श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 5) | Shrimad Bhagavatam Hindi

अध्याय 20: ब्रह्माण्ड रचना का विश्लेषण

संक्षेप विवरण: इस अध्याय में प्लक्षद्वीप से प्रारम्भ करके विभिन्न द्वीपों तथा उनको घेरने वाले समुद्रों का वर्णन है। इसके अन्तर्गत लोकालोक नामक पर्वत की स्थिति और उसके आकार-प्रकार…

श्लोक 1: महर्षि शुकदेव गोस्वामी बोले—इसके पश्चात् मैं प्लक्षादि अन्य छ: द्वीपों के आकार प्रकार, लक्षण तथा स्थिति का वर्णन करूँगा।

श्लोक 2: जिस प्रकार सुमेरु पर्वत चारों ओर से जम्बूद्वीप द्वारा घिरा हुआ है, उसी प्रकार जम्बूद्वीप भी लवण के सागर से घिरा है। जम्बूद्वीप की चौड़ाई १,००,००० योजन (८,००,००० मील) है और लवण का सागर भी इतना ही चौड़ा है। जिस तरह कभी-कभी दुर्ग की खाई उपवन से घिरी रहती है उसी प्रकार जम्बूद्वीप को घेरने वाला लवण-सागर भी प्लक्षद्वीप से घिरा हुआ है। प्लक्षद्वीप की चौड़ाई लवण के सागर से दुगुनी अर्थात् २,००,००० योजन (१६,००,००० मील) है। प्लक्षद्वीप में स्वर्ण के समान चमकीला एक वृक्ष है जो जम्बूद्वीप स्थित जम्बूवृक्ष के बराबर ऊँचा है। इसके मूल भाग में सात ज्वालाओं वाली अग्नि है। यह वृक्ष प्लक्ष का है, अत: इस द्वीप का नाम प्लक्षद्वीप पड़ा। यह द्वीप महाराज प्रियव्रत के एक पुत्र इध्मजिह्व द्वारा शासित था। उन्होंने सातों द्वीपों के नाम अपने सात पुत्रों के नामों पर रखे और उन्हें अपने पुत्रों को देकर, सक्रिय जीवन से अवकाश प्राप्त कर वे स्वयं श्रीभगवान् की सेवा में लीन रहने लगे।

श्लोक 3-4: इन सात वर्षों के नाम उन सातों पुत्रों के अनुसार क्रमश: शिव, यवस, सुभद्र, शान्त, क्षेम, अमृत तथा अभय पड़े। इन सात वर्षों में सात पर्वत तथा सात नदियाँ हैं। पर्वतों के नाम हैं— मणिकूट, वज्रकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान्, सुपर्ण, हिरण्यष्ठीव तथा मेघमाल और नदियों के नाम हैं—अरुणा, नृम्णा, आंगिरसी, सावित्री, सुप्रभाता, ऋतम्भरा तथा सत्यम्भरा। इन नदियों के स्पर्श करने या स्नान करने से भौतिक मल तुरन्त दूर हो जाते और प्लक्षद्वीप में रहने वाली हंस, पतंग, ऊर्ध्वायन तथा सत्यांग नामक चार जातियाँ अपने को इसी प्रकार पवित्र करती हैं। इस द्वीप के वासी एक हजार वर्ष तक जीवित रहते हैं। वे देवताओं के समान सुन्दर हैं और उनकी सन्तानें भी उन्हीं के अनुरूप हैं। वे वेदों में वर्णित अनुष्ठानों को पूरा करके तथा श्रीभगवान् के प्रतिनिधि स्वरूप सूर्यदेव की उपासना करके सूर्यलोक को प्राप्त होते हैं, जो स्वर्गलोक ही है।

श्लोक 5: [इस मंत्र के द्वारा प्लक्षद्वीप के वासी परब्रह्म की उपासना करते हैं।] हम सूर्य देवता की शरण ग्रहण करें जो परम प्रकाशित, पुराणपुरुष श्रीभगवान् के प्रतिबिम्ब हैं। विष्णु ही एकमात्र आराध्य हैं। वही वेद हैं, वही धर्म हैं और वही शुभाशुभ फलों के स्रोत हैं।

श्लोक 6: हे राजन्, प्लक्ष आदि पाँच द्वीपों में सभी वासियों में जन्म से ही आयु, मनोबल, इन्द्रिय बल, शारीरिक बल, बुद्धि और शौर्य (पराक्रम) समान रूप में प्रकट रहते हैं।

