्यान करते देखा तो उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाकर उसे मार डाला।

श्लोक 12: परशुराम की माता तथा जमदग्नि की पत्नी रेणुका ने अपने पति के जीवन की भीख माँगी, किन्तु कार्तवीर्यार्जुन के पुत्र क्षत्रिय गुणों से रहित होने के कारण इतने क्रूर निकले कि उसकी याचना के बावजूद उन्होंने उसका सिर काट लिया और उसे अपने साथ लेते गये।

श्लोक 13: अपने पति की मृत्यु के कारण शोक से विलाप करती सती रेणुका अपने ही हाथों से अपने शरीर को पीट रही थी और जोर जोर से चिल्ला रही थी, “हे राम, मेरे पुत्र राम।”

श्लोक 14: यद्यपि परशुराम सहित जमदग्नि के सारे पुत्र घर से बहुत दूरी पर थे, किन्तु ज्योंही उन्होंने रेणुका की “हे राम! हे पुत्र!” की तेज पुकार सुनी, वे तुरन्त आश्रम लौट आये जहाँ उन्होंने अपने पिता को मरा हुआ पाया।

श्लोक 15: शोक, क्रोध, अपमान, सन्ताप तथा शोक से ग्रस्त जमदग्नि के सारे पुत्र चिल्ला पड़े, “हे साधु एवं धर्मात्मा पिता, आप हमें छोडक़र स्वर्ग लोक को चले गये हैं।”

श्लोक 16: इस प्रकार विलाप करते हुए परशुराम ने अपने पिता का शव अपने भाइयों को सौंप दिया और स्वयं पृथ्वी तल से सारे क्षत्रियों का अन्त करने का निश्चय करते हुए अपना फरसा ग्रहण किया।

श्लोक 17: हे राजन, तब परशुराम उस माहिष्मती नगरी में गये जो एक ब्राह्मण के पापपूर्ण वध के कारण पहले ही विनष्ट हो चुकी थी। उन्होंने उस नगरी के बीचोंबीच कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों के शरीरों से छिन्न किये गये सिरों का एक पर्वत बना दिया।

श्लोक 18-19: इन पुत्रों के रक्त से भगवान् परशुराम ने एक वीभत्स नदी तैयार कर दी जिससे उन राजाओं को बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया जिनमें ब्राह्मण संस्कृति के प्रति आदरभाव नहीं था। चूँकि सरकार के अधिकारी लोग अर्थात् क्षत्रिय पापकर्म कर रहे थे अतएव परशुराम ने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के बहाने सारे क्षत्रियों का इक्कीस बार पृथ्वी से सफाया कर दिया। निस्सन्देह, उन्होंने समन्तपञ्चक नामक स्थान पर उन सबों के रक्त से नौ झीलें उत्पन्न कर दीं।

श्लोक 20: तत्पश्चात् परशुराम ने अपने पिता के सिर को मृत शरीर से जोड़ दिया और पूरे शरीर एवं सिर को कुशों के ऊपर रख दिया। वे यज्ञों के द्वारा भगवान् वासुदेव की पूजा करने लगे जो समस्त देवताओं तथा हर जीव के सर्वव्यापी परमात्मा हैं।

श्लोक 21-22: यज्ञ-समाप्ति पर परशुराम ने पूर्वी दिशा होता को, दक्षिणी दिशा ब्रह्मा को, पश्चिमी दिशा अध्वर्यु को, उत्तरी दिशा उद्गाता को एवं चारों कोने—उत्तर पूर्व, दक्षिण पूर्व, उत्तर पश्चिम तथा दक्षिण पश्चिम—अन्य पुरोहितों को दान में दे दिये। उन्होंने मध्य भाग कश्यप को तथा आर्यावर्त उपद्रष्टा को दे दिया। शेष भाग सदस्यों अर्थात् सहयोगी पुरोहितों में बाँट दिया।

श्लोक 23: तत्पश्चात् भगवान् परशुराम ने यज्ञ-अनुष्ठान पूरा करके अवभृथ स्नान किया। महान् नदी सरस्वती के तट पर खड़े समस्त पापों से विमुक्त परशुराम जी बादलरहित आकाश में सूर्य के समान लग रहे थे।

श्लोक 24: इस प्रकार परशुराम द्वारा पूजा किये जाने पर जमदग्नि को अपनी पूर्ण स्मृति सहित पुन: जीवन प्राप्त हो गया और वे सात नक्षत्रों के समूह में सातवें ऋषि बन गये।

श्लोक 25: हे परीक्षित, अगले मन्वन्तर में जमदग्निपुत्र कमलनेत्र भगवान् परशुराम वैदिक ज्ञान के महान् संस्थापक होंगे। दूसरे शब्दों में, वे सप्तर्षियों में से एक होंगे।

श्लोक 26: आज भी भगवान् परशुराम महेन्द्र नामक पहाड़ी प्रदेश में बुद्धिमान ब्राह्मण के रूप में रह रहे हैं। पूर्ण तुष्ट एवं क्षत्रिय के सारे हथियारों को त्याग कर वे अपने उच्च चरित्र तथा कार्यों के लिए सदैव सिद्धों, गन्धर्वों एवं चारणों के द्वारा पूजित, वन्दित एवं प्रशंसित हैं।

श्लोक 27: इस तरह परमात्मा भगवान् हरि तथा ईश्वर ने भृगुवंश में अवतार लिया और अवाञ्छित राजाओं को अनेक बार मारकर उनके भार से पृथ्वी को उबारा।

श्लोक 28: महाराज गाधि का पुत्र विश्वामित्र अग्नि की लपटों के समान शक्तिशाली था; उसने तपस्या द्वारा क्षत्रिय पद से तेजस्वी ब्राह्मण का पद प्राप्त किया।

श्लोक 29: हे राजा परीक्षित, विश्वामित्र के १०१ पुत्र थे जिनमें से बीच के पुत्र का नाम मधुच्छन्दा था। उसके कारण अन्य सारे पुत्र मधुच्छन्दा नाम से विख्यात हुए।

श्लोक 30: विश्वामित्र ने अजीगर्त के पुत्र शुन:शेफ को अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया जो भृगुवंश में उत्पन्न हुआ था और देवरात नाम से भी विख्यात था। विश्वामित्र ने अपने अन्य पुत्रों को आज्ञा दी कि वे शुन:शेफ को अपना सबसे बड़ा भाई मान लें।

श्लोक 31: शुन:शेफ के पिता ने शुन:शेफ को राजा हरिश्चन्द्र के यज्ञ में बलिपशु के रूप में बलि दिये जाने के लिए बेच दिया। जब शुन:शेफ को यज्ञशाला में लाया गया तो उसने देवताओं से प्रार्थना की कि वे उसे छुड़ा दें और वह उनकी कृपा से छुड़ा दिया गया।

श्लोक 32: यद्यपि शुन:शेफ भार्गव कुल में उत्पन्न हुआ था, किन्तु आध्यात्मिक जीवन में बढ़ा-चढ़ा होने के कारण यज्ञ में सम्बधित देवताओं ने उसकी रक्षा की। फलत: वह देवरात नाम से गाधि के वंशज के रूप में भी विख्यात हुआ।

श्लोक 33: जब विश्वामित्र ने शुन:शेफ को सबसे बड़ा पुत्र स्वीकार करने के लिए कहा तो विश्वामित्र के पचास ज्येष्ठ मधुच्छन्दा पुत्र इसके लिए राजी नहीं हुए। फलत: विश्वामित्र क्रुद्ध हो गये और उन्होंने उन सबों को शाप दे दिया, “निकम्मे पुत्रो! तुम सारे म्लेच्छ बन जाओ क्योंकि तुम वैदिक संस्कृति के नियमों के विरुद्ध हो।”

श्लोक 34: जब बड़े पचास मधुच्छन्दाओं को शाप मिल गया तो मधुच्छन्दा समेत छोटे पचास पुत्र अपने पिता के पास गये और उनके प्रस्ताव को यह कहकर स्वीकार किया, “हे पिता, आप जैसा चाहेंगे हम उसी को मानेंगे।”

श्लोक 35: इस तरह छोटे मधुच्छान्दाओं ने शुन:शेफ को अपना बड़ा भाई मान लिया और उससे कहा “हम आपके आदेशों का पालन करेंगे।” तब विश्वामित्र ने अपने इन आज्ञाकारी पुत्रों से कहा “चूँकि तुम लोगों ने शुन:शेफ को अपना बड़ा भाई मान लिया है अतएव मैं सन्तुष्ट हूँ। तुम लोगों ने मेरे आदेश को स्वीकार करके मुझे योग्य पुत्रों का पिता बना दिया है अतएव मैं तुम सबों को आशीर्वाद देता हूँ कि तुम भी पुत्रों के पिता बनो।”

श्लोक 36: विश्वामित्र ने कहा “हे कुशिको, यह देवरात मेरा पुत्र है और तुममें से एक है। उसकी आज्ञा का पालन करो।” हे परीक्षित, विश्वामित्र के अन्य अनेक पुत्र थे—अष्टक, हारीत, जय तथा क्रतुमान इत्यादि।

श्लोक 37: विश्वामित्र ने कुछ पुत्रों को शाप दिया और अन्यों को आशीर्वाद दिया और एक पुत्र को गोद भी लिया। इस तरह कौशिक वंश में काफी विविधता थी, किन्तु सारे पुत्रों में देवरात ही ज्येष्ठ माना गया।

अध्याय 17: पुरूरवा के पुत्रों की वंशावली

श्लोक 1-3: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : पुरूरवा से आयु नामक पुत्र हुआ जिससे नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजी, राभ तथा अनेना नाम के अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न हुए। हे महाराज परीक्षित, अब क्षत्रवृद्ध के वंश के विषय में सुनो। क्षत्रवृद्ध का पुत्र सुहोत्र था जिसके तीन पुत्र हुए—काश्य, कुश तथा गृत्समद। गृत्समद से शुनक हुआ और शुनक से शौनक मुनि उत्पन्न हुए जो ऋग्वेद में सर्वाधिक पटु थे।

श्लोक 4: काश्य का पुत्र काशि था और उसका पुत्र राष्ट्र हुआ जो दीर्घतम का पिता था। दीर्घतम के धन्वन्तरि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो आयुर्वेद का जनक तथा समस्त यज्ञफलों के भोक्ता भगवान् वासुदेव का अवतार था। जो धन्वन्तरि का नाम याद करता है उसके सारे रोग दूर हो सकते हैं।

श्लोक 5: धन्वन्तरि का पुत्र केतुमान हुआ और उसका पुत्र भीमरथ था। भीमरथ का पुत्र दिवोदास था और उसका पुत्र द्युमान हुआ जो प्रतर्दन भी कहलाता था।

श्लोक 6: द्युमान शत्रुजित, वत्स, ऋतध्वज तथा कुवलयाश्व नामों से भी विख्यात था। उससे अलर्क तथा अन्य पुत्र उत्पन्न हुए।

श्लोक 7: हे राजा परीक्षित, द्युमान के पुत्र अलर्क ने पृथ्वी पर छियाछठ हजार वर्षों से भी अधिक समय तक राज्य किया। इस पृथ्वी पर उनके अतिरिक्त किसी अन्य ने युवक के रूप में इतने दीर्घकाल तक राज्य नहीं भोगा।

श्लोक 8: अलर्क से सन्तति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका पुत्र सुनीथ हुआ। सुनीथ का पुत्र निकेतन था। निकेतन का पुत्र धर्मकेतु हुआ और धर्मकेतु का पुत्र सत्यकेतु था।

श्लोक 9: हे राजा परीक्षित, सत्यकेतु का पुत्र धृष्टकेतु हुआ और धृष्टकेतु का पुत्र सुकुमार हुआ जो पूरे विश्व का सम्राट था। सुकुमार का पुत्र वीतिहोत्र हुआ, जिसका पुत्र भर्ग था और भर्ग का पुत्र भार्गभूमि हुआ।

श्लोक 10: हे महाराज परीक्षित, ये सारे राजा काशि के वंशज थे और इन्हें क्षत्रवृद्ध के उत्तराधिकारी भी कहा जा सकता है। राभ का पुत्र रभस हुआ, रभस का पुत्र गम्भीर और गम्भीर का पुत्र अक्रिय कहलाया।

श्लोक 11: हे राजा, अक्रिय का पुत्र ब्रह्मवित कहलाया। अब अनेना के वंशजों के विषय में सुनो। अनेना का पुत्र शुद्ध था और उसका पुत्र शुचि था। शुचि का पुत्र धर्मसारथि था जो चित्रकृत भी कहलाता था।

श्लोक 12: चित्रकृत के शान्तरज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो स्वरूपसिद्ध व्यक्ति था जिसने समस्त वैदिक कर्मकाण्ड सम्पन्न किये। फलत: उसने कोई सन्तान उत्पन्न नहीं की। रजी के पाँच सौ पुत्र हुए जो सारे के सारे अत्यन्त शक्तिशाली थे।

श्लोक 13: देवताओं की प्रार्थना पर रजी ने दैत्यों का वध किया और स्वर्ग का राज्य इन्द्रदेव को लौटा दिया। किन्तु इन्द्र ने प्रह्लाद जैसे दैत्यों के डर से स्वर्ग का राज्य रजी को लौटा दिया और स्वयं उसके चरणकमलों की शरण ग्रहण कर ली।

श्लोक 14: रजी की मृत्यु के बाद इन्द्र ने रजी के पुत्रों से स्वर्ग का राज्य लौटाने के लिए याचना की। किन्तु उन्होंने नहीं लौटाया, यद्यपि वे इन्द्र का यज्ञ-भाग लौटाने के लिए राजी हो गये।

श्लोक 15: तत्पश्चात् देवताओं के गुरु बृहस्पति ने अग्नि में आहुति डाली जिससे रजी के पुत्र नैतिक सिद्धान्तों से नीचे गिर सकें। जब वे गिर गये तो इन्द्र ने उनके पतन के कारण उन्हें सरलता से मार डाला। उनमें से एक भी नहीं बच पाया।

श्लोक 16: क्षत्रवृद्ध के पौत्र कुश से प्रति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। प्रति का पुत्र सञ्जय, सञ्जय का पुत्र जय, जय का पुत्र कृत और कृत का पुत्र राजा हर्यबल हुआ।

श्लोक 17: हर्यबल का पुत्र सहदेव, सहदेव का पुत्र हीन, हीन का पुत्र जयसेन और जयसेन का पुत्र संकृति हुआ। संकृति का पुत्र जय अत्यन्त शक्तिशाली एवं निपुण योद्धा था। ये सभी राजा क्षत्रवृद्ध वंश के सदस्य थे। अब मैं नहुष के वंश का वर्णन करूँगा।

अध्याय 18: राजा ययाति को यौवन की पुन:प्राप्ति

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, जिस तरह देहधारी आत्मा के छह इन्द्रियाँ होती हैं उसी तरह राजा नहुष के छह पुत्र थे जिनके नाम थे यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति तथा कृति।

श्लोक 2: जब कोई मनुष्य राजा या सरकार के अध्यक्ष के पद को ग्रहण करता है तो वह आत्म- साक्षात्कार का अर्थ नहीं समझ पाता। यह जानकर, नहुष के सबसे बड़े पुत्र यति ने शासन सँभालना स्वीकार नहीं किया यद्यपि उसके पिता ने राज्य को उसे ही सौंपा था।

श्लोक 3: चूँकि ययाति के पिता नहुष ने इन्द्र की पत्नी शची को छेड़ा था, अतएव शची के अगस्त्य तथा अन्य ब्राह्मणों से शिकायत करने पर इन ब्राह्मणों ने नहुष को शाप दिया कि वह स्वर्ग से गिरकर अजगर बन जाय। फलत: ययाति राजा बना।

श्लोक 4: राजा ययाति के चार छोटे भाई थे जिन्हें उसने चारों दिशाओं में शासन चलाने की अनुमति दे दी थी। ययाति ने शुक्राचार्य की बेटी देवयानी से एवं वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह किया और वह सारी पृथ्वी पर शासन करने लगा।

श्लोक 5: महाराज परीक्षित ने कहा : शुक्राचार्य अत्यन्त शक्तिशाली ब्राह्मण थे और महाराज ययाति क्षत्रिय थे। अतएव मैं यह जानने का इच्छुक हूँ कि ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के बीच यह प्रतिलोम विवाह कैसे सम्पन्न हुआ?

