श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 5) | Shrimad Bhagavatam Hindi

अध्याय 7: राजा भरत कार्यकलाप

संक्षेप विवरण: इस अध्याय में सम्पूर्ण संसार के सम्राट राजा भरत महाराज के कार्यों का वर्णन हुआ है। भरत महाराज ने अनेक वैदिक यज्ञ किये और अनेक प्रकार की पूजा द्वारा परमेश्वर…

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को और आगे बताया—हे राजन्, भरत महाराज सर्वोच्च भक्त थे। अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए जिन्होंने उन्हें सिंहासन पर बैठाने का निर्णय पहले ही ले रखा था। वे तदनुसार पृथ्वी पर राज्य करने लगे। समस्त संसार पर राज्य करते हुए वे अपने पिता के आदेशों का पालन करने लगे और उन्होंने विश्वरूप की कन्या पंचजनी से विवाह कर लिया।

श्लोक 2: जिस प्रकार मिथ्या अहंकार से भूत-तन्मात्र (सूक्ष्म-इन्द्रिय विषय) उत्पन्न होते हैं वैसे ही महाराज भरत को अपनी पत्नी पंचजनी के गर्भ से पाँच पुत्र प्राप्त हुए। इन पुत्रों के नाम थे— सुमति, राष्ट्रभृत, सुदर्शन, आवरण तथा धूम्रकेतु।

श्लोक 3: पहले इस देश का नाम अजनाभवर्ष था, किन्तु महाराज भरत के शासन काल से इसका नाम भारतवर्ष पड़ा।

श्लोक 4: भरत महाराज इस पृथ्वी पर अत्यन्त ज्ञानी तथा अनुभवी राजा थे। वे स्वयं अपने कार्यों में संलग्न रह कर प्रजा पर अच्छी प्रकार से राज्य करते थे। वे अपनी प्रजा के प्रति उतने ही वत्सल थे जितने उनके पिता तथा पितामह रह चुके थे। उन्होंने प्रजा को अपने अपने कर्तव्यों में व्यस्त रख कर इस पृथ्वी पर शासन किया।

श्लोक 5: राजा भरत ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक अनेक प्रकार के यज्ञ किये। इनके नाम हैं अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशु-यज्ञ (जिसमें अश्व की बलि दी जाती थी) तथा सोम-यज्ञ (जिसमें सोमरस प्रयुक्त होता था) भेंट किया जाता था । कभी ये यज्ञ पूर्ण रूप से तो कभी आंशिक रूप में सम्पन्न किये जाते थे। प्रत्येक दशा में समस्त यज्ञों में चातुर्होत्र नियमों का दृढ़ता से पालन किया जाता था। इस प्रकार भरत महाराज भगवान् की उपासना करते थे।

श्लोक 6: विभिन्न यज्ञों के प्रारम्भिक कार्यों को कर लेने के बाद महाराज भरत यज्ञफलों को धर्म के नाम पर भगवान् वासुदेव को अर्पण कर देते थे। अर्थात्, वे भगवान् वासुदेव कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए समस्त यज्ञ करते थे। महाराज भरत सोचते थे कि सभी देवता भगवान् वासुदेव के शरीर के अंगस्वरूप हैं और वैदिक मंत्रों में जो भी वर्णित है वे उसके नियन्ता हैं। इस प्रकार से चिन्तन के फलस्वरूप महाराज भरत आसक्ति, काम तथा लोभ जैसे भौतिक कल्मष से मुक्त थे। जब पुरोहितगण अग्नि में हवि अर्पित करने वाले होते तो महाराज भरत को यह ज्ञात हो जाता था कि विभिन्न देवताओं को दी जाने वाली यह हवि ईश्वर के विभिन्न अवयवों (अंगों) के निमित्त है। उदाहरणार्थ, इन्द्र भगवान् के बाहु स्वरूप और सूर्य उनके नेत्र हैं। इस प्रकार महाराज भरत ने विचार किया कि विभिन्न देवताओं को दी जाने वाली आहुतियाँ वास्तव में भगवान् वासुदेव के अंग-प्रत्यंग के निमित्त हैं।

श्लोक 7: इस प्रकार यज्ञों से परिष्कृत महाराज भरत का हृदय सर्वथा कल्मषहीन हो गया। दिन प्रति दिन वासुदेव श्रीकृष्ण के प्रति उनकी भक्ति बढ़ती रही। वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण आदि भगवान् हैं, जो परमात्मा रूप में तथा निर्गुण ब्रह्म के रूप में प्रकट होते हैं। योगी लोग अपने हृदय में स्थित परमात्मा का ध्यान धरते हैं, ज्ञानी परम सत्य निर्गुण ब्रह्म के रूप में उपासना करते हैं और भक्त जन शास्त्रों में वर्णित दिव्य देहधारी भगवान् वासुदेव की आराधना करते हैं। उनका शरीर श्रीवत्स, कौस्तुभ मणि तथा पुष्पहार से सुशोभित है और वे हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण किये हुए हैं। नारद जैसे भक्त अपने अन्त:करण में उनका सदा ध्यान धरते हैं।

