अध्याय 6: भगवान् ऋषभदेव के कार्यकलाप
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में भगवान् ऋषभदेव के देह-त्याग का वर्णन है। जब उनका शरीर दावाग्नि में जल रहा था, तब भी वे अपने शरीर से आसक्त न थे। जब कर्म-बीज को ज्ञान की अग्नि से जलाया…
श्लोक 1: राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा—हे भगवन्, जो पूर्णरूपेण विमल हृदय हैं उन्हें भक्तियोग से ज्ञान प्राप्त होता है और सकाम कर्म के प्रति आसक्ति जलकर राख हो जाती है। ऐसे व्यक्तियों में योग शक्तियाँ स्वत: उत्पन्न होती हैं। इनसे किसी प्रकार का क्लेश नहीं पहुँचता, तो फिर ऋषभदेव ने उनकी उपेक्षा क्यों की?
श्लोक 2: श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया—हे राजन्, तुमने बिल्कुल सत्य कहा है। किन्तु जिस प्रकार चालाक बहेलिया पशुओं को पकडऩे के बाद उन पर विश्वास नहीं करता, क्योंकि वे भाग सकते हैं। उसी प्रकार महापुरुष अपने मन पर भरोसा नहीं करते। दरअसल, वे सदा जागरूक रहते हुए मन की गति पर नजर रखे रहते हैं।
श्लोक 3: सभी विद्वानों ने अपने-अपने मत व्यक्त किये हैं। मन स्वभाव से अत्यन्त चंचल है। मनुष्य को चाहिए कि वे इससे मित्रता न करे। यदि हम मन पर पूर्ण विश्वास करते हैं, तो यह किसी क्षण धोखा दे सकता है। यहाँ तक कि शिवजी श्रीकृष्ण के मोहिनी रूप को देखकर उत्तेजित हो उठे और सौभरि मुनि भी योग की सिद्धावस्था से च्युत हो गये।
श्लोक 4: व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषों के बहकावे में आसानी से आकर कभी कभी अपने पति का उनसे बध करवा देती है। यदि योगी अपने मन के ऊपर संयम नहीं रखता और उसे अवसर (छूट) प्रदान करता है, तो उसका मन एक प्रकार से काम, क्रोध तथा लोभ जैसे शत्रुओं को प्रश्रय देगा है, जो निश्चय ही योगी को मार डालेंगे।
श्लोक 5: काम, क्रोध, मद, लोभ, पश्चाताप, मोह तथा भय का मूल कारण तो मन ही है। ये सारे मिल कर कर्म-बन्धन की रचना करते हैं। भला कौन बुद्धिमान मन पर विश्वास कर सकेगा?
श्लोक 6: भगवान् ऋषभदेव इस ब्रह्माण्ड के समस्त राजाओं में प्रमुख थे, किन्तु अवधूत का भेष तथा उसकी भाषा स्वीकार करके वे इस प्रकार आचरण कर रहे थे मानो जड़ तथा बद्ध जीव हों। फलत: कोई उनके ईश्वरीय ऐश्वर्य को नहीं देख सका। उन्होंने योगियों को देह त्यागने की विधि सिखाने के लिए ही ऐसा आचरण किया; तो भी वे वासुदेव कृष्ण के अंश रूप बने रहे। इस दशा में रहते हुए उन्होंने इस संसार में भगवान् ऋषभदेव के रूप में की गई लीलाओं को त्याग दिया। यदि कोई ऋषभदेव के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए इस सूक्ष्म देह को त्याग सकता है, तो उसे पुन: भौतिक देह नहीं धारण करनी पड़ती।
श्लोक 7: वास्तव में भगवान् ऋषभदेव के कोई भौतिक शरीर न था, किन्तु योगमाया से वे अपने शरीर को भौतिक मान रहे थे। अत: सामान्य मनुष्य की भाँति आचरण करके उन्होंने वैसी मानसिकता का त्याग किया। वे संसार भर में घूमने लगे। घूमते-घूमते वे दक्षिण भारत के कर्णाट प्रदेश में पहुँचे जहाँ के रास्ते में कोंक, वेंक तथा कुटक पड़े। इस दिशा में घूमने की उनकी कोई योजना न थी, किन्तु कुटकाचल के निकट उन्होंने एक जंगल मे प्रवेश किया। उन्होंने अपने मुँह में पत्थर के टुकड़े भर लिए और जंगल में नग्न तथा बाल बिखेरे पागल की भाँति घूमने लगे।
श्लोक 8: जब वे भटक रहे थे तो प्रबल दावाग्नि लग गई। यह अग्नि वायु से झकझोरे गये बाँसों की रगड़ से उत्पन्न हुई थी। इस अग्नि में कुटकाचल का पूरा जंगल तथा ऋषभदेव का शरीर भस्मसात् हो गए।
श्लोक 9: शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को आगे बताया कि हे राजन्, कोंक, वेंक तथा कुटक के राजा ने, जिसका नाम अर्हत् था, ऋषभदेव के कार्य-कलापों के विषय में सुना और उसने ऋषभदेव के नियमों का अनुकरण करते हुए एक नवीन धर्म-पद्धति चला दी। पापमय कर्मों के इस युग, कलियुग, का लाभ उठाकर मोहवश राजा अर्हत ने बाधारहित वैदिक नियमों को छोड़ दिया और वेदविरुद्ध एक नवीन धर्म-पद्धति गढ़ ली। यही जैन धर्म का शुभारम्भ था। अन्य अनेक तथाकथित धर्मों ने इस नास्तिकवाद को ग्रहण किया।