श्लोक 7: प्लक्षद्वीप अपने ही समान चौड़ाई वाले इक्षुरस के समुद्र से घिरा हुआ है। इसी प्रकार उसके आगे उससे दुगुने परिमाण वाला शाल्मलीद्वीप है (४,००,००० योजन अथवा ३२,००,००० मील चौड़ा) जो उतने ही चौड़ाईवाले जल समूह अर्थात् सुरासागर से घिरा हुआ है।

श्लोक 8: शाल्मलीद्वीप में शाल्मली का एक वृक्ष है, जिससे इस द्वीप का यह नाम पड़ा। यह प्लक्ष वृक्ष के बराबर चौड़ा और ऊँचा है, अर्थात् १०० योजन ८०० मील चौड़ा तथा ११०० योजन ८८०० मील ऊँचा है। विद्वानों का कथन है कि यह विशाल वृक्ष पक्षियों के राजा तथा विष्णु के वाहन गरुड़ का निवासस्थान है। यहाँ गरुड़ भगवान् विष्णु की वैदिक स्तुति करता है।

श्लोक 9: शाल्मलीद्वीप के स्वामी महाराज प्रियव्रत के पुत्र यज्ञबाहु ने इस द्वीप को सात भागों में विभाजित करके उन्हें अपने पुत्रों को दे दिया। इन विभागों के नाम उनके पुत्रों के नामों पर हैं— सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र, आप्यायन तथा अविज्ञात।

श्लोक 10: इन सातों विभागों में सात पर्वत हैं, जिनके नाम स्वरस, शतशृंग, वामदेव, कुन्द, मुकुन्द, पुष्पवर्ष तथा सहस्रश्रुति हैं। उनमें सात नदियाँ भी हैं जिनके नाम अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहू, रजनी, नन्दा तथा राका हैं। ये आज भी विद्यमान हैं।

श्लोक 11: इन द्वीपों के वासी श्रुतिधर, वीर्यधर, वसुन्धर तथा इषन्धर नामों से विख्यात हैं और वे वर्णाश्रम धर्म का कठोरता से पालन करते हुए श्रीभगवान् के सोम नामक अंश की, जो साक्षात् चन्द्रदेव हैं, उपासना करते हैं।

श्लोक 12: [शाल्मलीद्वीप के वासी चन्द्रदेवता की आराधना निम्नलिखित शब्दों से करते हैं।] पितरों तथा देवताओं को अन्न देने के उद्देश्य से चन्द्रदेव ने अपने ही किरणों से मास को शुक्ल तथा कृष्ण नामक दो पक्षों में विभाजित किया है। चन्द्र देवता काल का विभाजन करने वाला और ब्रह्माण्ड के वासियों का अधिपति है। अत: हम यह प्रार्थना करते हैं कि वह हमारा अधिपति तथा पथप्रदर्शक बना रहे। हम उसे सादर नमस्कार करते हैं।

श्लोक 13: सुरासागर के बाहर कुशद्वीप नामक एक अन्य द्वीप है जो सुरासागर से दूना अर्थात् ८,००,००० योजन (६४,००,००० मील) चौड़ा है। जिस प्रकार शाल्मली द्वीप सुरासागर से घिरा है उसी प्रकार कुशद्वीप अपने तुल्य विस्तार वाले घृतसागर से घिरा है। इस द्वीप में कुशघास के पौधे पाये जाते हैं, इसीलिए द्वीप का यह नाम पड़ा है। यह कुशघास परमेश्वर की इच्छा के अनुसार देवताओं द्वारा उत्पन्न की गई थी और द्वितीय अग्नि जैसी दृष्टिगोचर होती है, किन्तु इसकी ज्वालाएँ अत्यन्त मृदु तथा मनोहर हैं। इसके नव-अंकुर (शिखर) समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते हैं।

श्लोक 14: हे राजन्, महाराज प्रियव्रत के दूसरे पुत्र हिरण्यरेता इस द्वीप के राजा थे। उन्होंने इसके सात विभाग किये और उसके एक-एक विभाग को उत्तराधिकारी के अनुसार अपने सातों पुत्रों वसु, वसुदान, दृढ़रुचि, नाभिगुप्त, स्तुत्यव्रत, विविक्त और वामदेव को दे दिये। राजा स्वयं गृहस्थ जीवन से विरक्त होकर तप करने लगे।