श्लोक 6-7: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एकबार वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा, जो अबोध, किन्तु स्वभाव से क्रोधी थी, शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी तथा उसकी सैकड़ों सखियों के साथ राजमहल के बगीचे में घूम रही थी। यह बगीचा कमलिनियों तथा फूल-फल के वृक्षों से पूर्ण था और उसमें मधुर गीत गाते पक्षी तथा भौरें निवास कर रहे थे।

श्लोक 8: जब तरुणी, कमलनयनी लड़कियाँ जलाशय के तीर पर आईं तो उन्होंने स्नान का आनन्द लेना चाहा। फलत: किनारे पर अपने वस्त्र रखकर वे एक दूसरे पर जल उछाल कर जल-क्रीड़ा करने लगीं।

श्लोक 9: जलक्रीड़ा करते हुए लड़कियों ने सहसा शिवजी को ऊपर से जाते देखा जो अपने बैल की पीठ पर अपनी पत्नी पार्वती समेत आसीन थे। नंगी होने के कारण लज्जित वे लड़कियाँ तुरन्त जल से बाहर निकल आईं और उन्होंने अपने वस्त्रों से अपने-अपने शरीर ढक लिये।

श्लोक 10: शर्मिष्ठा ने अनजाने ही देवयानी का वस्त्र पहन लिया जिससे देवयानी को क्रोध आ गया और वह इस प्रकार बोली।

श्लोक 11: अरे जरा देखो न इस दासी शर्मिष्ठा की करतूतों को, इसने सारे शिष्टाचार को ताक पर रखकर मेरे वस्त्र धारण कर लिये हैं मानो यज्ञ के निमित्त रखे घी को कोई कुत्ता छीन ले।

श्लोक 12-14: हम उन योग्य ब्राह्मणों में से हैं जिन्हें भगवान् का मुख माना गया है। ब्राह्मणों ने अपनी तपस्या से समग्र विश्व को उत्पन्न किया है और वे परम सत्य को अपने अन्त:करण में सदैव धारण करते हैं। उन्होंने सौभाग्य के पथ का निर्देशन किया है जो कि वैदिक सभ्यता का पथ है। वे इस जगत में एकमात्र पूजनीय हैं अतएव उनकी स्तुति की जाती है और विभिन्न लोकों के नायक बड़े से बड़े देवता भी उनकी पूजा करते हैं—यहाँ तक कि सब को पवित्र करने वाले, लक्ष्मी देवी के पति, परमात्मा द्वारा भी वे पूजित हैं और हम तो इसलिए भी अधिक पूज्य हैं क्योंकि हम भृगुवंशी हैं। यद्यपि इस स्त्री का पिता असुर होकर हमारा शिष्य है तो भी इसने मेरे वस्त्र को उसी तरह धारण कर लिया है जिस तरह कोई शूद्र वैदिक ज्ञान का भार सँभाले।

श्लोक 15: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : शर्मिष्ठा को जब इस तरह कठोर शब्दों से डाँटा गया तो वह अत्यधिक क्रुद्ध हो उठी। सर्पिणी की तरह गहरी साँस छोड़ती और अपने निचले होठ को अपने दाँतों से चबाती वह शुक्राचार्य की पुत्री से इस तरह बोली।

श्लोक 16: अरे भिखारिन, जब तुम्हें अपनी स्थिति का पता नहीं है तो व्यर्थ ही क्यों इतना बोल रही हो? क्या तुम लोग अपनी जीविका के लिए हम पर आश्रित रहकर कौवों की भाँति हमारे घर पर प्रतीक्षा नहीं करते हो?

श्लोक 17: ऐसे अप्रिय वचनों का उपयोग करते हुए शर्मिष्ठा ने शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को फटकारा। उसने क्रोध में आकर देवयानी के वस्त्र छीन लिए और उसे एक कुएँ में धकेल दिया।

श्लोक 18: देवयानी को कुएँ में धकेल कर शर्मिष्ठा अपने घर चली गई। तभी शिकार के लिए निकला राजा ययाति उस कुएँ पर पानी पीने के लिए आया और संयोगवश देवयानी को देखा।

श्लोक 19: देवयानी को कुएँ में नग्न देखकर राजा ययाति ने तुरन्त ही अपना ऊपरी वस्त्र उसे दे दिया। उस पर अत्यन्त दयालु होकर उसने अपने हाथ से उसका हाथ पकड़ कर उसे बाहर निकाला।

श्लोक 20-21: देवयानी प्रेमसिक्त शब्दों में राजा ययाति से बोली “हे परम वीर! हे राजा! हे शत्रुओं के नगरों के विजेता! आपने मेरा हाथ थामकर मुझे अपनी विवाहिता पत्नी के रूप में स्वीकार किया है। अब मुझे कोई दूसरा नहीं छूने पाये क्योंकि हमारा यह पति-पत्नी का सम्बन्ध भाग्य द्वारा सम्भव हो सका है, किसी व्यक्ति द्वारा नहीं।

श्लोक 22: “कुएँ में गिर जाने के कारण मैं आपसे मिली। निस्सन्देह, यह विधि का विधान था। जब मैंने प्रकाण्ड विद्वान बृहस्पति के पुत्र कच को शाप दिया तो उसने मुझे यह शाप दिया कि तुझे ब्राह्मण पति नहीं प्राप्त हो सकेगा। अतएव हे महाभुज! मेरे किसी ब्राह्मण की पत्नी बनने की कोई सम्भावना नहीं है।”

श्लोक 23: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : चूँकि शास्त्रों द्वारा ऐसे विवाह की अनुमति नहीं है अतएव राजा ययाति को यह अच्छा नहीं लगा, किन्तु विधाता द्वारा व्यवस्थित होने तथा देवयानी के सौन्दर्य के प्रति आकृष्ट होने से उसने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

श्लोक 24: तत्पश्चात् जब विद्वान राजा अपने महल को वापस चला गया तो देवयानी रोती हुई घर लौटी और उसने अपने पिता शुक्राचार्य को शर्मिष्ठा के कारण घटी सारी घटना कह सुनाई। उसने बतलाया कि वह किस तरह कुएँ में धकेली गयी थी किन्तु एक राजा द्वारा बचा ली गई।

श्लोक 25: जब शुक्राचार्य ने देवयानी के साथ घटी घटना सुनी तो वे मन में अत्यन्त दुखी हुए। पुरोहिती वृत्ति को धिक्कारते एवं उञ्छवृत्ति (खेत से अन्न बीनने) की प्रशंसा करते हुए उन्होंने पुत्री सहित अपना घर छोड़ दिया।

श्लोक 26: राजा वृषपर्वा समझ गया कि शुक्राचार्य उसे प्रताडि़त करने या शाप देने आ रहे हैं। फलस्वरूप, इसके पूर्व कि शुक्राचार्य उसके महल में आयें, वृषपर्वा बाहर आ गया और मार्ग में ही अपने गुरु के चरणों पर गिर पड़ा तथा उनके रोष को रोकते हुए उन्हें प्रसन्न कर लिया।

श्लोक 27: शक्तिशाली शुक्राचार्य कुछ क्षणों तक क्रुद्ध रहे, किन्तु प्रसन्न हो जाने पर उन्होंने वृषपर्वा से कहा: हे राजन, देवयानी की इच्छा पूरी कीजिये क्योंकि वह मेरी पुत्री है और मैं इस संसार में न तो उसे छोड़ सकता हूँ न उसकी उपेक्षा कर सकता हूँ।

श्लोक 28: शुक्राचार्य के निवेदन को सुनकर वृषपर्वा देवयानी की मनोकामना पूरी करने के लिए राजी हो गया और वह उसके वचनों की प्रतीक्षा करने लगा। तब देवयानी ने अपनी इच्छा इस प्रकार व्यक्त की, “जब भी मैं अपने पिता की आज्ञा से विवाह करूँ तो मेरी सखी शर्मिष्ठा अपनी सखियों समेत मेरी दासी के रूप में मेरे साथ चले।”

श्लोक 29: वृषपर्वा ने बुद्धिमानी के साथ सोचा कि शुक्राचार्य की अप्रसन्नता से संकट आ सकता है और उनकी प्रसन्नता से भौतिक लाभ प्राप्त हो सकता है। अतएव उसने शुक्राचार्य का आदेश शिरोधार्य किया और दास की तरह उनकी सेवा की। उसने अपनी पुत्री शर्मिष्ठा को देवयानी को सौंप दिया और शर्मिष्ठा ने अपनी अन्य हजारों सखियों सहित दासी की तरह उसकी सेवा की।

श्लोक 30: जब शुक्राचार्य ने देवयानी का विवाह ययाति से कर दिया तो उसने शर्मिष्ठा को भी उसके साथ जाने दिया लेकिन राजा को चेतावनी दी “हे राजन, इस शर्मिष्ठा को कभी अपनी सेज में अपने साथ शयन करने की अनुमति मत देना।”

श्लोक 31: हे राजा परीक्षित, देवयानी के सुन्दर पुत्र को देखकर एक बार शर्मिष्ठा संभोग के लिए उचित अवसर पर राजा ययाति के पास पहुँची। उसने एकान्त में अपनी सखी देवयानी के पति राजा ययाति से प्रार्थना की कि उसे भी पुत्रवती बनायें।

श्लोक 32: जब राजकुमारी शर्मिष्ठा ने राजा ययाति से पुत्र के लिए याचना की तो अपने धर्म से अवगत राजा उसकी इच्छा पूरी करने के लिए राजी हो गया। यद्यपि उसे शुक्राचार्य की चेतावनी स्मरण थी, किन्तु इस मिलन को परमेश्वर की इच्छा मानकर उसने शर्मिष्ठा के साथ संभोग किया।

श्लोक 33: देवयानी ने यदु तथा तुर्वसु को जन्म दिया और शर्मिष्ठा ने द्रुह्यु, अनु तथा पुरु को जन्म दिया।

श्लोक 34: जब गर्वीली देवयानी बाहरी स्रोतों से जान गई कि शर्मिष्ठा उसके पति से गर्भवती हुई है तो वह क्रोध से मूर्छित हो उठी और वह अपने पिता के घर (मायके) चली गई।

श्लोक 35: चूँकि राजा ययाति अत्यन्त विषयी था अतएव वह अपनी पत्नी के पीछे-पीछे हो लिया। उसने उसे पकड़ कर मीठे शब्द कहे तथा उसके पाँव दबाकर उसे प्रसन्न करने का प्रयास किया, किन्तु वह उसे किसी भी तरह मना न पाया।

श्लोक 36: शुक्राचार्य अत्यन्त क्रुद्ध थे। उन्होंने कहा, “अरे झूठे! मूर्ख! स्त्रीकामी! तुमने बहुत बड़ी गलती की है। अतएव मैं शाप देता हूँ कि तुम पर बुढ़ापा तथा अशक्तता का आक्रमण हो जिससे तुम कुरूप बन जाओ।”

श्लोक 37: राजा ययाति ने कहा : “हे विद्वान पूज्य ब्राह्मण, अभी भी तुम्हारी पुत्री के साथ मेरी कामेच्छाएँ पूरी नहीं हुईं।” तब शुक्राचार्य ने उत्तर दिया, “चाहो तो तुम अपने बुढ़ापे को किसी ऐसे व्यक्ति से बदल लो जो तुम्हें अपनी युवावस्था देने को तैयार हो।”

श्लोक 38: जब ययाति को शुक्राचार्य से यह वर प्राप्त हो गया तो उसने अपने सबसे बड़े पुत्र से अनुरोध किया, “हे पुत्र यदु, तुम मेरी वृद्धावस्था तथा अशक्तता के बदले में मुझे अपनी जवानी दे दो।”

श्लोक 39: “हे पुत्र, मैं अपनी विषयेच्छाओं से अभी भी तुष्ट नहीं हो पाया। किन्तु यदि तुम मुझ पर दया करो तो अपने नाना द्वारा प्रदत्त बुढ़ापे को ले सकते हो तथा अपनी जवानी मुझे दे सकते हो जिससे मैं कुछ वर्ष और जीवन का भोग कर लूँ।”

श्लोक 40: यदु ने उत्तर दिया: हे पिताजी, यद्यपि आप भी तरुण पुरुष थे, किन्तु आपने वृद्धावस्था प्राप्त कर ली है। किन्तु मुझे आपका बुढ़ापा तथा जर्जरता तनिक भी मान्य नहीं है क्योंकि भौतिक सुख का भोग किये बिना कोई विरक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।

