अध्याय 25: भगवान् अनन्त की महिमा
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में शुकदेव गोस्वामी भगवान् शिव के उत्स अनन्त का वर्णन किया है जिनका शरीर पूर्णतया आध्यात्मिक हैं। भगवान् अनन्त पाताल लोक के मूल में निवास करते हैं।…
श्लोक 1: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा—हे राजन्, पाताल लोक से २,४०,००० मील नीचे श्रीभगवान् के एक अन्य अवतार निवास करते हैं। वे भगवान् अनन्त अथवा भगवान् संकर्षण कहलाते हैं और भगवान् विष्णु के अंश हैं। वे सदैव दिव्य पद पर आसीन हैं, किन्तु तमोगुणी देवता भगवान् शिव के आराध्य होने के कारण कभी-कभी तामसी कहलाते हैं। भगवान् अनन्त सभी बद्धजीवों के अहं तथा तमोगुण के प्रमुख देवता हैं। जब बद्धजीव यह सोचता है कि यह संसार भोग्य है और मैं उसका भोक्ता हूँ तो यह जीवन-दृष्टि संकर्षण द्वारा प्रेरित होती है। इस प्रकार संसारी बद्धजीव स्वयं को ही परमेश्वर मानने लगता है।
श्लोक 2: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—भगवान् अनन्त के सहस्र फणों में से एक फण के ऊपर रखा हुआ यह विशाल ब्रह्माण्ड श्वेत सरसों के दाने के समान प्रतीत होता है। भगवान् अनन्त के फण की तुलना में यह नगण्य है।
श्लोक 3: प्रलयकाल उपस्थित होने पर जब भगवान् अनन्तदेव सम्पूर्ण सृष्टि का संहार करना चाहते हैं, तो वे कुछ क्रुद्ध हो जाते हैं। तब उनकी दोनों भृकुटियों के बीच से त्रिशूल धारण किये हुए त्रिनेत्र रुद्र प्रकट होते हैं। यह रुद्र, जो संकर्षण कहलाते हैं, ग्यारह रुद्रों, अर्थात् भगवान् शिव के अवतारों का व्यूह होता है। वे सम्पूर्ण सृष्टि के संहार हेतु प्रकट होते हैं।
श्लोक 4: भगवान् संकर्षण के चरणकमलों के गुलाबी तथा पारदर्शी नाखून मानो दर्पण जैसे चमकाये गये बहुमूल्य मणि हैं। जब शुद्ध भक्त तथा नागों के अधिपति अत्यन्त भक्तिभाव से उन्हें नमस्कार करते हैं, तो उनके चरण-नखों में अपने सुन्दर मुखों की छाया देखकर अत्यन्त प्रमुदित हो उठते हैं। उनके गालों पर कान की देदीप्यमान् बालियाँ दमकती हैं और उनकी मुख-कान्ति अत्यन्त मोहक होती है।
श्लोक 5: भगवान् अनन्त की आकर्षक दीर्घ भुजाएँ कंगनों से आकर्षक ढंग से अलंकृत हैं और पूर्णतया आध्यात्मिक हैं। श्वेत होने के कारण वे चाँदी के ख भों सी प्रतीत होती हैं। जब भगवान् के शुभाशीर्वाद की इच्छुक नागराजों की कुमारियाँ उनकी बाहों में अगुरु, चन्दन तथा कुमकुम का लेप लगाती हैं, तो उनके स्पर्श से उनके भीतर कामेच्छा जाग्रत हो उठती है। उनके मनोभावों को समझ कर भगवान् जब इन राजकुमारियों को कृपापूर्ण मुस्कान से देखते हैं, तो वे यह सोचकर लजा जाती हैं कि वे उनके मनोभावों को जानते हैं। तब वे मनोहर मुसकान सहित भगवान् के मुखकमल को देखतीं हैं, जो उनके भक्तों के प्यार से प्रमुदित तथा मद-विह्वल घूमती हुई लाल-लाल आँखों से सुशोभित रहता है।
श्लोक 6: भगवान् संकर्षण अनन्त दिव्य गुणों के सागर हैं जिससे वे अनन्तदेव कहलाते हैं। वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अभिन्न हैं। इस जगत के समस्त जीवों के कल्याण हेतु वे अपने क्रोध तथा अपनी असहनशीलता को रोके हुए अपने धाम में निवास करते हैं।
श्लोक 7: शुकदेव गोस्वामी आगे बोले—देवता, असुर, उरग (सर्पदेव), सिद्ध, गंधर्व, विद्याधर तथा अनेक सिद्ध सन्तजन भगवान् की निरन्तर प्रार्थना करते रहते हैं। मद के कारण भगवान् विह्वल प्रतीत होते हैं और उनके नेत्रपूर्ण पुष्पित फूलों की भाँति इधर-उधर गति करते हैं। वे अपने मुख से निकली मधुर वाणी से अपने पार्षदों, देवताओं के प्रमुखों को प्रसन्न करते हैं। नीलाम्बर और कान में एक कुण्डल धारण किये हुए वे अपनी पीठ पर हल को अपने दो सुघड़ हाथों से पकड़े हुए हैं। वे इन्द्र के समान श्वेत लगते हैं, वे अपनी कटि में स्वर्णिम मेखला और गले में चिर नवीन तुलसी दलों की वैजयन्तीमाला धारण किये हैं। तुलसी दलों की मधु जैसी गन्ध से आकर्षित होकर मधुमक्खियाँ माला के चारों ओर मँडराती रहती हैं, जिससे माला और भी सुन्दर लगने लगती है। इस प्रकार भगवान् दिव्य लीलाओं में संलग्न रहते हैं।