श्लोक 10: अधम तथा परमेश्वर की माया से मोहित व्यक्ति मूल वर्णाश्रम धर्म तथा उसके नियमों का परित्याग कर देंगे। वे नित्य तीन बार स्नान करना और ईश्वर की आराधना करना छोड़ देंगे। वे शौच तथा परमेश्वर को त्याग कर अटपटे नियमों को ग्रहण करेंगे। नियमित स्नान न करने अथवा अपना मुख न धोने से वे सदा गंदे रहेंगे और अपने केश नुचवाएँगे। ढोंग धर्म का अनुसरण करते हुए वे फूलेंगे, फलेंगे। इस कलिकाल में लोग अधार्मिक पद्धतियों की ओर अधिक उन्मुख होंगे। फलस्वरूप वे वेद, वेदों के अनुयायी ब्राह्मणों, भगवान् तथा अनेक भक्तों का उपहास करेंगे।
श्लोक 11: अधम लोग अपने अज्ञानवश वैदिक नियमों से हटकर चलने वाली धार्मिक प्रणाली का सूत्रपात करते हैं। वे अपने मानसिक ढोंगों के कारण स्वयं ही घोर अंधकार में गिरते हैं।
श्लोक 12: इस कलियुग में लोग रजो तथा तमो गुणों से भरे हुए हैं। भगवान् ऋषभदेव ने इन लोगों को माया के चंगुल से छुड़ाने के लिए ही अवतार लिया था।
श्लोक 13: विद्वानजन भगवान् ऋषभदेव के दिव्य गुणों का जाप इस प्रकार करते हैं—“ओह! इस पृथ्वीलोक में सात समुद्र तथा अनेक द्वीप और वर्ष हैं जिनमें से भारतवर्ष सबसे अधिक पवित्र है। भारतवर्ष के लोग भगवान् के कार्यकलापों का, ऋषभदेव तथा अन्य अनेक अवतारों के रूप में, गुणगान करने के अभ्यस्त हैं। ये सारे कार्य मानवता के कल्याण हेतु अत्यन्त शुभ हैं।”
श्लोक 14: “ओह! भला मैं प्रियव्रत के वंश के सम्बन्ध में क्या कहूँ जो इतना विमल तथा अत्यन्त विख्यात है। इसी वंश में परम पुरुष भगवान् ने अवतार लिया और कर्मफलों से मुक्त करने वाले धार्मिक नियमों का आचरण किया।”
श्लोक 15: “भला ऐसा कौन योगी है जो अपने मन से भी भगवान् ऋषभदेव के आदर्शों का पालन कर सके? उन्होंने उन समस्त योग-सिद्धियों का तिरस्कार कर दिया था जिसके लिए अन्य योगी लालायित रहते हैं। भला ऐसा कौन योगी है जो भगवान् ऋषभदेव की समता कर सके?”
श्लोक 16: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, “ऋषभदेव समस्त वैदिक ज्ञान, मनुष्यों, देवताओं, गायों तथा ब्राह्मणों के स्वामी हैं। मैं पहले ही उनके विशुद्ध, दिव्य कार्य-कलापों का विस्तार से वर्णन कर चुका हूँ जिनसे समस्त जीवात्माओं के पापकर्म मिट जाएँगे। भगवान् ऋषभदेव की लीलाओं का यह वर्णन समस्त मंगल वस्तुओं का आगार है। जो भी आचार्यों का अनुसरण करते हुए इन्हें ध्यान से सुनता या कहता है उसे निश्चय ही भगवान् वासुदेव के चरणकमलों की शुद्ध भक्ति प्राप्त होगी।”
श्लोक 17: भक्त जन भौतिक संसार के विभिन्न संकटों से मुक्त होने के लिए निरन्तर भक्ति-सरिता में स्नान करते रहते हैं। इससे उन्हें परम आनन्द प्राप्त होता है और साक्षात् मुक्ति उनकी सेवा करने आती है। तो भी वे उस सेवा को स्वीकार नहीं करते, भले ही भगवान् स्वयं क्यों न सेवा के लिए तत्पर हों। भक्तों के लिए मुक्ति महत्त्वहीन है, क्योंकि ईश्वर की दिव्य प्रेमाभक्ति प्राप्त हो जाने पर उनकी प्रत्येक आकांक्षा पूरी हो गई होती है और वे समस्त भौतिक कामनाओं से ऊपर उठ चुके होते हैं।
श्लोक 18: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—हे राजन्, परम पुरुष मुकुन्द सभी पांडवों तथा यदुवंशियों के वास्तविक पालक हैं। वे तुम्हारे गुरु, आराध्य अर्चाविग्रह, मित्र तथा तुम्हारे कर्मों के निदेशक हैं। यही नहीं, वे कभी-कभी दूत या सेवक के रूप में भी तुम्हारे परिवार की सेवा करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वे सामान्य सेवकों की तरह कार्य करते हैं। जो ईश्वर की सेवा में लगे रहकर प्रिय पात्र बनना चाहते हैं उन्हें मुक्ति सरलता से मिल जाती है, किन्तु वे अपनी प्रत्यक्ष सेवा करने का अवसर बहुत उनसे कम ही प्रदान करते हैं।
श्लोक 19: भगवान् ऋषभदेव को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध था, अत: वे आत्म-तुष्ट थे और उन्हें किसी बाह्य तुष्टि की आकांक्षा नहीं रह गई थी। अपने में पूर्ण होने के कारण उन्हें किसी सफलता की स्पृहा नहीं थी। जो वृथा ही देहात्मबुद्धि में लगे रहते हैं और भौतिकता का परिवेश तैयार करते हैं, वे अपने वास्तविक हित को नहीं पहचानते। भगवान् ऋषभदेव ने अहैतुकी कृपावश वास्तविक आत्मबुद्धि तथा जीवन लक्ष्य की शिक्षा दी। अत: हम उन भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार करते हैं।