श्लोक 41: हे महाराज परीक्षित, ययाति ने इसी तरह अन्य पुत्रों सेतुर्वसु, द्रुह्यु तथा अनु से वृद्धावस्था के बदले अपनी जवानी देने के लिए निवेदन किया लेकिन वे सभी अधर्मज्ञ थे इसलिए उन्होंने सोचा कि उनकी नाशवान जवानी शाश्वत है अतएव उन्होंने अपने पिता के आदेश को मानने से मना कर दिया।

श्लोक 42: तत्पश्चात् राजा ययाति ने पूरु से, जो अपने इन तीनों भाइयों से उम्र में छोटा था किन्तु अधिक योग्य था, इस तरह निवेदन किया, “हे पुत्र, तुम अपने बड़े भाइयों की तरह अवज्ञाकारी मत बनो क्योंकि यह तुम्हारा कर्तव्य नहीं है।”

श्लोक 43: पूरु ने उत्तर दिया, “हे महाराज, ऐसा कौन होगा जो अपने पिता के ऋण से उऋण हो सके? पिता की ही कृपा से मनुष्य को मनुष्य-जीवन प्राप्त होता है जिससे वह भगवान् का संगी बनने में सक्षम हो सकता है।

श्लोक 44: “जो पुत्र अपने पिता की इच्छा को जानकर उसी के अनुसार कर्म करता है वह प्रथम श्रेणी का (उत्तम) होता है; जो अपने पिता की आज्ञा पाकर कार्य करता है वह द्वितीय श्रेणी का (मध्यम) होता है और जो पुत्र अपने पिता के आदेश का पालन अनादरपूर्वक करता है वह तृतीय श्रेणीका (अधम) होता है। किन्तु जो पुत्र अपने पिता की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह अपने पिता के मल के समान है।”

श्लोक 45: शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, इस तरह पूरु अपने पिता ययाति की वृद्धावस्था को ग्रहण करके अत्यन्त हर्षित था। पिता ने अपने पुत्र की जवानी ग्रहण कर ली और फिर इच्छानुसार इस भौतिक जगत का भोग किया।

श्लोक 46: तत्पश्चात् राजा ययाति सात द्वीपों वाले विश्व का शासक बन गया और प्रजा पर पिता के समान शासन करने लगा। चूँकि उसने अपने पुत्र की जवानी ले ली थी अतएव उसकी इन्द्रियाँ अक्षत थीं और उसने जी भरकर भौतिक सुख का भोग किया।

श्लोक 47: महाराज ययाति की प्रेयसी देवयानी अपने मन, वचन, शरीर तथा विविध सामग्री से सदैव एकान्त में अपने पति को यथासम्भव दिव्य परमानन्द प्रदान करती रही।

श्लोक 48: राजा ययाति ने विविध यज्ञ सम्पन्न किये और उनमें उन्होंने समस्त देवताओं के आगार एवं समस्त वैदिक ज्ञान के लक्ष्य भगवान् हरि को तुष्ट करने के लिए ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणाएँ दीं।

श्लोक 49: भगवान् वासुदेव, जिन्होंने विराट जगत की सृष्टि की है, अपने को सर्वव्यापक रूप में प्रकट करते हैं जिस तरह आकाश बादलों को धारण करता है। जब इस सृष्टि का संहार हो जाता है तब सारी वस्तुएँ भगवान् विष्णु में प्रवेश करती हैं और सारे भेद-प्रभेद समाप्त हो जाते हैं।

श्लोक 50: महाराज ययाति ने उन भगवान् की निष्काम भाव से पूजा की जो हर एक के हृदय में नारायण रूप में स्थित हैं और सर्वत्र विद्यमान रहकर भी आँखों से अदृश्य रहते हैं।

श्लोक 51: यद्यपि महाराज ययाति सारे विश्व के राजा थे और उन्होंने एक हजार वर्षों तक अपने मन तथा पाँच इन्द्रियों को भौतिक सम्पत्ति को भोगने में लगाया, किन्तु वे सन्तुष्ट नहीं हो सके।

अध्याय 19: राजा ययाति को मुक्ति-लाभ

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, ययाति स्त्री पर अत्यधिक अनुरक्त था। किन्तु कालक्रम से जब वह विषय-भोग तथा इसके बुरे प्रभावों से ऊब गया तो उसने यह जीवन-शैली त्याग दी और अपनी प्रिय पत्नी को निम्नलिखित कहानी सुनाई।

श्लोक 2: हे मेरी प्रिय पत्नी एवं शुक्राचार्य की बेटी, इस संसार में बिल्कुल मेरी ही तरह का कोई था। तुम मेरे द्वारा कही जा रही उसके जीवन की कथा सुनो। ऐसे गृहस्थ के जीवन के विषय में सुनकर वे लोग सदैव पछताते हैं जिन्होंने गृहस्थ जीवन से वैराग्य ले लिया है।

श्लोक 3: एक बकरा अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करने के लिए चरते हुए किसी जंगल में घूमते-घूमते अचानक एक कुएँ के पास आया जिसके भीतर उसने एक बकरी को निस्सहाय खड़ी देखा जो अपने सकाम कर्मों के प्रभाव से कुएँ में गिर गई थी।

श्लोक 4: बकरी को कुएँ से बाहर निकालने की योजना बनाकर, विषयी बकरे ने अपने तीखे सींगों से कुएँ के किनारे की मिट्टी खोद डाली जिससे वह बकरी कुएँ से बाहर सरलता से निकल सकी।

श्लोक 5-6: जब सुन्दर पुट्ठों वाली बकरी कुएँ से बाहर आ गई और उसने अत्यन्त सुन्दर बकरे को देखा तो उसने उसे अपना पति बनाना चाहा। जब उसने ऐसा कर लिया तो अन्य अनेक बकरियों ने भी उस बकरे को अपना पति बनाना चाहा क्योंकि उसका शारीरिक गठन अत्यन्त सुन्दर था, उसकी मूँछ तथा दाढ़ी सुन्दर थी और वह वीर्यस्खलन करने तथा संभोग कला में पटु था। अतएव, जिस तरह भूत से सताया गया मनुष्य पागलपन दिखलाता है उसी तरह वह श्रेष्ठ बकरा अनेक बकरियों से आकृष्ट होकर तथा अश्लील कार्यों में लिप्त रहने के कारण आत्म-साक्षात्कार के अपने असली कार्य को भूल गया।

श्लोक 7: जब उस बकरी ने, जो कुएँ में गिरी थी, देखा कि उसका प्रियतम बकरा किसी दूसरी बकरी से संभोग कर रहा है तो वह बकरे के इस कार्य को सहन नहीं कर पाई।

श्लोक 8: अन्य बकरी के साथ अपने पति के इस आचरण से दुखी उस बकरी ने सोचा कि यह बकरा उसका वास्तविक मित्र नहीं अपितु कठोरहृदय वाला तथा कुछ क्षण के लिए ही मित्र है। अतएव अपने पति के कामी होने के कारण उस बकरी ने उसका साथ छोड़ दिया और अपने पहले वाले स्वामी के पास लौट गई।

श्लोक 9: वह बकरा अत्यन्त दुखी होकर अपनी पत्नी का चाटुकार होने के कारण मार्ग में उसके पीछे पीछे हो लिया और उसने उसकी भरसक चाटुकारी करनी चाही, किन्तु वह उसे मना नहीं पाया।

श्लोक 10: बकरी उस ब्राह्मण के घर गई जो एक दूसरी बकरी का मालिक था और उस ब्राह्मण ने गुस्से में आकर बकरे के लम्बे लटकते अण्डकोष काट लिये। किन्तु बकरे द्वारा प्रार्थना किये जाने पर उस ब्राह्मण ने योगशक्ति से उन्हें फिर से जोड़ दिया।

श्लोक 11: हे प्रिये, जब बकरे के अण्डकोष जुड़ गये तो उसने कुएँ से मिली बकरी के साथ सम्भोग किया और यद्यपि वह अनेकानेक वर्षों तक भोग करता रहा, किन्तु आज भी वह पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं हो पाया है।

श्लोक 12: हे सुन्दर भौहों वाली प्रिये, मैं उसी बकरे के सदृश हूँ क्योंकि मैं इतना मन्दबुद्धि हूँ कि मैं तुम्हारे सौन्दर्य से मोहित होकर आत्म-साक्षात्कार के असली कार्य को भूल गया हूँ।

श्लोक 13: कामी पुरुष का मन कभी तुष्ट नहीं होता भले ही उसे इस संसार की हर वस्तु प्रचुर मात्रा में उपलब्ध क्यों न हो, जैसेकि धान, जौ, अन्य अनाज, सोना, पशु तथा स्त्रियाँ इत्यादि। उसे किसी वस्तु से संतोष नहीं होता।

श्लोक 14: जिस तरह अग्नि में घी डालने से अग्नि शान्त नहीं होती अपितु अधिकाधिक बढ़ती जाती है उसी प्रकार निरन्तर भोग द्वारा कामेच्छाओं को रोकने का प्रयास कभी भी सफल नहीं हो सकता। (तथ्य तो यह है कि मनुष्य को स्वेच्छा से भौतिक इच्छाएँ समाप्त करनी चाहिए।)

श्लोक 15: जब मनुष्य द्वेष-रहित होता है और किसी का बुरा नहीं चाहता तो वह समदर्शी होता है। ऐसे व्यक्ति के लिए सारी दिशाएँ सुखमय प्रतीत होती हैं।

श्लोक 16: जो लोग भौतिक भोग में अत्यधिक लिप्त रहते हैं उनके लिए इन्द्रियतृप्ति को त्याग पाना अत्यन्त कठिन है। यहाँ तक कि वृद्धावस्था के कारण अशक्त व्यक्ति भी इन्द्रियतृप्ति की ऐसी इच्छाओं को नहीं त्याग पाता। अतएव जो सचमुच सुख चाहता है उसे ऐसी अतृप्त इच्छाओं को त्याग देना चाहिए क्योंकि ये सारे कष्टों की जड़ हैं।

श्लोक 17: मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी माता, बहन या पुत्री के साथ एक ही आसन पर न बैठे क्योंकि इन्द्रियाँ इतनी प्रबल होती हैं कि बड़े से बड़ा विद्वान भी यौन द्वारा आकृष्ट हो सकता है।

श्लोक 18: मैंने इन्द्रियतृप्ति के भोगने में पूरे एक हजार वर्ष बिता दिये हैं फिर भी ऐसे आनन्द को भोगने की मेरी इच्छा नित्य बढ़ती जाती है।

श्लोक 19: अतएव अब मैं इन सारी इच्छाओं को त्याग दूँगा और भगवान् का ध्यान करूँगा। मनोरथों के द्वन्द्वों से तथा मिथ्या अहंकार से रहित होकर मैं जंगल में पशुओं के साथ विचरण करूँगा।

श्लोक 20: जो यह जानता है कि भौतिक सुख चाहे अच्छा हो या बुरा, इस जीवन में हो या अगले जीवन में, इस लोक में हो या स्वर्गलोक में हो, क्षणिक तथा व्यर्थ है और यह जानता है कि बुद्धिमान पुरुष को ऐसी वस्तुओं को भोगने या सोचने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। वह मनुष्य आत्मज्ञानी है। ऐसा स्वरूपसिद्ध व्यक्ति भलीभाँति जानता है कि भौतिक सुख बारम्बार जन्म एवं अपनी स्वाभाविक स्थिति के विस्मरण का एकमात्र कारण है।

श्लोक 21: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपनी पत्नी देवयानी से इस प्रकार कहकर समस्त इच्छाओं से मुक्त हुए राजा ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पूरु को बुलाया और उसे उसकी जवानी लौटाकर अपना बुढ़ापा वापस ले लिया।

श्लोक 22: राजा ययाति ने अपने पुत्र द्रुह्यु को दक्षिण पूर्व की दिशा, अपने पुत्र यदु को दक्षिण की दिशा, अपने पुत्र तुर्वसु को पश्चिमी दिशा और अपने चौथे पुत्र अनु को उत्तरी दिशा दे दी। इस तरह उन्होंने राज्य का बँटवारा कर दिया।

श्लोक 23: ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पूरु को सारे विश्व का सम्राट तथा सारी सम्पत्ति का स्वामी बना दिया और पूरु से बड़े अपने अन्य सारे पुत्रों को पूरु के अधीन कर दिया।

श्लोक 24: हे राजा परीक्षित, ययाति ने अनेकानेक वर्षों तक विषयवासनाओं का भोग किया, क्योंकि वे इसके आदी थे, किन्तु उन्होंने एक क्षण के भीतर अपना सर्वस्व त्याग दिया जिस तरह पंख उगते ही पक्षी अपने घोंसले से उड़ जाता है।

श्लोक 25: चूँकि राजा ययाति ने भगवान् वासुदेव के चरणकमलों में पूरी तरह अपने को समर्पित कर दिया था अतएव वे प्रकृति के गुणों के सारे कल्मष से मुक्त हो गये। अपने आत्मसाक्षात्कार के कारण वे अपने मन को परब्रह्म वासुदेव में स्थिर कर सके और इस तरह अन्तत: उन्हें भगवान् के पार्षद का पद प्राप्त हुआ।

श्लोक 26: जब देवयानी ने महाराज ययाति द्वारा कही गई बकरे-बकरी की कथा सुनी तो वह समझ गयी कि हास-परिहास के रूप में पति-पत्नी के मध्य मनोरंजनार्थ कही गई यह कथा उसमें उसकी स्वाभाविक स्थिति को जागृत करने के निमित्त थी।

श्लोक 27-28: तत्पश्चात् शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी समझ गई कि पति, मित्रों तथा सम्बन्धियों का सांसारिक साथ प्याऊ में यात्रियों की संगति के समान है। भगवान् की माया से समाज के सम्बन्ध, मित्रता तथा प्रेम ठीक स्वप्न की ही भाँति उत्पन्न होते हैं। कृष्ण के अनुग्रह से देवयानी ने भौतिक जगत की अपनी काल्पनिक स्थिति छोड़ दी। उसने अपने मन को पूरी तरह कृष्ण में स्थिर कर दिया और स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों से मोक्ष प्राप्त कर लिया।

श्लोक 29: हे भगवान् वासुदेव, हे पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर, आप समस्त विराट जगत के स्रष्टा हैं। आप सबों के हृदय में परमात्मा रूप में निवास करते हैं और सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतर होते हुए भी बृहत्तम से बृहत्तर हैं तथा सर्वव्यापक हैं। आप परम शान्त लगते हैं मानो आपको कुछ करना-धरना न हो लेकिन ऐसा आपके सर्वव्यापक स्वभाव एवं सर्व ऐश्वर्य से पूर्ण होने के कारण है। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ।