श्लोक 15: इन सातों द्वीपों में सात सीमान्त पर्वत हैं, जिनके नाम चक्र, चतु:शृंग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक, ऊर्ध्वरोमा तथा द्रविण हैं। इसी प्रकार सात नदियाँ हैं जिनके नाम रमकुल्या, मधुकुल्या, मित्रविन्दा, श्रुतविन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता तथा मंत्रमाला हैं।

श्लोक 16: कुशद्वीप के वासी कुशल, कोविद, अभियुक्त तथा कुलक नामों से विख्यात हैं। वे क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों के सदृश हैं। उक्त नदियों के जल में स्नान करके ये सभी वासी पवित्र होते हैं। वे वैदिक शास्त्रों के अनुसार अनुष्ठानों को सम्पन्न करने में कुशल हैं। इस प्रकार वे अग्नि देवता के रूप में भगवान् की उपासना करते हैं।

श्लोक 17: [यह वह मंत्र है, जिसके द्वारा कुशद्वीप के वासी अग्निदेव की पूजा करते हैं।] हे अग्निदेव, आप श्रीभगवान् हरि के अंश रूप हैं और उन तक समस्त हवियों को पहुँचाते हैं। अत: हम आपसे प्रार्थना करते कि हम देवताओं को जो भी यज्ञ-सामग्री अर्पण कर रहे हैं, उसे आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को अर्पित करें, क्योंकि परमेश्वर ही असली भोक्ता हैं।

श्लोक 18: घृतसागर के बाहर क्रौंचद्वीप नाम का एक अन्य द्वीप है, जिसकी चौड़ाई घृतसागर से दुगुनी अर्थात् १६,००,००० योजन (१२,८००,००० मील) है। जिस प्रकार कुशद्वीप घृतसागर से घिरा हुआ है उसी प्रकार क्रौंचद्वीप अपने ही समान चौड़ाई वाले दुग्ध-सागर (क्षीरसागर) से घिरा हुआ है। क्रौंचद्वीप में क्रौंच नामक एक विशाल पर्वत है, जिसके कारण इस द्वीप का यह नाम पड़ा।

श्लोक 19: यद्यपि कार्त्तिक्ये के शस्त्र प्रहार से क्रौंच पर्वत के ढालों की वनस्पतियाँ विनष्ट हो गई थीं, किन्तु चारों ओर से क्षीरसागर द्वारा सदा सिंचित होने एवं वरुण देव के द्वारा संरक्षित होने से यह पर्वत पुन: निर्भीक हो गया है।

श्लोक 20: इस द्वीप के अधिपति महाराज प्रियव्रत के अन्य पुत्र थे जिनका नाम घृतपृष्ठ था और जो अत्यन्त विद्वान थे। उन्होंने भी अपने देश को सात भागों में विभाजित करके उनके नाम अपने सातों पुत्रों के नामों के अनुसार रखे और स्वयं गृहस्थ जीवन से विरक्त होकर परम कल्याणकारी, समस्त आत्माओं की आत्मा श्रीभगवान् के पदारविन्दों में शरण ली। इस प्रकार वे सिद्धि को प्राप्त हुए।

श्लोक 21: महाराज घृतपृष्ठ के पुत्रों के नाम आम, मधुरुह, मेघपृष्ठ, सुधामा, भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण तथा वनस्पति थे। उनके द्वीप में सात पर्वत थे, जो सात देशों की सीमाओं को सूचित करने वाले थे और सात नदियाँ भी थीं। पर्वतों के नाम हैं-शुक्ल, वर्धमान, भोजन, उपबर्हिण, नन्द, नन्दन तथा सर्वतोभद्र। नदियों के नाम अभया, अमृतौघा, आर्यका, तीर्थवती, रूपवती, पवित्रवती तथा शुक्ला हैं।

श्लोक 22: क्रौंच द्वीप के निवासी चार वर्णों में विभाजित हैं—पुरुष, ऋषभ, द्रविण तथा देवक। वे जल के स्वामी वरुण जिन का रूप जल के समान है के चरणारविन्दों पर इन पवित्र नदियों की जलांजलि अर्पित करके श्रीभगवान् की पूजा करते हैं।