श्लोक 8: यदि भौतिक जीवन से मुक्ति पाने के इच्छुक पुरुष शिष्य परम्परा से प्राप्त गुरु के मुख से अनन्तदेव के यश को सुनते हैं और यदि वे संकर्षण का निरन्तर ध्यान धरते हैं, तो भगवान् उनके अन्त:करण में प्रवेश करते हुए प्रकृति के तीनों गुणों के सारे कल्मष को दूर कर देते हैं और हृदय की उस कठोर ग्रंथि को काट देते हैं, जो सकाम कर्मों के द्वारा प्रकृति पर प्रभुत्व पाने की अभिलाषा के कारण अनन्त काल से दृढ़ता से बँधी हुई है। भगवान् ब्रह्मा के पुत्र नारद मुनि अपने पिता की सभा में अनन्तदेव के यश का सदैव गान करते हैं। वहाँ वे अपने द्वारा रचित शुभ श्लोकों का गान अपने तम्बूरे के साथ करते हैं।
श्लोक 9: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की दृष्टि फेरने से ही जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय के कारणस्वरूप भौतिक प्रकृति के गुणों को अपने-अपने कार्य में समर्थ कर देते हैं। परमात्मा अनन्त तथा अनादि हैं और एक होते हुए भी अपने को नाना रूपों में प्रकट करते हैं। भला ऐसे परमेश्वर के कार्यों को मानव समाज कैसे जान सकता है?
श्लोक 10: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के भीतर स्थूल व सूक्ष्म जगत का अस्तित्व विद्यमान है। अपने भक्तों पर अहैतुकी कृपावश वे विभिन्न दिव्य रूपों को प्रदर्शित करते हैं। परमेश्वर अत्यन्त उदार हैं एवं उनमें समस्त योग शक्तियाँ हैं। अपने भक्तों के मन को जीतने तथा उनके हृदय को आनन्दित करने के लिए वे नानाविध अवतारों में प्रकट होते हैं और अनेक लीलाएँ करते हैं।
श्लोक 11: यदि कोई आर्त अथवा पतित व्यक्ति भी प्रामाणिक गुरु से भगवान् का पवित्र नाम सुनकर उसका जप करता है, तो वह तुरन्त पवित्र हो जाता है। यदि वह हँसी में, अथवा अकस्मात् भी भगवन्नाम का जप करता है, तो वह तथा जो उसे सुनता है समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं। अत: भौतिक बन्धनों से छुटकारा चाहने वाला व्यक्ति भगवान् शेष के नाम-जप से कैसे कतरा सकता है? भला वह और किसकी शरण ग्रहण करे?
श्लोक 12: अपरिमित होने के कारण ईश्वर की शक्ति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अनेक विशाल पर्वतों, नदियों, सागरों, वृक्षों तथा जीवात्माओं से पूर्ण यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उनके सहस्रों फणों में से एक के ऊपर अणु के समान टिका हुआ है। भला, सहस्र जिह्वाओं से भी क्या कोई उनकी महिमा का वर्णन कर सकता है?
श्लोक 13: उन शक्तिमान भगवान् अनन्तदेव के महान् एवं यशस्वी गुणों का कोई पारावार नहीं है। वास्तव में उनका शौर्य अनन्त है। स्वयं आत्मनिर्भर होते हुए भी वे प्रत्येक वस्तु के आधार हैं। वे पाताललोक में वास करते हैं और इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण किये रहते हैं।
श्लोक 14: हे राजन्, मैंने अपने गुरु से जैसा सुना था, उसी रूप में मैंने बद्धजीवों के सकाम कर्मों एवं कामनाओं के अनुसार इस जगत की सृष्टि का पूर्ण वर्णन आपसे किया है। भौतिक कामनाओं से पूर्ण बद्धजीवों को विभिन्न लोकों में अनेक स्थान प्राप्त होते रहते हैं और इस प्रकार वे इसी भौतिक सृष्टि के भीतर रहते चले आते हैं।
श्लोक 15: हे राजन्, इस प्रकार मैंने आपको बताया है कि प्राय: मनुष्य किस प्रकार अपनी-अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं और उसी के अनुसार उच्च या निम्न लोकों में भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं। आपने ये बातें मुझसे पूछीं थी और मैंने जो अधिकारियों से सुना है उसे आपसे बता दिया। अब आगे क्या सुनाऊँ?