अध्याय 20: पूरु का वंश

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज भरत के वंशज महाराज परीक्षित, अब मैं पूरु के वंश का वर्णन करूँगा जिसमें तुम उत्पन्न हुए हो, जिसमें अनेक राजर्षि हुए हैं, जिनसे अनेक ब्राह्मण वंशों का प्रारम्भ हुआ है।

श्लोक 2: पूरु के ही इस वंश में राजा जनमेजय उत्पन्न हुआ। उसका पुत्र प्रचिन्वान था और उसका पुत्र था प्रवीर। तत्पश्चात् प्रवीर का पुत्र मनुस्यु हुआ जिसका पुत्र चारुपद था।

श्लोक 3: चारुपद का पुत्र सुद्यु था और सुद्यु का पुत्र बहुगव था। बहुगव का पुत्र संयाति था, जिससे अहंयाति नामक पुत्र हुआ और फिर उससे रौद्राश्व उत्पन्न हुआ।

श्लोक 4-5: रौद्राश्व के दस पुत्र थे जिनके नाम ऋतेयु, कक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयुक, जलेयु, सन्नतेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु तथा वनेयु थे। इन दसों में वनेयु सबसे छोटा था। ये दसों पुत्र रौद्राश्व के पूर्ण नियंत्रण में उसी प्रकार कार्य करते थे जिस तरह विश्वात्मा से उत्पन्न दसों इन्द्रियाँ प्राण के नियंत्रण में कार्य करती हैं। ये सभी घृताची नामक अप्सरा से उत्पन्न हुए थे।

श्लोक 6: ऋतेयु से रन्तिनाव नामक पुत्र हुआ जिसके तीन पुत्र हुए जिनके नाम थे सुमति, ध्रुव तथा अप्रतिरथ। अप्रतिरथ के एकमात्र पुत्र का नाम कण्व था।

श्लोक 7: कण्व का पुत्र मेधातिथि था जिसके सारे पुत्र ब्राह्मण थे और उनमें प्रमुख प्रस्कन्न था। रन्तिनाव का पुत्र सुमति, सुमति का पुत्र रेभि और रेभि का पुत्र था महाराज दुष्मन्त।

श्लोक 8-9: एक बार जब राजा दुष्मन्त शिकार करने जंगल गया और अत्यधिक थक गया तो वह महाराज कण्व के आश्रम में जा पहुँचा। वहाँ उसने एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री देखी जो लक्ष्मी जी के समान लग रही थी और वहाँ अपने तेज से सारे आश्रम को प्रकाशित करती हुई बैठी थी। स्वभावत: राजा उसके सौन्दर्य से आकृष्ट हो गया अतएव वह अपने कुछ सैनिकों के साथ उसके पास गया और उससे बोला।

श्लोक 10: उस सुन्दर स्त्री को देखकर राजा अत्यधिक हर्षित हुआ और शिकार-भ्रमण से उत्पन्न उसकी सारी थकावट जाती रही। वह निस्सन्देह कामेच्छाओं के कारण अत्यधिक आकृष्ट था अतएव उसने हँसी हँसी में उससे इस प्रकार पूछा।

श्लोक 11: हे सुन्दर कमल नयनों वाली, तुम कौन हो? तुम किसकी पुत्री हो? इस एकान्त वन में तुम्हारा क्या कार्य है? तुम यहाँ क्यों रह रही हो?

श्लोक 12: हे अतीव सुन्दरी, मुझे ऐसा लगता है कि तुम किसी क्षत्रिय की पुत्री हो। चूँकि मैं पूरुवंशी हूँ अतएव मेरा मन कभी भी अधार्मिक रीति से किसी वस्तु का भोग करने की चेष्टा नहीं करता।

श्लोक 13: शकुन्तला ने कहा : मैं विश्वामित्र की पुत्री हूँ। मेरी माता मेनका ने मुझे जंगल में छोड़ दिया था। हे वीर, अत्यन्त शक्तिशाली सन्त कण्व मुनि इसके विषय में सब कुछ जानते हैं। अब आप कहिए कि मैं आपकी किस तरह सेवा करूँ?

श्लोक 14: हे कमल जैसे नेत्रों वाले राजा, कृपया बैठ जायें और हमारे यथासम्भव आतिथ्य को स्वीकार करें। हमारे पास नीवार चावल हैं जिन्हें आप ग्रहण कर सकते हैं और यदि आप चाहें तो बिना किसी हिचक के यहाँ रुक सकते हैं।

श्लोक 15: राजा दुष्मन्त ने उत्तर दिया: हे सुन्दर भौहों वाली शकुन्तला, तुमने महर्षि विश्वामित्र के कुल में जन्म लिया है और तुम्हारा आतिथ्य तुम्हारे कुल के अनुरूप है। इसके अतिरिक्त राजा की कन्याएँ सामान्यतया अपना वर स्वयं चुनती हैं।

श्लोक 16: जब शकुन्तला महाराज दुष्मन्त के प्रस्ताव पर मौन रही तो सहमति पूर्ण हो गई। तब विवाह के नियमों को जानने वाले राजा ने तुरन्त ही वैदिक प्रणव (ओङ्कार) का उच्चारण किया, जैसा कि गन्धर्वों में विवाह के अवसर पर किया जाता है।

श्लोक 17: अमोघवीर्य राजा दुष्मन्त ने रात्रि में अपनी रानी शकुन्तला के गर्भ में वीर्य स्थापित किया और प्रात: होते ही अपने महल को लौट गया। तत्पश्चात् समयानुसार शकुन्तला ने एक पुत्र को जन्म दिया।

श्लोक 18: कण्व मुनि ने वन में नवजात शिशु के सारे संस्कार सम्पन्न किये। बाद में यह बालक इतना बलवान बन गया कि वह किसी सिंह को पकड़ कर उसके साथ खेलता था।

श्लोक 19: सुन्दरियों में श्रेष्ठ शकुन्तला अपने पुत्र को, जो दुर्दमनीय था तथा भगवान् का अंशावतार था, अपने साथ लेकर अपने पति दुष्मन्त के पास गई।

श्लोक 20: जब राजा ने अपनी निर्दोष पत्नी तथा पुत्र दोनों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया तो आकाश से शकुन के रूप में एक अदृश्य आवाज सुनाई दी जिसे वहाँ उपस्थित सबों ने सुना।

श्लोक 21: आकाशवाणी ने कहा: हे महाराज दुष्मन्त, पुत्र वास्तव में अपने पिता का ही होता है जब कि माता मात्र चमड़े की धौंकनी के समान धारक होती है। वैदिक आदेशानुसार पिता पुत्र रूप में उत्पन्न होता है। अतएव तुम अपने पुत्र का पालन करो और शकुन्तला का अपमान न करो।

श्लोक 22: हे राजा दुष्मन्त, वीर्य स्थापित करने वाला ही असली पिता है और उसका पुत्र उसे यमराज के चंगुल से छुड़ाता है। आप इस बालक के असली स्रष्टा (जन्मदाता) हैं। शकुन्तला निस्सन्देह सत्य कह रही है।

श्लोक 23: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब महाराज दुष्मन्त इस पृथ्वी से चले गये तो उनका पुत्र सातों द्वीपों का स्वामी चक्रवर्ती राजा बना। वह इस संसार में भगवान् का अंशावतार बतलाया जाता है।

श्लोक 24-26: दुष्मन्त-पुत्र महाराज भरत के दाहिने हाथ की हथेली पर भगवान् कृष्ण के चक्र का चिन्ह था और उसके पैरों के तलवों में कमल कोश का चिन्ह था। वह महान् अनुष्ठान के द्वारा भगवान् की पूजा करके सारे विश्व का अधिपति तथा सम्राट बन गया। तब उसने मामतेय अर्थात् भृगु मुनि के पौरोहित्य में गंगा नदी के तट पर गंगा के अंतिम स्थान से लेकर उद्गम तक पचपन अश्वमेध यज्ञ किये। इसी तरह यमुना नदी के तट पर प्रयागराज के संगम से लेकर उद्गम स्थान तक अठहत्तर अश्वमेध यज्ञ किये। उसने सर्वोत्तम स्थान पर यज्ञ की अग्नि स्थापित की और अपनी विपुल सम्पत्ति ब्राह्मणों में वितरित कर दी। उसने इतनी गाएँ दान में दीं कि हजारों ब्राह्मणों में से हर एक को एक बद्व (१३०८४) गाएँ अपने हिस्से में मिलीं।

श्लोक 27: महाराज दुष्मन्त के पुत्र भरत ने उन यज्ञों के लिए ३३०० घोड़े बाँधकर अन्य सारे राजाओं को विस्मय में डाल दिया। उसने देवताओं के ऐश्वर्य को भी मात कर दिया क्योंकि उसे परम गुरु हरि प्राप्त हो गये थे।

श्लोक 28: जब महाराज भरत ने मष्णार नामक यज्ञ (या मष्णार नामक स्थान में यज्ञ) सम्पन्न किया तो उन्होंने दान में चौदह लाख श्रेष्ठ हाथी दिये जिनके दाँत सफेद थे और शरीर काले थे जो सुनहरे आभूषणों से ढके थे।

श्लोक 29: जिस तरह कोई व्यक्ति मात्र अपने बाहुबल से स्वर्ग नहीं पहुँच सकता (क्योंकि अपने बाहुओं से कोई स्वर्ग को कैसे छू सकता है?) उसी तरह कोई व्यक्ति महाराज भरत के अद्भुत कार्यों का अनुकरण नहीं कर सकता। कोई न तो भूतकाल में ऐसे कार्य कर सका है, न ही भविष्य में कोई ऐसा कर सकेगा।

श्लोक 30: जब भरत महाराज दौरे पर थे तो उन्होंने सारे किरातों, हूणों, यवनों, पौण्ड्रों, कंकों, खशों, शकों तथा ब्राह्मण संस्कृति के वैदिक नियमों के विरोधी राजाओं को परास्त किया या मार डाला।

श्लोक 31: प्राचीन काल में सारे असुरों ने देवताओं को जीतकर रसातल नामक अधोलोक में शरण ले रखी थी और वे सारे देवताओं की स्त्रियों एवं कन्याओं को भी वहीं ले आये थे। किन्तु भरत महाराज ने इन सभी स्त्रियों को उनके संगियों समेत असुरों के चुंगल से छुड़ाया और उन्हें देवताओं को वापस कर दिया।

श्लोक 32: महाराज भरत ने २७ हजार वर्षों तक इस पृथ्वी पर तथा स्वर्गलोकों में अपनी प्रजा की सारी आवश्यकताएँ पूरी कीं। उन्होंने सभी दिशाओं में अपने आदेश प्रसारित कर दिए और अपने सैनिक तैनात कर दिए।

श्लोक 33: समस्त विश्व के शासक के रूप में सम्राट भरत के पास महान् राज्य एवं अजेय सैनिकों का ऐश्वर्य था। उनके पुत्र तथा उनका परिवार उन्हें उनका जीवन प्रतीत होता था। किन्तु अन्तत: उन्होंने इन सबों को आध्यात्मिक प्रगति में बाधक समझा अतएव उन्होंने इनका भोग बन्द कर दिया।

श्लोक 34: हे राजा परीक्षित, महाराज भरत की तीन मनोहर पत्नियाँ थीं जो विदर्भ के राजा की पुत्रियाँ थीं। जब तीनों के सन्तानें हुईं तो वे राजा के समान नहीं निकलीं, अतएव इन पत्नियों ने यह सोचकर कि राजा उन्हें कृतघ्न रानियाँ समझकर त्याग देंगे, उन्होंने अपने अपने पुत्रों को मार डाला।

श्लोक 35: सन्तान के लिए जब राजा का प्रयास इस तरह विफल हो गया तो उसने पुत्रप्राप्ति के लिए मरुत्स्तोम नामक यज्ञ किया। सारे मरुत्गण उससे पूर्णतया सन्तुष्ट हो गये तो उन्होंने उसे भरद्वाज नामक पुत्र उपहार में दिया।

श्लोक 36: बृहस्पति देव ने अपने भाई की पत्नी ममता पर मोहित होने पर उसके गर्भवती होते हुए भी उसके साथ संभोग करना चाहा। उसके गर्भ के भीतर के पुत्र ने मना किया लेकिन बृहस्पति ने उसे शाप दे दिया और बलात् ममता के गर्भ में वीर्य स्थापित कर दिया।

श्लोक 37: ममता अत्यन्त भयभीत थी कि अवैध पुत्र उत्पन्न करने के कारण उसका पति उसे छोड़ सकता है अतएव उसने बालक को त्याग देने का विचार किया। लेकिन तब देवताओं ने उस बालक का नामकरण करके सारी समस्या हल कर दी।

श्लोक 38: बृहस्पति ने ममता से कहा, “अरी मूर्ख! यद्यपि यह बालक अन्य पुरुष की पत्नी और किसी दूसरे पुरुष के वीर्य से उत्पन्न हुआ है, किन्तु तुम इसका पालन करो।” यह सुनकर ममता ने उत्तर दिया, “अरे बृहस्पति, तुम इसको पालो।” ऐसा कहकर बृहस्पति तथा ममता उसे छोडक़र चले गये। इस तरह बालक का नाम भरद्वाज पड़ा।

श्लोक 39: यद्यपि देवताओं ने बालक को पालने के लिए प्रोत्साहित किया था, किन्तु ममता ने अवैध जन्म के कारण उस बालक को व्यर्थ समझ कर उसे छोड़ दिया। फलस्वरूप, मरुत्गण देवताओं ने बालक का पालन किया और जब महाराज भरत सन्तान के अभाव से निराश हो गए तो उन्हें यही बालक पुत्र-रूप में भेंट किया गया।

अध्याय 21: भरत का वंश

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा: चूँकि मरुत्गणों ने भरद्वाज को लाकर दिया था इसलिए वह वितथ कहलाया। वितथ के पुत्र का नाम मन्यु था जिसके पाँच पुत्र हुए—बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर तथा गर्ग। इन पाँचों में से नर के पुत्र का नाम संकृति था।

श्लोक 2: हे महाराज परीक्षित, हे पाण्डु वंशज, संकृति के दो पुत्र थे—गुरु तथा रन्तिदेव। रन्तिदेव इस लोक में तथा परलोक दोनों में ही विख्यात हैं क्योंकि उनकी महिमा का गान न केवल मानव समाज में अपितु देव समाज में भी होता है।