श्लोक 23: [क्रौंच द्वीप के निवासी इस मंत्र से उपासना करते हैं] हे नदियों के जल, आपको श्रीभगवान् से शक्ति प्राप्त है। अत: आप भूलोक, भुवर्लोक तथा स्वर्लोक को पवित्र करते हैं। अपने स्वाभाविक पद के कारण आप पापों को ग्रहण करते हैं, इसलिए हम आपका स्पर्श करते हैं। आप हमें पवित्र करते रहें।

श्लोक 24: क्षीर समुद्र से बाहर शाकद्वीप है, जिसकी चौड़ाई ३२,००,००० योजन (२,५६,००,००० मील) है। जिस प्रकार क्रौंचद्वीप अपने ही क्षीरसागर से घिरा है उसी प्रकार शाकद्वीप अपने ही समान चौड़ाई वाले मट्ठे के समुद्र से घिरा है। शाकद्वीप में एक विशाल शाक वृक्ष है, जिससे इस द्वीप का यह नाम पड़ा। यह वृक्ष अत्यन्त सुगन्धित है। इससे सारा द्वीप महकता रहता है।

श्लोक 25: इस द्वीप के स्वामी प्रियव्रत के ही पुत्र मेधातिथि थे। उन्होंने भी अपने द्वीप को सात भागों में विभाजित करके उनका नाम अपने पुत्रों के नाम पर रखा और उन्हें उन द्वीपों का राजा बना दिया। उनके इन पुत्रों के नाम हैं—पुरोजव, मनोजव, पवमान, धूम्रानीक, चित्ररेफ, बहुरूप तथा विश्वधार। इस द्वीप को विभाजित करके अपने पुत्रों को उनका राजा बनाकर मेधापति स्वयं विरक्त हो गये और उन्होंने अपने मन को श्रीभगवान् के चरणारविन्दों में लगाने के उद्देश्य से ध्यान-योग्य एक तपोवन में प्रवेश किया।

श्लोक 26: इन द्वीपों में भी सात मर्यादा पर्वत तथा सात ही नदियाँ हैं। पर्वतों के नाम ईशान, उरुशृंग, बलभद्र, शतकेशर, सहस्र-स्रोत, देवपाल तथा महानस हैं तथा नदियाँ अनघा, आयुर्दा, उभयस्पृष्टि, अपराजिता, पंचपदी, सहस्रस्रुति तथा निजधृति हैं।

श्लोक 27: उन द्वीपों के वासी भी ऋतव्रत, सत्यव्रत, दानव्रत तथा अनुव्रत—इन चार वर्णों में विभक्त हैं, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के समान हैं। वे प्राणायाम तथा योग साधते हैं और समाधि द्वारा वायु रूप में परमेश्वर भगवान् की उपासना करते हैं।

श्लोक 28: [शाकद्वीप के निवासी वायु रूप में श्रीभगवान् की उपासना निम्नलिखित शब्दों से करते हैं] हे परम पुरुष, देह के भीतर परमात्मा रूप में स्थित आप विभिन्न वायुओं यथा प्राण की विभिन्न क्रियाओं का संचालन करने वाले तथा समस्त जीवात्माओं का पालन करने वाले हैं। हे ईश्वर, हे परमात्मा, हे विराट जगत के नियामक, आप सभी प्रकार के संकटों से हमारी रक्षा करें।

श्लोक 29: दधि के समुद्र से बाहर पुष्कर नाम का एक अन्य द्वीप है जो इस समुद्र से दुगनी चौड़ाई वाला अर्थात् ६४,००,००० योजन (५,२२,००,००० मील) है। यह द्वीप अपने ही समान चौड़ाई वाले मधुर जल के सागर से घिरा हुआ है। पुष्कर द्वीप में अग्नि की ज्वालाओं के समान देदीप्यमान दस करोड़ स्वर्णिम पंखुडिय़ों वाला विशाल कमल का पुष्प है, जो सर्वशक्तिमान तथा इसी कारण कभी कभी भगवान् कहलाने वाले ब्रह्मा का आसन माना जाता है।

श्लोक 30: उस द्वीप के बीचोंबीच, भीतरी तथा बाहरी ओर की सीमा बनाने वाला मानसोत्तर नाम का एक पर्वत है। यह दस हजार योजन (८०,००० मील) ऊँचा और इतना ही चौड़ा है इसके ऊपर चारों दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों की पुरियाँ हैं। सूर्यदेव अपने रथ में आरूढ़ होकर इस पर्वत के ऊपर संवस्तर नामक परिधि में, जो मेरु पर्वत का चक्कर लगाती है, यात्रा करते हैं। उत्तर दिशा में सूर्य का पथ उत्तरायण और दक्षिण दिशा में दक्षिणायन कहलाता है। देवताओं के लिए एक दिशा में दिन होता है, तो दूसरी में रात्रि।

