अध्याय 19: जम्बूद्वीप का वर्णन
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में भारतवर्ष के यशोगान के साथ ही किम्पुरुष वर्ष नामक भूखण्ड में भगवान् रामचन्द्र की आराधना का वर्णन है। किम्पुरुष वर्ष के निवासी भाग्यशाली हैं, क्योंकि…
श्लोक 1: श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले—हे राजन्, किम्पुरुषवर्ष में महान् भक्त हनुमान वहाँ के निवासियों सहित लक्ष्मण के अग्रज तथा सीतादेवी के पति भगवान् रामचन्द्र की सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं।
श्लोक 2: गन्धर्वों का समूह सदा ही भगवान् रामचन्द्र के यशों का गान करता है। ऐसा गायन अत्यन्त मंगलकारी होता है। हनुमानजी तथा किम्पुरुषवर्ष के प्रधान पुरुष आर्ष्टिषेण अत्यन्त मनोयोग से इस यशोगान का निरन्तर श्रवण करते हैं। हनुमानजी निम्न मंत्रों का जप करते हैं।
श्लोक 3: हे प्रभो, मैं ॐ कार बीजमंत्र के जप से आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। मैं उन श्रीभगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ जो उत्तम पुरुषों में सर्वाधिक हैं। आप आर्यजनों के समस्त उत्तम गुणों के भंडार हैं। आपके गुण तथा आचरण सदैव एकसमान रहने वाला है और आप अपनी इन्द्रियों तथा मन को सदैव अपने वश में रखने वाले हैं। सामान्य व्यक्ति की भाँति आप आदर्श चरित्र प्रस्तुत करके अन्यों को आचरण करना सिखाते हैं। कसौटी केवल स्वर्ण के गुण की परीक्षा करने में समर्थ है, किन्तु आप ऐसे स्पर्श-मणि हैं, जिससे समस्त उत्तम गुणों की परीक्षा हो जाती है। आप भक्तों में अग्रणी ब्राह्मणों के द्वारा उपासित हैं। हे परम पुरुष, आप महाराजा हैं, अत: मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।
श्लोक 4: भगवान् को, जिनका विशुद्ध रूप (सच्चिदानन्दविग्रह) भौतिक गुणों के द्वारा दूषित नहीं है, विशुद्ध चेतना के द्वारा ही देखा जा सकता है। वेदान्त में उसे अद्वितीय कहा गया है। अपने तेजवश वह भौतिक प्रकृति के कल्मष से अछूता है और भौतिक दृष्टि से पर है। अप्रभावित है, अत: वह दिव्य है। न तो वह कोई कर्म करता है, न उसका कोई भौतिक रूप अथवा नाम है। केवल श्रीकृष्णभावना में ही भगवान के दिव्य रूप के दर्शन किये जा सकते हैं। हमें चाहिए कि हम भगवान् रामचन्द के चरणकमलों में दृढ़तापूर्वक स्थित होकर उनको सादर नमन करें।
श्लोक 5: राक्षसों के नायक रावण को यह वर प्राप्त था कि उसका वध मनुष्य ही कर सकता है, इसलिए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् रामचन्द्र को मनुष्य रूप धारण करना पड़ा, किन्तु भगवान् रामचन्द्र का उद्देश्य मात्र रावण का वध करना ही नहीं था। वे तो मर्त्य-प्राणियों को यह शिक्षा देना चाहते थे कि भोग विलास अथवा पत्नी के चारों ओर केन्द्रित भौतिक सुख समस्त दुखों का कारण है। वे स्वयं में पूर्ण हैं और उन्हें किसी भी प्रकार का पश्चात्ताप नहीं है। अत: भला वे माता सीता के अपहरण से क्या कष्ट भोगते?
श्लोक 6: चूँकि भगवान् रामचन्द्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव हैं अत: वे इस भौतिक जगत से किसी प्रकार लिप्त नहीं हैं। वे सभी स्वरूपसिद्ध आत्माओं के परम प्रिय परमात्मा और उनके घनिष्ठ मित्र हैं। वे परम ऐश्वर्यवान् हैं। अत: पत्नी-विछोह के कारण उन्होंने न तो अधिक कष्ट उठाये होंगे, न ही उन्होंने अपनी पत्नी तथा अपने लघु भ्राता लक्ष्मण का परित्याग किया। उनके लिए इन दोनों में किसी एक का भी परित्याग सर्वथा असम्भव था।
श्लोक 7: उच्चकुल में जन्म धारण करने, शारीरिक सौन्दर्य, वाक्च ातुरी, तीक्ष्ण बुद्धि या श्रेष्ठ जाति अथवा राष्ट्र जैसे भौतिक गुणों के कारण कोई चाह कर भी भगवान् रामचन्द्र से मैत्री स्थापित नहीं कर सकता। उनसे मित्रता स्थापित करने के लिए इन गुणों की आवश्यकता नहीं है, अन्यथा भला हम असभ्य वनवासियों को, बिना उच्च कुल में जन्म लिये तथा रूप-रंग न होते हुए और भद्र पुरुषों की भाँति बात कर सकने में सक्षम न होने पर भी अपने मित्रों के रूप में क्यों स्वीकार करते?