श्लोक 3-5: रन्तिदेव ने कभी कुछ भी कमाने का यत्न नहीं किया। उसे भाग्य से जो मिल जाता उसे ही भोगता, किन्तु जब अतिथि आ जाते तो वह हर वस्तु उन्हें दे देता था। इस तरह उसे तथा उसके साथ उसके परिवार के सदस्यों को काफी कष्ट सहना पड़ा। वह तथा उसके परिवार के लोग अन्न तथा जल के अभाव से गंभीर रहते थे फिर भी रन्तिदेव धीर बना रहता। एक बार अड़तालीस दिनों तक उपवास करने के बाद रन्तिदेव को प्रात:काल थोड़ा जल तथा घी और दूध से बने कुछ व्यंजन प्राप्त हुए, किन्तु जब वह तथा उसके परिवार वाले भोजन करने ही वाले थे तो एक ब्राह्मण अतिथि आ धमका।

श्लोक 6: चूँकि रन्तिदेव को सर्वत्र एवं हर जीव में भगवान् की उपस्थिति का बोध होता था अतएव वह बड़े ही श्रद्धा-सम्मान से अतिथि का स्वागत करता और उसे भोजन का अंश देता था। उस ब्राह्मण अतिथि ने अपना भाग खाया और फिर चला गया।

श्लोक 7: तत्पश्चात् शेष भोजन को अपने परिवार वालों मे बाँट देने के बाद रन्तिदेव अपना हिस्सा खाने जा ही रहे थे कि एक शूद्र अतिथि वहाँ आ गया। इस शूद्र को भगवान् से सम्बन्धित देखकर राजा रन्तिदेव ने उसे भी भोजन में से एक अंश दिया।

श्लोक 8: जब शूद्र चला गया तो एक दूसरा मेहमान आया जिसके साथ कुत्ते थे। उसने कहा, “हे राजा, मैं तथा मेरे साथ के ये कुत्ते अत्यन्त भूखे हैं। कृपया हमें कुछ खाने को दें।”

श्लोक 9: राजा रन्तिदेव ने अतिथि रूप में आये कुत्तों और कुत्तों के मालिक को अत्यन्त आदरपूर्वक बचा हुआ भोजन दे दिया। राजा ने उनका सभी प्रकार से आदर किया और नमस्कार किया।

श्लोक 10: तत्पश्चात् केवल पीने का जल ही बच रहा जो केवल एक व्यक्ति को संतुष्ट करने के लिए ही पर्याप्त था। किन्तु ज्योंही राजा जल पीने को हुआ कि एक चण्डाल वहाँ आया और कहने लगा, “हे राजा, मैं निम्नकुल में उत्पन्न (नीच) हूँ। कृपा करके मुझे पीने के लिए थोड़ा जल दें।”

श्लोक 11: बेचारे थके चण्डाल के दयनीय वचनों को सुनकर दुखित महाराज रन्तिदेव ने इस प्रकार के अमृततुल्य वचन कहे।

श्लोक 12: मैं ईश्वर से न तो योग की अष्ट सिद्धियों के लिए प्रार्थना करता हूँ न जन्म-मृत्यु के चक्र से मोक्ष की कामना करता हूँ। मैं सारे जीवों के बीच निवास करके उनके लिए सारे कष्टों को भोगना चाहता हूँ जिससे वे कष्ट से मुक्त हो सकें।

श्लोक 13: जीवन के लिए संघर्ष करते हुए बेचारे चण्डाल की जान बचाने के लिए अपना जल देकर मैं सारी भूख, प्यास, थकान, शरीर-कम्पन, खिन्नता, क्लेश, संताप तथा मोह से मुक्त हो गया हूँ।

श्लोक 14: इस तरह कहकर प्यास के मारे मरते हुए राजा रन्तिदेव ने बिना किसी हिचक के अपने हिस्से का जल चण्डाल को दे दिया क्योंकि राजा स्वभाव से अत्यन्त दयालु तथा शान्त था।

श्लोक 15: तत्पश्चात् लोगों को इच्छित फल देकर उनकी सारी भौतिक इच्छाओं को पूरा करने वाले ब्रह्माजी तथा शिवजी जैसे देवताओं ने राजा रन्तिदेव के समक्ष अपना स्वरूप प्रकट किया क्योंकि वे ही ब्राह्मण, शूद्र, चण्डाल इत्यादि के रूप में उनके पास आये थे।

श्लोक 16: राजा रन्तिदेव को देवताओं से किसी प्रकार का भौतिक लाभ प्राप्त करने की कोई आकांक्षा न थी। उसने उन्हें प्रणाम किया, किन्तु भगवान् विष्णु या वासुदेव में अनुरक्त होने के कारण उसने अपने मन को भगवान् विष्णु के चरणकमलों में स्थिर कर लिया।

श्लोक 17: हे महाराज परीक्षित, चूँकि राजा रन्तिदेव शुद्ध भक्त, सदैव कृष्णभावनाभावित तथा पूर्णरूपेण निष्काम था अतएव भगवान् की माया उसके समक्ष प्रकट नहीं हो सकी। उल्टे, माया स्वप्न के समान पूरी तरह नष्ट हो गई।

श्लोक 18: जिन लोगों ने राजा रन्तिदेव के सिद्धान्तों का पालन किया उन सबों को उनकी कृपा प्राप्त हुई और वे भगवान् नारायण के शुद्ध भक्त बन गये। इस तरह वे सभी श्रेष्ठ योगी बन गये।

श्लोक 19-20: गर्ग से शिनि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका पुत्र गार्ग्य हुआ। यद्यपि गार्ग्य क्षत्रिय था, किन्तु उससे ब्राह्मण कुल की उत्पत्ति हुई। महावीर्य का पुत्र दुरितक्षय हुआ, जिसके तीन पुत्र थे— त्रय्यारुणि, कवि तथा पुष्करारुणि। यद्यपि दुरितक्षय के ये पुत्रक्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे, किन्तु उन्हें भी ब्राह्मण पद प्राप्त हुआ। बृहत्क्षत्र का एक पुत्र हस्ती था जिसने हस्तिनापुर नामक नगर (आज की नई दिल्ली) की स्थापना की।

श्लोक 21: राजा हस्ती के तीन पुत्र हुए—अजमीढ, द्विमीढ, तथा पुरुमीढ। अजमीढ के वंशजों में प्रियमेध प्रमुख था और उन सबों ने ब्राह्मण पद प्राप्त किया।

श्लोक 22: अजमीढ का पुत्र बृहदिषु था, बृहदिषु का पुत्र बृहद्धनु था, बृहद्धनु का पुत्र बृहत्काय था और बृहत्काय से जयद्रथ नामक पुत्र हुआ।

श्लोक 23: जयद्रथ का पुत्र विशद था और उसका पुत्र स्येनजित था। स्येनजित के पुत्रों के नाम थे रुचिराश्व, दृढहनु, काश्य तथा वत्स।

श्लोक 24: रुचिराश्व का पुत्र पार था और पार के पुत्र पृथुसेन तथा नीप थे। नीप के एक सौ पुत्र थे।

श्लोक 25: शुक की पुत्री अर्थात् नीप की पत्नी कृत्वी के गर्भ से राजा नीप के ब्रह्मदत्त नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मदत्त महान् योगी था। उसकी पत्नी सरस्वती के गर्भ से विष्वक्सेन नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ।

श्लोक 26: जैगीषव्य ऋषि के उपदेशानुसार विष्वक्सेन ने योगपद्धति का विस्तृत वर्णन संकलित किया। विष्वक्सेन से उदक्सेन उत्पन्न हुआ और उदक्सेन से भल्लाट। ये सभी पुत्र बृहदिषु के वंशज थे।

श्लोक 27: द्विमीढ का पुत्र यवीनर था और उसका पुत्र कृतिमान था। कृतिमान का पुत्र सत्यधृति के नाम से विख्यात था। सत्यधृति से दृढनेमि नाम का पुत्र हुआ जो सुपार्श्व का पिता बना।

श्लोक 28-29: सुपार्श्व से सुमति नाम का पुत्र, सुमति से सन्नतिमान तथा सन्नतिमान से कृती उत्पन्न हुआ जिसने ब्रह्मा से योगशक्ति प्राप्त की और सामवेद के प्राच्यसाम नामक श्लोकों की छह संहिताएँ पढ़ाईं। कृती का पुत्र नीप था, नीप का पुत्र उद्ग्रायुध हुआ, उद्ग्रायुध का पुत्र क्षेम्य हुआ, क्षेम्य से सुवीर नामक पुत्र हुआ तथा सुवीर का पुत्र रिपुञ्जय था।

श्लोक 30: रिपुञ्जय का पुत्र बहुरथ हुआ। पुरुमीढ नि:सन्तान था। अजमीढ को अपनी पत्नी नलिनी से नील नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। नील का पुत्र शान्ति था।

श्लोक 31-33: शान्ति का पुत्र सुशान्ति था, सुशान्ति का पुत्र पुरुज हुआ, पुरुज का अर्क और अर्क का पुत्र भर्म्याश्व था। भर्म्याश्व के पाँच पुत्र हुए—मुद्गल, यवीनर, बृहद्विश्व, काम्पिल्ल तथा संजय। भर्म्याश्व ने अपने बेटों से कहा : मेरे बेटो, तुम लोग मेरे पाँचों राज्यों का भार सँभालो क्योंकि तुम ऐसा करने के लिए पर्याप्त सक्षम हो। इस तरह उसके पाँचों पुत्र पञ्चाल कहलाये। मुद्गल से ब्राह्मणों का गोत्र चला जो मौद्गल्य कहलाया।

श्लोक 34: भर्म्याश्व के पुत्र मुद्गल के जुड़वाँ सन्तान हुई जिसमें एक पुत्र था और एक कन्या। पुत्र का नाम दिवोदास रखा गया और कन्या का नाम अहल्या। अहल्या के गर्भ और उसके पति गौतम मुनि के वीर्य से शतानन्द नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

श्लोक 35: शतानन्द का पुत्र सत्यधृति था जो धनुर्विद्या में अत्यन्त पटु था। सत्यधृति का पुत्र शरद्वान हुआ। जब शरद्वान की भेंट उर्वशी से हुई तो शर नामक घास के गुच्छे पर उसका वीर्यपात हो गया। इस वीर्य से दो शुभ शिशु उत्पन्न हुए जिनमें से एक लडक़ा था और दूसरा लडक़ी।

श्लोक 36: जब महाराज शान्तनु शिकार करने गये तो उन्होंने जंगल में जुड़वाँ शिशुओं को पड़ा देखा। वे दयावश उन्हें अपने घर ले आये। फलस्वरूप, बालक कृप नाम से विख्यात हुआ और बालिका का नाम कृपी पड़ा। बाद में कृपी द्रोणाचार्य की पत्नी बनी।

अध्याय 22: अजमीढ के वंशज

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा, दिवोदास का पुत्र मित्रायु था और मित्रायु के चार पुत्र हुए जिनके नाम थे च्यवन, सुदास, सहदेव तथा सोमक। सोमक जन्तु का पिता था।

श्लोक 2: सोमक के एक सौ पुत्र थे जिनमें सबसे छोटा पृषत था। पृषत से राजा द्रुपद उत्पन्न हुआ जो सभी प्रकार से ऐश्वर्यवान था।

श्लोक 3: महाराज द्रुपद से द्रौपदी उत्पन्न हुई। महाराज द्रुपद के कई पुत्र भी थे जिनमें धृष्टद्युम्न प्रमुख था। उसके पुत्र का नाम धृष्टकेतु था। ये सारे पुरुष भर्म्याश्व के वंशज या पाञ्चालवंशी कहलाते हैं।

श्लोक 4-5: अजमीढ का दूसरा पुत्र ऋक्ष नाम से विख्यात था। ऋक्ष से संवरण, संवरण के उसकी पत्नी सूर्यपुत्री तपती के गर्भ से कुरु हुआ जो कुरुक्षेत्र का राजा बना। कुरु के चार पुत्र थे—परीक्षि, सुधनु, जह्नु तथा निषध। सुधनु से सुहोत्र, सुहोत्र से च्यवन और च्यवन से कृती उत्पन्न हुआ।

श्लोक 6: कृती का पुत्र उपरिचर वसु था और उसके पुत्रों में, जिनमें बृहद्रथ प्रमुख था, कुशाम्ब, मत्स्य, प्रत्यग्र तथा चेदिप थे। उपरिचर वसु के सारे पुत्र चेदि राज्य के शासक बने।

श्लोक 7: बृहद्रथ से कुशाग्र उत्पन्न हुआ, कुशाग्र से ऋषभ, ऋषभ से सत्यहित, सत्यहित से पुष्पवान तथा पुष्पवान से जहु उत्पन्न हुआ।

श्लोक 8: बृहद्रथ की दूसरी पत्नी के गर्भ से दो आधे आधे खण्डों में एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब माता ने इन दो आधे आधे खण्डों को देखा तो उसने इन्हें फेंक दिया, किन्तु बाद में जरा नाम की एक राक्षसी ने खेल-खेल में उन्हें जोड़ते हुए कहा, “जीवित हो उठो, जीवित हो उठो।” इस तरह जरासन्ध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

श्लोक 9: जरासन्ध से सहदेव नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। फिर सहदेव से सोमापि और सोमापि से श्रुतश्रवा हुआ। कुरु के पुत्र परीक्षि के कोई पुत्र नहीं था, किन्तु कुरुपुत्र जह्नु के एक पुत्र था जिसका नाम सुरथ था।

श्लोक 10: सुरथ के विदूरथ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ और विदूरथ से सार्वभौम हुआ। सार्वभौम से जयसेन, जयसेन से राधिक तथा राधिक से अयुतायु उत्पन्न हुआ।

श्लोक 11: अयुतायु का पुत्र अक्रोधन, अक्रोधन का देवातिथि, देवातिथि का ऋक्ष, ऋक्ष का दिलीप और दिलीप का पुत्र प्रतीप हुआ।

श्लोक 12-13: प्रतीप के तीन पुत्र थे—देवापि, शान्तनु तथा बाह्लीक। देवापि अपने पिता का राज्य त्याग कर जंगल चला गया अतएव शान्तनु राजा हुआ। शान्तनु अपने पूर्वजन्म में महाभिष नाम से विख्यात था। उसमें किसी को भी अपने हाथों के स्पर्श द्वारा बूढ़े से जवान में बदलने की शक्ति थी।