श्लोक 31: इस द्वीप का अधिपति महाराज प्रियव्रत का पुत्र वीतिहोत्र था जिसके रमणक तथा धातकी नामक दो पुत्र हुए। उसने इन दोनों पुत्रों को इस द्वीप के दोनों छोर दे दिये और स्वयं अपने अग्रज मेधातिथि के समान श्रीभगवान् की सेवा में तत्पर रहने लगा।

श्लोक 32: इस द्वीप के वासी अपनी भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए ब्रह्मा के रूप में श्रीभगवान् की आराधना करते हैं। वे इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं।

श्लोक 33: भगवान् ब्रह्मा कर्ममय कहलाते हैं, क्योंकि अनुष्ठानों को करके कोई भी उनका पद प्राप्त कर सकता है और उन्हीं से वैदिक अनुष्ठान-स्तुतियाँ प्रकट होती हैं। वे अविचल भाव से श्रीभगवान् की भक्ति करते हैं, अत: एक प्रकार से वे भगवान् से अभिन्न हैं। फिर भी उनकी उपासना एकान्तिक भाव से न करके द्वैत भाव से करनी चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि अपने को दास मानते हुए पर-ब्रह्म को ही परम आराध्य माने। अत: हम भगवान् ब्रह्मा को साक्षात् वेदज्ञान के रूप में नमस्कार करते हैं।

श्लोक 34: इसके पश्चात् मृदुल जल वाले सागर के आगे तथा इसको पूरी तरह घेरने वाला लोकालोक नामक पर्वत है जो देशों को सूर्य से प्रकाशित तथा अप्रकाशित इन दो भागों में विभाजित कर देता है।

श्लोक 35: मृदुल जल के सागर से आगे सुमेरु पर्वत के मध्य से लेकर मानसोत्तर पर्वत की सीमा तक जितना अन्तर है उतनी भूमि है। उस भूभाग में अनेक प्राणी रहते हैं। उसके आगे लोकालोक पर्वत तक फैली हुई दूसरी भूमि है जो स्वर्णमय है। स्वर्णमय सतह के कारण यह दर्पण की तरह सूर्य प्रकाश को परावर्तित कर देती है, अत: इसमें गिरी हुई वस्तु पुन: नहीं दिखाई पड़ती। फलत: सभी प्राणियों ने इस स्वर्णमयी भूमि का परित्याग कर दिया है।

श्लोक 36: जीवात्माओं से युक्त तथा बिना प्राणियों वाले देशों के मध्य में एक विशाल पर्वत है जो इन दोनों को पृथक् करता हैं, अत: लोकालोक नाम से विख्यात है।

श्लोक 37: श्रीकृष्ण की परमेच्छा से लोकालोक नामक पर्वत तीनों लोकों—भूर्लोक, भूवर्लोक तथा स्वर्लोक—की बाहरी सीमा के रूप में स्थापित किया गया है, जिससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सूर्य की किरणों का नियंत्रण किया जा सके। सूर्य से लेकर ध्रुवलोक एवं सारे नक्षत्र इन तीनों लोकों में इस पर्वत के द्वारा निर्मित सीमा के अन्तर्गत अपनी किरणें बिखेरते हैं। चूँकि यह पर्वत ध्रुवलोक से भी ऊँचा है, अत: यह नक्षत्रों की किरणों को अवरुद्ध कर लेता है, जिससे वे कभी भी इसके बाहर प्रसारित नहीं हो पातीं।

श्लोक 38: त्रुटि, भ्रम तथा वंचना से मुक्त विद्वानों ने प्रमाण, लक्षण और स्थिति के अनुसार लोकों का इतना ही विस्तार बतलाया है। उन्होंने विचार-विमर्श के बाद यह स्थापना की है कि सुमेरु तथा लोकालोक पर्वत की दूरी ब्रह्माण्ड के व्यास की चतुर्थांश अर्थात् १२,५०,००० (साढ़े बारह करोड़) योजन (एक अरब मील) है।