श्लोक 8: प्रारब्ध ने महाराज भरत के लिए भौतिक ऐश्वर्य-भोग की अवधि एक करोड़ वर्ष नियत कर दी थी। जब यह अवधि समाप्त हुई तो उन्होंने गृहस्थ जीवन त्याग दिया और अपने पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्ति को अपने पुत्रों में बाँट दिया, उन्होंने समस्त ऐश्वर्य के आगार अपने पैतृकगृह को छोड़ दिया और वे पुलहाश्रम के लिए चल पड़े जो हरद्वार में स्थित है। वहाँ शालग्राम शिलाएँ प्राप्त होती हैं।

श्लोक 9: पुलह आश्रम में भगवान् हरि अपने भक्तों के दिव्य वात्सल्य-वश होकर दृश्य होते रहते हैं और उन सबकी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं।

श्लोक 10: पुलह आश्रम में गण्डकी नदी है जो समस्त नदियों में श्रेष्ठ है। यहाँ इन समस्त स्थलों को पवित्र करने वाली शालग्राम शिलाएँ (संगमरमर की बटियाँ) हैं। इनमें ऊपर तथा नीचे दोनों ओर नाभि जैसे चक्र दृष्टिगोचर होते हैं।

श्लोक 11: पुलह आश्रम के उपवन में महाराज भरत अकेले रहकर अनेक प्रकार के फूल, किसलय तथा तुलसीदल एकत्र करने लगे। वे गंडकी नदी का जल तथा विभिन्न प्रकार के मूल, फल तथा कन्द भी एकत्र करते। वे इन सबसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव को भोजन अर्पित करते और उनकी आराधना करते हुए सन्तुष्ट रहने लगे। इस प्रकार उनका हृदय अत्यन्त निष्कलुष हो गया और उन्हें भौतिक सुख के लिए लेशमात्र भी इच्छा न रही। उनकी समस्त भौतिक कामनाएँ दूर हो गईं। इस स्थिर दशा में उन्हें परम सन्तोष हुआ और वे भक्ति में बने रहे।

श्लोक 12: इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ भक्त महाराज भरत ईश्वर की भक्ति में निरन्तर लगे रहे। स्वाभाविक रूप से वासुदेव श्रीकृष्ण के प्रति उनका प्रेम बढ़ता गया और अन्तत: उनका हृदय द्रवित हो उठा। फलत: धीरे-धीरे समस्त विधि-विधानों के प्रति उनकी आसक्ति जाती रही। उन्हें रोमांच होने लगा और आह्लाद के सभी शारीरिक लक्षण (भाव) प्रकट होने लगे। उनके नेत्रों से अश्रुओं की अविरल धारा बहने लगी जिससे वे कुछ भी देखने में असमर्थ हो गये। इस प्रकार वे निरन्तर ईश्वर के अरुण चरणारविन्द पर ध्यान लगाये रहते। उस समय उनका सरोवर के सदृश हृदय आनन्द- जल से पूरित हो गया। जब उनका मन इस सरोवर में निमग्न हो गया तो वे नियमपूर्वक सम्पन्न की जाने वाली भगवद् पूजा भी भूल गये।

श्लोक 13: महाराज भरत अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे। उनके शीश पर घुँघराले बालों की राशि थी जो दिन में तीन बार स्नान करने से गीली थी। वे मृगचर्म धारण करते और स्वर्णिम तेजोमय शरीर तथा सूर्य के भीतर वास करने वाले श्रीनारायण की पूजा करते। वे ऋग्वेद की ऋचाओं का जप करते हुए भगवान् नारायण की उपासना करते और सूर्योदय होते ही निम्नलिखित श्लोक का पाठ करते।

श्लोक 14: “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् शुद्ध सत्त्व में स्थित हैं। वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आलोकित करते हैं और अपने भक्तों को सभी वर देते हैं। ईश्वर ने अपने दिव्य तेज से इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की है। वे अपनी ही इच्छा से इस ब्रह्माण्ड में परमात्मा के रूप में प्रविष्ट हुए और अपनी विभिन्न शक्तियों से भौतिक सुख की इच्छा रखने वाले समस्त जीवों का पालन करते हैं। ऐसे बुद्धिदायक भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।”

Leave a Comment