श्लोक 14-15: चूँकि यह राजा अपने हाथ के स्पर्श मात्र से ही सबों की इन्द्रियतृप्ति करके सुखी बनाने में समर्थ था इसीलिए इसका नाम शान्तनु था। एक बार जब राज्य में बारह वर्षों तक वर्षा नहीं हुई तो राजा ने विद्वान ब्राह्मणों से परामर्श किया। उन्होंने कहा, “तुम अपने बड़े भाई की सम्पत्ति भोगने के दोषी हो। तुम अपने राज्य तथा अपने घर की उन्नति के लिए यह राज्य उसे लौटा दो।”

श्लोक 16-17: जब ब्राह्मणों ने यह कहा तो महाराज शान्तनु जंगल चला गया और उसने अपने बड़े भाई देवापि से प्रार्थना की कि वह राज्य का भार ग्रहण करे क्योंकि प्रजा का पालन करना राजा का धर्म है। किन्तु इसके पूर्व शान्तनु के मंत्री अश्ववार ने कुछ ब्राह्मणों को फुसलाकर देवापि से वेदों के आदेशों का उल्लंघन करने के लिए प्रेरित किया था जिससे वह शासक पद के अयोग्य हो गया था। ब्राह्मणों ने देवापि को वैदिक सिद्धान्तों के मार्ग से विचलित कर दिया था अतएव जब शान्तनु ने शासक पद ग्रहण करने के लिए कहा तो उसने मना कर दिया। उल्टे, वह वैदिक सिद्धान्तों की निन्दा करने लगा अतएव पतित हो गया। ऐसी परिस्थिति में शान्तनु पुन: राजा बन गया और इन्द्र ने प्रसन्न होकर वर्षा की। बाद में देवापि ने अपने मन तथा इन्द्रियों का दमन करने के लिए योगमार्ग का अनुसरण किया और वह कलापग्राम नामक गाँव में चला गया जहाँ वह अब भी जीवित है।

श्लोक 18-19: इस कलियुग में सोमवंश के समाप्त होने पर और अगले सतयुग के प्रारम्भ में देवापि पुन: इस संसार में सोमवंश की स्थापना करेगा। (शान्तनु के भाई) बाह्लीक से सोमदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसके तीन पुत्र हुए—भूरि, भूरिश्रवा तथा शल। शान्तनु की दूसरी पत्नी गंगा के गर्भ से भीष्म उत्पन्न हुआ जो स्वरूपसिद्ध, सभी धार्मिक व्यक्तियों में श्रेष्ठ, महान् भक्त एवं विद्वान था।

श्लोक 20: भीष्मदेव सारे योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ था। जब उसने भगवान् परशुराम को युद्ध में हरा दिया तो परशुराम उससे अत्यन्त संतुष्ट हुए। शान्तनु के वीर्य से धीवर की कन्या सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद ने जन्म लिया।

श्लोक 21-24: चित्रांगद, जिसका छोटा भाई विचित्रवीर्य था, चित्रागंद नाम के ही गन्धर्व द्वारा मारा गया। सत्यवती ने शान्तनु से विवाह होने के पूर्व वेदों के ज्ञाता व्यासदेव को जन्म दिया था। ये कृष्ण द्वैपायन कहलाये और पराशर मुनि के वीर्य से उत्पन्न हुए थे। व्यासदेवसे मैं (शुकदेव गोस्वामी) उत्पन्न हुआ और मैंने उनसे इस महान् ग्रंथ श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया। भगवान् के अवतार वेदव्यास ने पैल इत्यादि अपने शिष्यों को छोडक़र मुझे श्रीमद्भागवत पढ़ाया क्योंकि मैं सभी भौतिक कामनाओं से मुक्त था। जब काशीराज की दो कन्याओं, अम्बिका और अम्बालिका का बलपूर्वक अपहरण हो गया तो विचित्रवीर्य ने उनसे विवाह कर लिया, किन्तु इन दोनों पत्नियों से अत्यधिक आसक्त रहने के कारण उसे तपेदिक हो गया जिससे वह मर गया।

श्लोक 25: बादरायण, श्री व्यासदेव, ने अपनी माता सत्यवती के आदेशानुसार तीन पुत्र उत्पन्न किये—दो पुत्र अपने भाई विचित्रवीर्य की पत्नियों अम्बिका तथा अम्बालिका के गर्भ से और तीसरा विचित्रवीर्य की दासी से। तीनों पुत्रों के नाम थे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर।

श्लोक 26: हे राजा, धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने एक सौ पुत्र तथा एक कन्या को जन्म दिया। सबसे बड़ा पुत्र दुर्योधन था और कन्या का नाम दु:शला था।

श्लोक 27-28: एक मुनि के द्वारा शापित होने से पाण्डु का विषयी जीवन अवरुद्ध हो गया अतएव उसकी पत्नी कुन्ती के गर्भ से तीन पुत्र युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन उत्पन्न हुए जो क्रमश: धर्मराज, वायुदेव तथा इन्द्रदेव के पुत्र थे। पाण्डु की दूसरी पत्नी माद्री ने नकुल तथा सहदेव को जन्म दिया जो दोनों अश्विनीकुमारों द्वारा उत्पन्न थे। युधिष्ठिर इत्यादि पाँचों भाइयों ने द्रौपदी के गर्भ से पाँच पुत्र उत्पन्न किये। ये पाँचों पुत्र तुम्हारे चाचा थे।

श्लोक 29: युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीम से श्रुतसेन, अर्जुन से श्रुतकीर्ति तथा नकुल से शतानीक नामक पुत्र हुए।

श्लोक 30-31: हे राजा, सहदेव का पुत्र श्रुतकर्मा था। यही नहीं, युधिष्ठिर तथा उनके भाइयों की अन्य पत्नियों से और भी पुत्र उत्पन्न हुए। युधिष्ठिर ने पौरवी के गर्भ से देवक को और भीमसेन ने अपनी पत्नी हिडिम्बा के गर्भ से घटोत्कच तथा अपनी अन्य पत्नी काली के गर्भ से सर्वगत नामक पुत्रों को जन्म दिया। इसी प्रकार सहदेव को उसकी पत्नी विजया से सुहोत्र नाम का पुत्र प्राप्त हुआ। विजया पर्वतों के राजा की पुत्री थी।

श्लोक 32: नकुल की पत्नी करेणुमती से नरमित्र नामक पुत्र हुआ। इसी प्रकार अर्जुन को नागकन्या उलुपी नामक अपनी पत्नी से इरावान नामक पुत्र तथा मणिपुर की राजकुमारी के गर्भ से बभ्रुवाहन नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। बभ्रुवाहन मणिपुर के राजा का दत्तक पुत्र बन गया।

श्लोक 33: हे राजा परीक्षित, तुम्हारे पिता अभिमन्यु अर्जुन के पुत्र रूप में सुभद्रा के गर्भ से उत्पन्न हुए। वे सभी अतिरथों (जो एक हजार रथवानों से युद्ध कर सके) के विजेता थे। उनके द्वारा विराड्राज की पुत्री उत्तरा के गर्भ से तुम उत्पन्न हुए।

श्लोक 34: जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में कुरुवंश का विनाश हो गया तो तुम भी द्रोणाचार्य के पुत्र द्वारा छोड़े गये ब्रह्मास्त्र के द्वारा विनष्ट होने वाले थे, किन्तु भगवान् कृष्ण की कृपा से तुम्हें मृत्यु से बचा लिया गया।

श्लोक 35: हे राजा, तुम्हारे चारों पुत्र—जनमेजय, श्रुतसेन, भीमसेन तथा उग्रसेन अत्यन्त शक्तिशाली हैं। जनमेजय उनमें सबसे बड़ा है।

श्लोक 36: तक्षक सर्प द्वारा तुम्हारी मृत्यु हो जाने के कारण तुम्हारा पुत्र जनमेजय अत्यन्त क्रुद्ध होगा और संसार के सारे सर्पों को मारने के लिए यज्ञ करेगा।

श्लोक 37: सारे संसार को जीतने के बाद और कलष के पुत्र तुर को अपना पुरोहित बनाकर, जनमेजय अश्वमेध यज्ञ करेगा जिसके कारण वह तुरग-मेधषाट् कहलायेगा।

श्लोक 38: जनमेजय का पुत्र शतानीक ऋषि याज्ञवल्क्य से तीनों वेद और कर्मकाण्ड सम्पन्न करने की कला को सीखेगा। वह कृपाचार्य से सैन्य कला भी सीखेगा तथा शौनक मुनि से दिव्य ज्ञान प्राप्त करेगा।

श्लोक 39: शतानीक का पुत्र सहस्रानीक होगा और उसके पुत्र का नाम अश्वमेधज होगा। अश्वेमधज से असीमकृष्ण उत्पन्न होगा और उसका पुत्र नेमिचक्र होगा।

श्लोक 40: जब हस्तिनापुर नगरी (नई दिल्ली) नदी की बाढ़ से जलमग्न हो जायेगी तो नेमिचक्र कौशाम्बी नामक स्थान में निवास करेगा। उसका पुत्र चित्ररथ नाम से विख्यात होगा और चित्ररथ का पुत्र शुचिरथ होगा।

श्लोक 41: शुचिरथ का पुत्र वृष्टिमान होगा और उसका पुत्र सुषेण नाम का चक्रवर्ती राजा होगा। सुषेण का पुत्र सुनीथ होगा, उसका पुत्र नृचक्षु होगा और नृचक्षु का पुत्र सुखीनल होगा।

श्लोक 42: सुखीनल का पुत्र परिप्लव, परिप्लव का सुनय और सुनय का पुत्र मेधावी होगा। मेधावी से नृपञ्जय, नृपञ्जय से दूर्व तथा दूर्व से तिमि का जन्म होगा।

श्लोक 43: तिमि का पुत्र बृहद्रथ, बृहद्रथ का सुदास, सुदास का शतानीक, शतानीक का दुर्दमन और दुर्दमन का पुत्र महीनर होगा।

श्लोक 44-45: महीनर का पुत्र दण्डपाणि होगा और उसका पुत्र निमि होगा जिससे राजा क्षेमक की उत्पत्ति होगी। मैंने अभी तुमसे सोमवंश का वर्णन किया है जो ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों का उद्गम है और देवताओं तथा ऋषियों-मुनियों द्वारा पूजित है। इस कलियुग में क्षेमक अन्तिम राजा होगा। अब मैं तुमसे मागध वंश का भविष्य बतलाऊँगा। उसे सुनो।

श्लोक 46-48: जरासन्धपुत्र सहदेव के पुत्र का नाम मार्जारि होगा। मार्जारि से श्रुतश्रवा, श्रुतश्रवा से युतायु, युतायु से निरमित्र, निरमित्र से सुनक्षत्र, सुनक्षत्र से बृहत्सेन, बृहत्सेन से कर्मजित, कर्मजित से सुतञ्जय, सुतञ्जय से विप्र, विप्र से शुचि, शुचि से क्षेम, क्षेम से सुव्रत, सुव्रत से धर्मसूत्र, धर्मसूत्र से सम, सम से द्युमत्सेन, द्युमत्सेन से सुमति और सुमति से सुबल नाम का पुत्र उत्पन्न होगा।

श्लोक 49: सुबल से सुनीथ, सुनीथ से सत्यजित, सत्यजित से विश्वजित एवं विश्वजित से रिपुञ्जय उत्पन्न होगा। ये सभी पुरुष बृहद्रथवंशी होंगे और ये संसार पर एक हजार वर्षों तक राज्य करेंगे।

अध्याय 23: ययाति के पुत्रों की वंशावली

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : ययाति के चतुर्थ पुत्र अनु के तीन पुत्र हुए जिनके नाम थे—सभानर, चक्षु तथा परेष्णु। हे राजा, सभानर के कालनर नाम का एक पुत्र हुआ और कालनर से सृञ्जय नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

श्लोक 2: सृञ्जय का पुत्र जनमेजय हुआ, जनमेजय का पुत्र महाशाल, महाशाल का पुत्र महामना और महामना के दो पुत्र उशीनर तथा तितिक्षु हुए।

श्लोक 3-4: उशीनर के चार पुत्र थे—शिबि, वर, कृमि तथा दक्ष। शिबि के भी चार पुत्र हुए—वृषादर्भ, सुधीर, मद्र तथा आत्मतत्त्ववित् केकय। तितिक्षु का पुत्र रुषद्रथ था; रुषद्रथ का पुत्र होम था; होम का सुतपा और सुतपा का पुत्र बलि था।

श्लोक 5: चक्रवर्ती राजा बलि की पत्नी से दीर्घतमा के वीर्य से छह पुत्रों ने जन्म लिया जिनके नाम थे अंग, वंग, कलिंग, सुह्म, पुण्ड्र तथा ओड्र।

श्लोक 6: बाद में अंगादि ये छहों पुत्र भारत की पूर्व दिशा में छ: राज्यों के राजा बने। ये राज्य अपने-अपने राजा के नाम के अनुसार विख्यात हुए। अंग से खलपान नामक पुत्र हुआ जिससे दिविरथ उत्पन्न हुआ।

श्लोक 7-10: दिविरथ का पुत्र धर्मरथ हुआ और उसका पुत्र चित्ररथ था जो रोमपाद के नाम से विख्यात था। किन्तु रोमपाद के कोई सन्तान न थी अतएव उसके मित्र महाराज दशरथ ने उसे अपनी पुत्री शान्ता दे दी। रोमपाद ने उसे पुत्री रूप में स्वीकार किया। तत्पश्चात् उस पुत्री ने ऋष्यशृंग से विवाह कर लिया। जब स्वर्गलोक के देवताओं ने वर्षा नहीं की तो ऋष्यशृंग को वेश्याओं के द्वारा आकर्षित करके जंगल से लाया गया और उसे एक यज्ञ सम्पन्न करने के लिए पुरोहित नियुक्त किया गया। ये वेश्याएँ नाचकर तथा संगीत के साथ नाटक करके और उनका आलिंगन तथा पूजन करके उन्हें ले आईं थीं। ऋष्यशृंग के आने के बाद वर्षा हुई। तत्पश्चात् ऋष्यशृंग ने महाराज दशरथ के लिए पुत्र-यज्ञ किया क्योंकि उनका कोई पुत्र न था। इससे महाराज दशरथ को पुत्र-प्राप्ति हुई। ऋष्यशृंग की कृपा से रोमपाद के एक पुत्र चतुरंग हुआ और चतुरंग से पृथुलाक्ष का जन्म हुआ।

