अध्याय 21: सूर्य की गतियों का वर्णन
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में सूर्य की गतियों का वर्णन हुआ है। सूर्य स्थिर नहीं है, यह भी अन्य ग्रहों की भाँति गतिमान है। सूर्य की गतियों से दिन और रात्रि की अवधि का निर्धारण होता…
श्लोक 1: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा—हे राजन्, मैंने यहाँ तक आपसे विद्वानों के अनुमानों के आधार पर ब्रह्माण्ड के व्यास (पचास करोड़ योजन या ४ अरबमील) तथा इसके सामान्य लक्षणों का वर्णन किया है।
श्लोक 2: जिस प्रकार गेहूँ के दाने को भागों में विभाजित कर देने पर निचले भाग के परिमाण (आकार) का ज्ञान होने पर ऊपरी भाग का पता लगाया जाता है उसी प्रकार भूगोलवेत्ताओं का कहना है कि इस ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग की माप को तभी समझा जा सकता है, जब निचले भाग की माप ज्ञात हो। भूलोक तथा द्युलोक के बीच का आकाश अन्तरिक्ष अथवा बाह्य- आकाश कहलाता है। यह भूलोक की चोटी तथा द्युलोक के निचले भाग को जोड़ता है।
श्लोक 3: उस अन्तरिक्ष के मध्य में ताप उत्पन्न करने वाले समस्त ग्रहों का राजा परम तेजवान सूर्य है जो अपने प्रकाश से समस्त ब्रह्माण्ड को तप्त करता है और उसको वास्तविक स्वरूप प्रदान करता है। यह समस्त जीवात्माओं को प्रकाश प्रदान करता है, जिससे वे देख पाते हैं। श्रीभगवान् की आज्ञानुसार वह उत्तरायण, दक्षिणायन होकर या विषुवत रेखा को पार करते हुए मन्द, शीघ्र और मध्यम गतियों से घूमता हुआ समयानुसार मकरादि राशियों में ऊँचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन तथा रात को बड़ा, छोटा या समान बनाता है।
श्लोक 4: जब सूर्य मेष या तुला राशि पर आता है, तो दिन और रात की अवधि समान हो जाती है। जब यह वृषभ इत्यादि पाँचों राशियों पर से गुजरता है, तो दिन (कर्क तक) बढ़ता जाता है और तब प्रति मास आधा घंटा घटता रहता है, जब तक दिन तथा रात्रि पुन: (तुला में) समान नहीं हो जाते।
श्लोक 5: जब सूर्य वृश्चिक इत्यादि पाँच राशियों से होकर गुजरता है, तो दिन घटता है (जब तक यह मकर राशि पर नहीं आ जाता) और फिर क्रमश: मास प्रति मास बढ़ता जाता है जब तक दिन और रात समान (मेष पर) नहीं हो जाते।
श्लोक 6: सूर्य के दक्षिणायन होने तक दिन बढ़ते रहते हैं और उत्तरायण होने तक रातें लम्बी होती जाती हैं।
श्लोक 7: श्रीशुकदेव गोस्वामी आगे बोले—हे राजन्, जैसा पहले कह चुका हूँ पण्डितों का कहना है कि मानसोत्तर पर्वत के चारों ओर सूर्य का परिक्रमा-पथ ९,५१,००,००० (नौ करोड़ इक्यावन लाख) योजन (७६ करोड़ आठ लाख मील) है। मानसोत्तर पर्वत पर मेरु के पूर्व की ओर इन्द्र की देवधानी, दक्षिण में यमराज की संयमनी, पश्चिम में वरुण की निम्लोचनी तथा उत्तर में चन्द्रमा की विभावरी नामक पुरियाँ स्थित हैं। इन सभी पुरियों में मेरु के चारों ओर विशिष्ट कालों के अनुसार सूर्योदय, मध्याह्न, सूर्यास्त तथा अर्धरात्रि होती रहती है और तदनुसार समस्त जीवात्माएँ अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त अथवा निवृत्त होती रहती हैं।