श्लोक 39: लोकालोक पर्वत के ऊपर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के परम-गुरु भगवान् ब्रह्मा के द्वारा स्थापित गजों में श्रेष्ठ चार गज-पति हैं। इन गजों के नाम हैं-ऋषभ, पुष्करचूड़, वामन तथा अपराजित। ये ब्रह्माण्ड के लोकों को धारण करते हैं।

श्लोक 40: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् समस्त दिव्य ऐश्वर्य तथा चिदाकाश के स्वामी हैं। वे परम पुरुष हैं अर्थात् भगवान् हैं, वे प्रत्येक प्राणी के परमात्मा हैं। स्वर्ग लोक के राजा इन्द्र के अधीन देवतागण इस भौतिक जगत के कार्यों का निरीक्षण करते हैं। विभिन्न लोकों के प्राणियों के लाभ हेतु तथा उन हाथियों तथा देवताओं की शक्ति को बढ़ाने के लिए भगवान् स्वयं उस पर्वत की चोटी पर प्रकृति के गुणों से अदूषित दिव्य शरीर धारण करके प्रकट होते हैं। अपने निजी प्रकाश तथा विष्वक्सेन जैसे सहायकों से घिरे रह कर वे अपने पूर्ण ऐश्वर्य (यथा ज्ञान तथा धर्म) एवं अपनी शक्तियों (यथा अणिमा, लघिमा तथा महिमा) को प्रदर्शित करते हैं। वे सुअलंकृत हैं और अपनी चारों भुजाओं में विविध आयुध धारण किये हुए हैं।

श्लोक 41: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के विविध रूप, यथा नारायण तथा विष्णु, विभिन्न आयुधों से अलंकृत हैं। श्रीभगवान् अपनी योगमाया से उत्पन्न समस्त लोकों का पालन करने के लिए इन रूपों को प्रकट करते हैं।

श्लोक 42: हे राजन्, लोकालोक पर्वत के बाहर अलोकवर्ष है जो पर्वत के भीतरी चौड़ाई के विस्तार के बराबर अर्थात् १२,५०,००,००० (साढ़े बारह करोड़) योजन (एक अरब मील) तक विस्तीर्ण है। अलोक वर्ष के परे भौतिक जगत से मुक्ति के इच्छुक व्यक्तियों का गन्तव्य है। इसको प्रकृति के भौतिक गुण कलुषित नहीं कर पाते, अत: यह पूर्णतया विशुद्ध है। ब्राह्मण के पुत्रों को वापस लाते समय श्रीकृष्ण अर्जुन को इसी स्थान से होकर ले गये थे।

श्लोक 43: सूर्य इस ब्रह्माण्ड के मध्य में, भूर्लोक तथा भुवर्लोक के मध्यवर्ती भाग में स्थित है, जिसे अन्तरिक्ष कहते हैं। सूर्य तथा ब्रह्माण्ड की परिधि के बीच की दूरी पच्चीस कोटि योजन (३ अरब मील) है।

श्लोक 44: सूर्यदेव वैराज अर्थात् समस्त जीवात्माओं के लिए सम्पूर्ण भौतिक शरीर भी कहलाते हैं। ब्रह्माण्ड की सृष्टि के समय ब्रह्माण्ड के अण्डे के भीतर प्रवेश करने के कारण वे मार्तण्ड भी कहलाते हैं। हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) से भौतिक शरीर प्राप्त करने के कारण वे हिरण्यगर्भ भी कहलाते हैं।

श्लोक 45: हे राजन्, सूर्यदेव तथा सूर्यलोक ब्रह्माण्ड की समस्त दिशाओं को विभाजित करते हैं। सूर्य की उपस्थिति के ही कारण हम समझ पाते हैं कि आकाश, स्वर्गलोक, यह संसार तथा पाताललोक क्या हैं। सूर्य के ही कारण हम जान पाते हैं कि भोग या मोक्ष के स्थान कौन-कौन से हैं और कौन से नरक तथा अतल आदि लोक हैं।

श्लोक 46: सूर्यलोक से सूर्यदेव द्वारा प्रदान की जा रही उष्मा तथा प्रकाश पर ही समस्त जीवात्माएँ, जिनमें देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, रेंगनेवाले जीव, लताएँ तथा वृक्ष सम्मिलित हैं, निर्भर हैं। सूर्य की ही उपस्थिति में सभी प्राणी देख सकते हैं, इसीलिए वह दृग्-ईश्वर अर्थात् दृष्टि के ईश्वर कहलाते हैं।

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