श्लोक 11: पृथुलाक्ष के पुत्र थे बृहद्रथ, बृहत्कर्मा तथा बृहद्भानु। ज्येष्ठ पुत्र बृहद्रथ से बृहद्मना नाम का पुत्र हुआ और बृहद्मना से जयद्रथ हुआ।

श्लोक 12: जयद्रथ की पत्नी सम्भूति के गर्भ से विजय उत्पन्न हुआ, विजय से धृति, धृति से धृतिव्रत, धृतिव्रत से सत्कर्मा तथा सत्कर्मा से अधिरथ हुआ।

श्लोक 13: गंगा नदी के तट पर खेलते समय अधिरथ को एक टोकरी में बंद एक शिशु प्राप्त हुआ। इस शिशु को कुन्ती ने छोड़ दिया था क्योंकि यह उसके विवाह होने के पूर्व ही उत्पन्न हुआ था। चूँकि अधिरथ के कोई पुत्र न था अतएव उसने इस शिशु को अपने ही पुत्र की तरह पाला पोसा। (बाद में यही पुत्र कर्ण कहलाया)

श्लोक 14: हे राजा, कर्ण का एकमात्र पुत्र वृषसेन था। ययाति के तृतीय पुत्र द्रुह्यु का पुत्र बभ्रु था और बभ्रु का पुत्र सेतु था।

श्लोक 15: सेतु का पुत्र आरब्ध था, आरब्ध का पुत्र गान्धार हुआ और गान्धार का पुत्र धर्म था। धर्म का पुत्र धृत, धृत का दुर्मद और दुर्मद का पुत्र प्रचेता था जिसके एक सौ पुत्र हुए।

श्लोक 16: प्रचेताओं (प्रचेता के पुत्रों) ने भारत की उत्तरी दिशा में कब्जा कर लिया जो वैदिक सभ्यता से विहीन थी और वे वहाँ के राजा बन गये। ययाति का दूसरा पुत्र तुर्वसु था। तुर्वसु का पुत्र वह्नि था, वह्नि का पुत्र भर्ग था और भर्ग का पुत्र भानुमान था।

श्लोक 17: भानुमान का पुत्र त्रिभानु था और उसका पुत्र उदारचेता करन्धम था। करन्धम का पुत्र मरुत था जिसके कोई पुत्र न था अतएव उसने पूरुवंशी पुत्र (महाराज दुष्मन्त) को पुत्र रूप में गोद ले लिया।

श्लोक 18-19: महाराज दुष्मन्त सिंहासन में बैठने की इच्छा से अपने मूलवंश (पूरुवंश) में लौट गये यद्यपि वे मरुत को अपना पिता स्वीकार कर चुके थे। हे महाराज परीक्षित, अब मैं महाराज ययाति के ज्येष्ठ पुत्र यदु के वंश का वर्णन करता हूँ। यह वर्णन अत्यन्त पवित्र है और मानवसमाज के सारे पापों के फलों को दूर करने वाला है। इस वर्णन को सुनने मात्र से मनुष्य सारे पापों के फलों से मुक्त हो जाता है।

श्लोक 20-21: भगवान् कृष्ण, जो सारे जीवों के हृदयों में परमात्मा स्वरूप हैं, मनुष्य के अपने आदि रूप में यदु कुल में अवतरित हुए। यदु के चार पुत्र थे—सहस्रजित्, क्रोष्टा, नल तथा रिपु। इन चारों में से सबसे बड़े सहस्रजित के एक पुत्र था जिसका नाम शतजित था। उसके तीन पुत्र हुए—महाहय, रेणुहय तथा हैहय।

श्लोक 22: हैहय का पुत्र धर्म था और धर्म का पुत्र नेत्र था जो कुन्ति का पिता था। कुन्ति से सोहञ्जि, सोहञ्जि से महिष्मान तथा महिष्मान से भद्रसेनक उत्पन्न हुए।

श्लोक 23: भद्रसेन के पुत्र दुर्मद तथा धनक कहलाये। धनक कृतवीर्य के अतिरिक्त कृताग्नि, कृतवर्मा तथा कृतौजा का भी पिता था।

श्लोक 24: कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। वह (कार्तवीर्यार्जुन) सातों द्वीप वाले सारे संसार का सम्राट बन गया। उसे भगवान् के अवतार दत्तात्रेय से योगशक्ति प्राप्त हई थी। इस तरह उसने अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं।

श्लोक 25: इस संसार का कोई भी राजा यज्ञ, दान, तपस्या, योगशक्ति, शिक्षा, बल या दया में कार्तवीर्यार्जुन की बराबरी नहीं कर सकता था।

श्लोक 26: कार्तवीर्यार्जुन ने लगातार पचासी हजार वर्षों तक पूर्ण शारीरिक बल तथा त्रुटिरहित स्मरण शक्ति से भौतिक ऐश्वर्यों का भोग किया। दूसरे शब्दों में, उसने अपनी छहों इन्द्रियों से अक्षय भौतिक ऐश्वर्यों का भोग किया।

श्लोक 27: कार्तवीर्यार्जुन के एक हजार पुत्रों में से परशुराम से युद्ध करने के बाद केवल पाँच पुत्र जीवित बचे। उनके नाम थे जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु तथा ऊर्जित।

श्लोक 28: जयध्वज के तालजंघ नाम का एक पुत्र था जिसके एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए। उस तालजंघ नामक वंश के सारे क्षत्रियों का विनाश महाराज सगर द्वारा किया गया जिन्हें और्व ऋषि से महान् शक्ति प्राप्त हुई थी।

श्लोक 29: तालजंघ के पुत्रों में से वीतिहोत्र सबसे बड़ा था। वीतिहोत्र का पुत्र मधु था जिसका पुत्र वृष्णि विख्यात था। मधु के एक सौ पुत्र हुए जिनमें वृष्णि सबसे बड़ा था। यादव, माधव तथा वृष्णि नामक वंशों का उद्गम यदु, मधु तथा वृष्णि से हुआ।

श्लोक 30-31: हे महाराज परीक्षित, चूँकि यदु, मधु तथा वृष्णि में से हर एक ने वंश चलाये अतएव उनके वंश यादव, माधव तथा वृष्णि कहलाते हैं। यदु के पुत्र क्रोष्टा के वृजिनवान नाम का एक पुत्र हुआ। वृजिनवान का पुत्र स्वाहित था, स्वाहित का विषद्गु, विषद्गु का चित्ररथ और चित्ररथ का पुत्र शशबिन्दु हुआ जो महान् योगी था और चौदहों ऐश्वर्यों से युक्त था तथा वह चौदह महान् रत्नों का स्वामी था। इस तरह वह संसार का सम्राट बना।

श्लोक 32: सुप्रसिद्ध शशबिन्दु के दस हजार पत्नियाँ थीं और उनमें से हर एक से एक लाख पुत्र उत्पन्न हुए। इसलिए उसके पुत्रों की संख्या एक अरब थी।

श्लोक 33: इन अनेक पुत्रों में से छह अग्रणी थे यथा पृथुश्रवा तथा पृथुकीर्ति। पृथुश्रवा का पुत्र धर्म कहलाया और उसका पुत्र उशना कहलाया। उशना ने एक सौ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किये।

श्लोक 34: उशना का पुत्र रुचक था जिसके पाँच पुत्र थे—पुरुजित, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु तथा ज्यामघ। कृपया मुझसे इनके विषय में सुनें।

श्लोक 35-36: ज्यामघ के कोई पुत्र न था, किन्तु क्योंकि वह अपनी पत्नी शैब्या से डरता था अतएव उसने दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार ज्यामघ किसी शत्रु राजा के खेमे से एक लडक़ी ले आया जो एक वेश्या थी। किन्तु उसे देखकर शैब्या अत्यन्त क्रुद्ध हुई और उसने अपने पति से कहा “क्यों रे धूर्त! यह लडक़ी कौन है जो रथ में मेरे आसन पर बैठी है?” तब ज्यामघ ने उत्तर दिया “यह लडक़ी तुम्हारी बहू (पुत्रवधू) होगी।” इन विनोदपूर्ण शब्दों को सुनकर शैब्या ने हँसते हुए उत्तर दिया।

श्लोक 37: शैब्या ने कहा, “मैं बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। भला यह लडक़ी मेरी बहू (पुत्रवधू) कैसे बन सकती है?” ज्यामघ ने उत्तर दिया, “मेरी रानी! मैं देखूँगा कि तुम्हारे सचमुच पुत्र होगा और यह लडक़ी तुम्हारी बहू बनेगी।”

श्लोक 38: बहुत काल पूर्व ज्यामघ ने देवताओं तथा पितरों की पूजा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया था। अब उन्हीं की दया से ज्यामघ के शब्द सही उतरे। यद्यपि शैब्या बाँझ थी लेकिन देवताओं की कृपा से वह गर्भिणी हुई और समय आने पर उसने विदर्भ नामक शिशु को जन्म दिया। चूँकि शिशु के जन्म के पूर्व ही उस लडक़ी को बहू रूप में स्वीकार किया जा चुका था अतएव जब विदर्भ सयाना हुआ तो उसने उसके साथ विवाह कर लिया।

अध्याय 24: भगवान् श्रीकृष्ण

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने पिता द्वारा लाई गई उस लडक़ी के गर्भ से विदर्भ को तीन पुत्र प्राप्त हुए—कुश, क्रथ तथा रोमपाद। रोमपाद विदर्भ कुल का अत्यन्त प्रिय था।

श्लोक 2: रोमपाद का पुत्र बभ्रु हुआ जिससे कृति नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई। कृति का पुत्र उशिक हुआ और उशिक का पुत्र चेदि था। चेदि से चैद्य तथा अन्य राजा पुत्र उत्पन्न हुए।

श्लोक 3-4: क्रथ का पुत्र कुन्ति, कुन्ति का पुत्र वृष्णि, वृष्णि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह, दशार्ह का व्योम, व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ तथा नवरथ का पुत्र दशरथ हुआ।

श्लोक 5: दशरथ का पुत्र शकुनि हुआ और शकुनि का पुत्र करम्भि था। करम्भि का पुत्र देवरात हुआ जिसका पुत्र देवक्षत्र था। देवक्षत्र का पुत्र मधु था और उसका पुत्र कुरुवश था जिसके अनु नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ।

श्लोक 6-8: अनु का पुत्र पुरुहोत्र हुआ जिसके पुत्र अयु का पुत्र सात्वत था। हे महान् आर्य राजा, सात्वत के सात पुत्र थे—भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक तथा महाभोज। भजमान की एक पत्नी से निम्लोचि, किंकण तथा धृष्टि नामक तीन पुत्र हुए और दूसरी पत्नी से शताजित, सहस्राजित तथा अयुताजित—ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए।

श्लोक 9: देवावृध का पुत्र बभ्रु था। देवावृध तथा बभ्रु से सम्बन्धित दो प्रसिद्ध प्रार्थनामय गीत हैं जिन्हें हमारे पूर्वज गाते रहे हैं और जिन्हें हमने दूर से सुना है। आज भी मैं वही गीत उनके गुणों के विषय में सुनता हूँ (क्योंकि जो पहले सुना गया है, अभी भी लगातार गाया जाता है)।

श्लोक 10-11: “यह निश्चय हुआ कि मनुष्यों में बभ्रु सर्वश्रेष्ठ है और देवावृध देवता तुल्य है। बभ्रु तथा देवावृध की संगति से उनके सारे वंशज, जिनकी संख्या १४०६५ थी, मोक्ष के भागी हुए।” राजा महाभोज अत्यन्त धर्मात्मा था और उसके कुल में भोज राजा हुए।

श्लोक 12: हे शत्रुओं के दमन करने वाले राजा परीक्षित, वृष्णि के पुत्र सुमित्र तथा युधाजित थे। युधाजित से शिनि तथा अनमित्र उत्पन्न हुए। अनमित्र के एक पुत्र था जिसका नाम निघ्न था।

श्लोक 13: निघ्न के दो पुत्र हुए—सत्राजित तथा प्रसेन। अनमित्र का दूसरा पुत्र एक अन्य शिनि था जिसका पुत्र सत्यक था।

श्लोक 14: सत्यक का पुत्र युयुधान था जिसका पुत्र जय हुआ। जय के एक पुत्र हुआ जिसका नाम कुणि था। कुणि का पुत्र युगन्धर था। अनमित्र का दूसरा पुत्र वृष्णि था।

श्लोक 15: वृष्णि से श्वफल्क तथा चित्ररथ नाम के दो पुत्र हुए। श्वफल्क की पत्नी गान्दिनी से अक्रूर उत्पन्न हुआ। अक्रूर सबसे बड़ा था, किन्तु उसके अतिरिक्त बारह पुत्र और थे जो सभी विख्यात थे।

श्लोक 16-18: इन बारहों के नाम थे—आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुवित, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमाद तथा प्रतिबाहु। इन भाइयों के एक बहन भी थी जिसका नाम सुचारा था। अक्रूर के दो पुत्र हुए जिनके नाम देववान तथा उपदेव थे। चित्ररथ के पृथु, विदूरथ इत्यादि कई पुत्र थे। ये सभी वृष्णिवंशी कहलाये।

श्लोक 19: अन्धक के चार पुत्र हुए—कुकुर, भजमान, शुचि तथा कम्बलबर्हिष। कुकुर का पुत्र वह्नि था और वह्नि का पुत्र विलोमा हुआ।

श्लोक 20: विलोमा का पुत्र कपोतरोमा था जिसका पुत्र अनु हुआ और उसका मित्र तुम्बुरु था। अनु से अन्धक का जन्म हुआ, अन्धक से दुन्दुभि, दुन्दुभि से अविद्योत और अविद्योत से पुनर्वसु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

श्लोक 21-23: पुनर्वसु के एक पुत्र आहुक तथा एक पुत्री आहुकी थी। आहुक के दो पुत्र थे—देवक तथा उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए—देववान्, उपदेव, सुदेव तथा देववर्धन। उसके सात कन्याएँ भी थीं जिनके नाम शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा, देवकी तथा धृतदेवा थे। इनमें धृतदेवा सबसे बड़ी थी। कृष्ण के पिता वसुदेव ने इन सबों के साथ विवाह किया।

श्लोक 24: उग्रसेन के पुत्रों के नाम थे—कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, धृष्टि तथा तुष्टिमान।

श्लोक 25: उग्रसेन की पुत्रियाँ कंसा, कंसावती, कंका, शूरभू तथा राष्ट्रपालिका थीं। वे वसुदेव के छोटे भाइयों की पत्नियाँ बनीं।