श्लोक 8-9: सुमेरु पर्वत पर रहने वाले प्राणी मध्याह्न के समय सदा ही अत्यन्त तप्त होते हैं, क्योंकि सूर्यदेव सदैव उनके सिर के ऊपर रहता है। यद्यपि सूर्य घड़ी की विपरीत दिशा में सुमेरु पर्वत को अपने बाईं ओर छोड़ता हुआ जाता है, किन्तु यह घड़ी की दिशा में भी घूमता है, जिससे पर्वत उसके दाईं ओर रहता दिखता है, क्योंकि उस पर दक्षिणावर्त पवन का प्रभाव पड़ता है। जहाँ सर्वप्रथम उदय होता सूर्य दिखता है, उसके ठीक दूसरी ओर वह अस्त होता दिखता है। उससे होकर एक सीधी रेखा खींची जाये तो इस रेखा के दूसरे सिरे के प्राणी मध्यरात्रि का अनुभव कर रहे होंगे। इसी प्रकार यदि अस्ताचल के प्राणी अपनी ठीक दूसरी ओर स्थित देशों में जायें तो उन्हें सूर्य उसी स्थिति में नहीं मिलेगा।
श्लोक 10: सूर्य इन्द्र की पुरी देवधानी से यमराज की पुरी संयमनी तक पन्द्रह घडिय़ों (छ: घंटे) में कुल मिलाकर २,३७,७५,००० योजन (१९,०२,००,०००) की यात्रा करता है।
श्लोक 11: सूर्य यमराज की पुरी से वरुण की पुरी निम्लोचनी पहुँचता है और फिर वहाँ से चन्द्रदेव की पुरी विभावरी से होते हुए पुन: इन्द्रपुरी पहुँच जाता है। इसी प्रकार चन्द्रमा अन्यत्र नक्षत्रों तथा ग्रहों सहित ज्योतिश्चक्र में उदित और अस्त होता रहता है।
श्लोक 12: इस प्रकार त्रयीमय अर्थात् ॐ भूर्भुव: स्व: शब्दों द्वारा पूजित सूर्यदेव का रथ ऊपर वर्णित चारों पुरियों से होकर एक मुहूर्त में ३४,००,८०० योजन (२,७२,०६,४०० मील) की गति से घूमता रहता है।
श्लोक 13: सूर्यदेव के रथ में एक ही चक्र है, जिसे संवत्सर कहते हैं। बारहों महीने इसके बारह अरे, छह ऋतु, छ: नेमियाँ (हाल) तथा तीन चार्तुमास इसके तीन भागों में विभाजित आँवने (नाभि) हैं। चक्र को धारण करने वाले धुरे का एक सिरा सुमेरु पर्वत की चोटी पर और दूसरा सिरा मानसोत्तर पर्वत पर टिका है। धुरे के बाहरी सिरे पर लगा यह पहिया कोल्हू के चक्र की भाँति निरन्तर मानसोत्तर पर्वत के चक्कर लगाता है।
श्लोक 14: कोल्हू के समान यह पहली धुरी एक दूसरी धुरी में लगी है जो इसकी चौथाई के बराबर लम्बी (३९,३७,५०० योजन अथवा ३,१५,००,००० मील) है। इस द्वितीय धुरी का ऊपरी भाग वायु की रस्सी द्वारा ध्रुवलोक से जुड़ा है।
श्लोक 15: हे राजन्, रथ का भीतरी भाग ३६,००,००० योजन (२,८८,००,००० मील) लम्बा तथा इसका एक चौथाई चौड़ा ९,००,००० योजन तथा ७२,००,०००) है। रथ के घोड़ों के नाम गायत्री आदि वैदिक छन्दों पर रखे गये हैं और उन्हें अरुणदेव ऐसे जुएँ में जोतता है जो ९,००,००० योजन चौड़ा है। यह रथ लगातार सूर्यदेव को लिये रहता है।
श्लोक 16: यद्यपि अरुणदेव सूर्यदेव के सम्मुख बैठ कर रथ को हाँकते हैं तथा घोड़ों को वश में रखते हैं, तो भी वे पीछे की ओर सूर्यदेव को देखते रहते हैं।
श्लोक 17: अँगूठे के आकार वाले वालखिल्य नामक साठ हजार ऋषिगण सूर्य के आगे रहकर उनका स्वस्तिवाचन करते हैं।
श्लोक 18: इसी प्रकार अन्य मुनि, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, यक्ष, राक्षस तथा देवतागण जो संख्या में चौदह हैं, किन्तु दो-दो के जोड़े में विभाजित हैं, प्रतिमास नया नाम धारण करके अनेक नामधारी, सर्वाधिक शक्तिमान देवता सूर्य के रूप में श्रीभगवान् की आराधना करने के लिए निरन्तर विभिन्न कर्मकाण्डों से उपासना करते रहते हैं।
श्लोक 19: हे राजन्, भूमण्डल की परिक्रमा करते हुए सूर्यदेव एक क्षण में दो हजार योजन तथा दो कोस (१६,००४ मील) की गति से ९,५१,००,००० योजन (७६,०८८०,००० मील) की दूरी तय करता है।