श्लोक 26: चित्ररथ का पुत्र विदूरथ था, जिसका पुत्र शूर था और शूर का पुत्र भजमान था। भजमान का पुत्र शिनि हुआ, शिनि का पुत्र भोज था और भोज का पुत्र हृदिक था।

श्लोक 27: हृदिक के तीन पुत्र हुए—देवमीढ, शतधनु तथा कृतवर्मा। देवमीढ का पुत्र शूर था जिसकी पत्नी का नाम मारिषा था।

श्लोक 28-31: राजा शूर को अपनी पत्नी मारिषा से वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृञ्जय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक तथा वृक नामक दस पुत्र उत्पन्न हुए। ये विशुद्ध पवित्र पुरुष थे। जब वसुदेव का जन्म हुआ था तो देवताओं ने स्वर्ग से दुन्दुभियां बजाई थीं। इसीलिए वसुदेव का नाम आनक- दुन्दुभि पड़ गया। इन्होंने भगवान् कृष्ण के प्राकट्य के लिए समुचित स्थान प्रदान किया। शूर के पाँच कन्याएँ भी जन्मीं, जिनके नाम थे पृथा, श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा तथा राजाधिदेवी। ये वसुदेव की बहनें थीं। शूर ने अपने मित्र कुन्ति को अपनी पुत्री पृथा दे दी क्योंकि उसके कोई सन्तान नहीं थी; इसलिए पृथा का दूसरा नाम कुन्ती था।

श्लोक 32: एक बार जब दुर्वासा पृथा के पिता कुन्ति के घर पर अतिथि बने तो पृथा ने अपनी सेवा से उन्हें प्रसन्न कर लिया। अतएव उसे ऐसी योगशक्ति प्राप्त हुई जिससे वह किसी भी देवता का आवाहन कर सकती थी। पवित्र कुन्ती ने इस योगशक्ति के प्रभाव की परीक्षा करने के लिए तुरन्त ही सूर्यदेव का आवाहन किया।

श्लोक 33: ज्योंही कुन्ती ने सूर्यदेव का आवाहन किया वे तुरन्त उसके समक्ष प्रकट हो गये। इस पर वह अत्यधिक चकित हो गई। उसने सूर्यदेव से कहा “मैं तो इस योगशक्ति के प्रभाव की परीक्षा ही कर रही थी। खेद है कि मैंने आपको व्यर्थ ही बुलाया है। कृपया वापस जाएँ और मुझे क्षमा कर दें।”

श्लोक 34: सूर्यदेव ने कहा : हे सुन्दरी पृथा, देवताओं से तुम्हारी भेंट व्यर्थ नहीं जा सकती। अतएव मैं तुम्हारे गर्भ में वीर्य स्थापित करता हूँ जिससे तुम एक पुत्र उत्पन्न कर सको। मैं तुम्हारे कौमार्य को अक्षत रखने की व्यवस्था कर दूँगा क्योंकि तुम अब भी अविवाहिता लडक़ी हो।

श्लोक 35: यह कहकर सूर्यदेव ने पृथा के गर्भ में अपना वीर्य स्थापित किया और वे स्वर्गलोक वापस चले गये। उसके तुरन्त बाद कुन्ती ने एक पुत्र को जन्म दिया जो दूसरे सूर्य की तरह था।

श्लोक 36: चूँकि कुन्ती लोगों की आलोचनाओं से भयभीत थी अतएव उसे बड़ी कठिनाई से पुत्र-स्नेह छोडऩा पड़ा। अनचाहे उसने बालक को एक मंजूषा (टोकरी) में बन्द करके नदी के जल में प्रवाहित कर दिया। हे महाराज परीक्षित, बाद में पवित्र तथा पराक्रमी तुम्हारे बाबा पाण्डु ने कुन्ती से विवाह कर लिया।

श्लोक 37: करूष के राजा वृद्धशर्मा ने कुन्ती की बहन श्रुतदेवा के साथ विवाह किया और उसके गर्भ से दन्तवक्र उत्पन्न हुआ। सनकादि मुनियों से शापित होने के कारण दन्तवक्र पूर्वजन्म में दिति के पुत्र हिरण्याक्ष के रूप में उत्पन्न हुआ था।

श्लोक 38: केकयराज धृष्टकेतु ने कुन्ती की अन्य बहिन श्रुतकीर्ति के साथ विवाह किया। श्रुतकीर्ति के सन्तर्दन इत्यादि पाँच पुत्र उत्पन्न हुए।

श्लोक 39: कुन्ती की अन्य बहन राजाधिदेवी के गर्भ से जयसेन ने विन्द तथा अनुविन्द नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। इसी प्रकार चेदि राज्य के राजा दमघोष ने श्रुतश्रवा से विवाह किया।

श्लोक 40: श्रुतश्रवा का पुत्र शिशुपाल था जिसके जन्म का वर्णन पहले ही (श्रीमद्भागवत के सातवें स्कन्ध में) किया जा चुका है। वसुदेव के भाई देवभाग की पत्नी कंसा ने दो पुत्रों को जन्म दिया जिनके नाम थे चित्रकेतु तथा बृहद्बल।

श्लोक 41: वसुदेव के भाई देवश्रवा ने कंसावती से विवाह किया जिसने सुवीर तथा इषुमान दो पुत्रों को जन्म दिया। कंक को अपनी पत्नी कंका से तीन पुत्र प्राप्त हुए जिनके नाम थे बक, सत्यजित तथा पुरुजित।

श्लोक 42: राजा सृञ्जय के उसकी पत्नी राष्ट्रपालिका से वृष, दुर्मर्षण इत्यादि पुत्र हुए। राजा श्यामक के उसकी पत्नी शूरभूमि से दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनके नाम थे हरिकेश तथा हिरण्याक्ष।

श्लोक 43: तत्पश्चात् राजा वत्सक की पत्नी मिश्रकेशी नाम की अप्सरा से वृक इत्यादि पुत्र उत्पन्न हुए। वृक की पत्नी दुर्वाक्षी ने तक्षक, पुष्कर, शाल इत्यादि पुत्रों को जन्म दिया।

श्लोक 44: समीक की पत्नी सुदामिनी ने अपने गर्भ से सुमित्र, अर्जुनपाल तथा अन्य पुत्रों को जन्म दिया। राजा आनक ने अपनी पत्नी कर्णिका के गर्भ से ऋतधामा तथा जय नामक दो पुत्र उत्पन्न किये।

श्लोक 45: देवकी, पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला इत्यादि आनकदुन्दुभि (वसुदेव) की पत्नियाँ थीं। इनमें देवकी प्रमुख थी।

श्लोक 46: वसुदेव ने अपनी पत्नी रोहिणी के गर्भ से बल, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव, कृत तथा अन्य पुत्रों को उत्पन्न किया।

श्लोक 47-48: पौरवी के गर्भ से बारह पुत्र हुए जिनमें भूत, सुभद्र, भद्रबाहु, दुर्मद तथा भद्र के नाम आते हैं। मदिरा के गर्भ से नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर इत्यादि पुत्र उत्पन्न हुए। कौशल्या (भद्रा) ने केवल एक पुत्र उत्पन्न किया जिसका नाम था केशी।

श्लोक 49: वसुदेव ने रोचना नामक पत्नी से हस्त, हेमांगद इत्यादि पुत्रों को उत्पन्न किया और इला नामक पत्नी से उरुवल्क इत्यादि पुत्रों को उत्पन्न किया जो यदुवंश के प्रधान पुरुष थे।

श्लोक 50: धृतदेवा पत्नी के गर्भ से आनकदुन्दुभि (वसुदेव) को विपृष्ठ नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। वसुदेव की दूसरी पत्नी शान्तिदेवा के गर्भ से प्रशम, प्रसित इत्यादि पुत्रों ने जन्म लिया।

श्लोक 51: वसुदेव के उपदेवा नामक पत्नी थी जिससे राजन्य, कल्प, वर्ष इत्यादि दस पुत्र उत्पन्न हुए। अन्य पत्नी श्रीदेवा से वसु, हंस, सुवंश इत्यादि छ: पुत्र जन्मे।

श्लोक 52: वसुदेव के वीर्य एवं देवरक्षिता के गर्भ से नौ पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें गदा प्रमुख था। साक्षात् धर्मस्वरूप वसुदेव की अन्य पत्नी सहदेवा के गर्भ से श्रुत, प्रवर इत्यादि आठ पुत्र उत्पन्न हुए।

श्लोक 53-55: सहदेवा से उत्पन्न प्रवर और श्रुत इत्यादि आठों पुत्र स्वर्ग के आठों वसुओं के हूबहू अवतार थे। वसुदेव ने देवकी के गर्भ से भी आठ योग्य पुत्र उत्पन्न किये। इनमें कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, सम्मर्दन, भद्र तथा शेषावतार संकर्षण सम्मिलित हैं। आठवें पुत्र साक्षात् भगवान् कृष्ण थे। परम सौभाग्यवती सुभद्रा एकमात्र कन्या तुम्हारी दादी थी।

श्लोक 56: जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब परम नियन्ता भगवान् श्री हरि स्वेच्छा से प्रकट होते हैं।

श्लोक 57: हे महाराज परीक्षित, भगवान् के प्राकट्य, तिरोधान या कर्मों का एकमात्र कारण उनकी निजी इच्छा है, कोई अन्य कारण नहीं है। परमात्मा रूप में वे सर्वज्ञ हैं फलस्वरूप ऐसा कोई कारण नहीं जो उन्हें प्रभावित करता हो, यहाँ तक कि सकाम कर्मों के फल भी नहीं।

श्लोक 58: भगवान् अपनी माया के माध्यम से इस विराट जगत के सृजन, पालन तथा संहार का कार्य करते हैं जिससे वे अपनी दया से जीव का उद्धार कर सकें और जीव के जन्म, मृत्यु तथा भौतिक जीवन की अवधि को रोक सकें। इस तरह वे जीव को भगवद्धाम लौटने में सक्षम बनाते हैं।

श्लोक 59: यद्यपि सरकार हथियाने वाले असुरगण सरकारी व्यक्तियों का वेश बनाये रहते हैं, किन्तु उन्हें सरकार के कर्तव्यों का ज्ञान नहीं होता। फलस्वरूप ईश्वर की व्यवस्था से ऐसे महान् सैन्य शक्तिसम्पन्न असुर एक दूसरे से लड़ते-भिड़ते हैं और इस तरह पृथ्वी की सतह से असुरों का महान् भार घटता है। ये असुर भगवान् की इच्छा से अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाते हैं जिससे उनकी संख्या घट जाए और भक्तों को कृष्णभावनामृत में प्रगति करने का अवसर प्राप्त हो।

श्लोक 60: भगवान् कृष्ण ने संकर्षण बलराम के सहयोग से ऐसे कार्यकलाप कर दिखलाये जो ब्रह्माजी तथा शिवजी जैसे पुरुषों की भी समझ के परे हैं (उदाहरणार्थ कृष्ण ने सारे संसार को राक्षसों से छुटकारा दिलाने के लिए असुरों का वध करने के लिए कुरुक्षेत्र युद्ध की आयोजना की)।

श्लोक 61: भगवान् ने इस कलियुग में भविष्य में जन्म लेने वाले भक्तों पर अहैतुकी कृपा दर्शाने के लिए इस तरह से कार्य किया कि मात्र उनका स्मरण करने से मनुष्य संसार के सारे शोक-संताप से मुक्त हो जायेगा। (दूसरे शब्दों में, उन्होंने इस तरह कार्य किया जिससे सारे भावी भक्तजन भगवद्गीता में कथित कृष्णभावनामृत के उपदेशों को ग्रहण करके संसार के कष्टों से छुटकारा पा सकें)।

श्लोक 62: शुद्ध हुए दिव्य कानों से भगवान् के यश को ग्रहण करने मात्र से भक्तगण प्रबल भौतिक इच्छाओं एवं सकाम कर्मों की व्यस्तता से तुरन्त ही मुक्त हो जाते हैं।

श्लोक 63-64: भगवान् कृष्ण ने भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृञ्जय तथा पाण्डु के वंशजों की सहायता से विविध कार्यकलाप सम्पन्न किये। अपनी मोहक मुस्कान, अपने स्नेहिल आचरण, अपने उपदेशों और गोवर्धन पर्वत धारण करने जैसी अलौकिक लीलाओं के द्वारा भगवान् ने अपने दिव्य शरीर में प्रकट होकर सारे मानव समाज को प्रमुदित किया।

श्लोक 65: कृष्ण का मुखमण्डल मकराकृति के कुण्डलों से सुसज्जित है। उनके कान सुन्दर हैं, उनके गाल चमकीले हैं और उनकी हँसी हर एक को आकृष्ट करने वाली है। जो भी कृष्ण का दर्शन करता है मानो उत्सव देख रहा हो। उनका मुख तथा शरीर देखने में हर एक को पूर्णतया तुष्ट करनेवाले हैं लेकिन भक्तगण स्रष्टा से क्रुद्ध हैं कि उन्होंने भक्तोंकी आँखों के झपकने में व्यवधान उत्पन्न कर दिया है।

श्लोक 66: भगवान् कृष्ण लीला पुरुषोत्तम कहलाते हैं। वे वसुदेव के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए, किन्तु तुरन्त ही अपने पिता का घर छोडक़र अपने विश्वासपात्र भक्तों के साथ प्रेम व्यवहार बढ़ाने के लिए वृन्दावन चले गये। वृन्दावन में उन्होंने अनेक असुरों का वध किया और फिर द्वारका लौट गये जहाँ उन्होंने वैदिक नियमों के अनुसार अनेक श्रेष्ठतम स्त्रियों के साथ विवाह किये, उनसे सैकड़ों पुत्र उत्पन्न किये और गृहस्थ जीवन के सिद्धान्तों को स्थापित करने के लिए अपनी ही पूजा के लिए अनेक यज्ञ सम्पन्न किये।

श्लोक 67: तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ने संसार का भार कम करने के लिए पारिवारिक सदस्यों के बीच मनमुटाव उत्पन्न किया। उन्होंने अपनी चितवन मात्र से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में सारे आसुरी राजाओं का संहार कर दिया और अर्जुन को विजयी घोषित किया। अन्त में वे उद्धव को दिव्य जीवन तथा भक्ति के विषय में उपदेश देकर अपने आदि रूप में अपने धाम को वापस चले गये।

श्रीमद भागवत कथा की स्कन्ध-9 समाप्त।

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