श्लोक 8: अत: चाहे सुर हो या असुर, मनुष्य हो या मनुष्येतर प्राणी जैसे पशु या पक्षी, प्रत्येक को उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् रामचन्द्र की पूजा करनी चाहिए जो इस पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में प्रकट होते हैं। भगवान् की पूजा के लिए किसी कठोर तप या साधना की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे अपने भक्त की तुच्छ सेवा को भी स्वीकार करने वाले हैं। इस प्रकार से वे तुष्ट हो जाते हैं और उनके तुष्ट होते ही भक्त सफल हो जाता है। निस्सन्देह, श्रीरामचन्द्र अयोध्या के समस्त भक्तों को वैकुण्ठ धाम वापस ले गये।
श्लोक 9: श्रीशुकदेव गोस्वामी आगे बोले—श्रीभगवान् की महिमा अकल्पनीय है। उन्होंने अपने भक्तों पर अनुग्रहवश उन्हें धर्म, ज्ञान, त्याग, अध्यात्म, इन्द्रिय-निग्रह तथा अहंकार से मुक्ति की शिक्षा प्रदान करने के लिए भारतवर्ष की भूमि में बदरिकाश्रम नामक स्थान पर अपने को नर नारायण रूप में प्रकट किया है। वे आत्मज्ञान की सम्पदा से परिपूर्ण हैं और कल्पान्त तक तप में रत रहने वाले हैं। यही आत्म-साक्षात्कार की क्रिया है।
श्लोक 10: नारद पंचरात्र नामक अपने ग्रंथ में भगवान् नारद ने अत्यन्त विस्तारपूर्वक बताया है कि किस प्रकार ज्ञान तथा योगक्रिया के द्वारा जीवन के परम लक्ष्य—भक्ति—को प्राप्त करने के लिए कार्य करना चाहिए। उन्होंने श्रीभगवान् की महिमा का भी वर्णन किया है। महर्षि नारद ने इस दिव्य साहित्य का उपदेश सावर्णि मनु को दिया, जिससे वह भारतवर्ष के उन वासियों को भगवान् की भक्ति प्राप्त करने की शिक्षा दे सकें, जो दृढ़तापूर्वक वर्णाश्रम धर्म के नियमों का पालन करते हैं। इस प्रकार नारद मुनि भारतवर्ष के अन्य निवासियों सहित नर-नारायण की सदा सेवा करते हुए निम्नलिखित मंत्र का जप करते रहते हैं।
श्लोक 11: मैं समस्त सन्त पुरुषों में श्रेष्ठ श्रीभगवान् नर-नारायण को सादर नमस्कार करता हूँ। वे अत्यन्त आत्मसंयमित तथा आत्माराम हैं, वे झूठी प्रतिष्ठा से परे हैं और निर्धनों की एकमात्र सम्पदा हैं। वे मनुष्यों में परम सम्माननीय समस्त परमहंसों के गुरु हैं और आत्मसिद्धों के स्वामी हैं। मैं उनके चरणकमलों को पुन: पुन: नमस्कार करता हूँ।
श्लोक 12: परम शक्तिमान ऋषि नारद नर-नारायण की आराधना निम्नलिखित मंत्र का जप करके करते हैं—“पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् इस दृश्य जगत के सृष्टिकर्ता, पालक और संहारक हैं, तो भी वे मिथ्या अभिमान से पूर्णतया मुक्त हैं। यद्यपि मूढ़ों के लिए उन्होंने हमारे समान शरीर धारण करना स्वीकार किया प्रतीत होता है, किन्तु उन्हें भूख, प्यास तथा थकान जैसे शारीरिक कष्ट नहीं सताते। यद्यपि वे सर्वद्रष्टा हैं, किन्तु जिन वस्तुओं को वे देखते हैं उनसे उनकी इन्द्रियाँ दूषित नहीं होती। मैं ऐसे अनासक्त, जगत के साक्षी, परमात्मास्वरूप श्रीभगवान् को बारम्बार नमस्कार करता हूँ।”
श्लोक 13: हे योगेश्वर, आत्माराम भगवान् ब्रह्मा (हिरण्यगर्भ) ने योगक्रिया के विषय में जो कुछ कहा है यह उसकी व्याख्या है। मृत्यु के समय सभी योगी आपके चरण-कमलों में अपना मन स्थापित करके अपने भौतिक शरीर को त्यागते हैं। यह योग सिद्धि है।
श्लोक 14: सामान्य रूप से भौतिकतावादी जन अपने वर्तमान तथा भावी शारीरिक सुखों में अत्यन्त लिप्त रहते हैं। अत: वे अपनी पत्नी, सन्तान तथा सम्पत्ति के विचारों में सदैव मग्न रहते हैं और इस मलमूत्र से भरे हुए शरीर को त्यागने से भयभीत रहते हैं। यदि कृष्णभक्ति में संलग्न व्यक्ति भी अपने शरीर-त्याग से भयभीत हों तो फिर शास्त्रों के अध्ययन में किये श्रम का क्या लाभ? यह केवल समय की बरबादी है।
श्लोक 15: अत: हे प्रभो, हे अधोक्षज, कृपा करके हमें भक्तियोग साधने की शक्ति प्रदान करें जिससे हम अपने अस्थिर मन को वश में करके आप में लगा सकें। हम सभी आपकी माया से प्रभावित हैं, अत: हम मलमूत्र से पूरित शरीर तथा इससे सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु के प्रति अत्यधिक समर्पित हैं। इस आसक्ति को त्यागने का एकमात्र उपाय भक्ति है, अत: आप हमें यह वर दें।
श्लोक 16: इलावृत-वर्ष की भाँति ऋक्ष गिरि, पारियात्र, द्रोण, चित्रकुट, गोवर्धन, ऐवतक, भारतवर्ष में भी अनेक पर्वत और नदियाँ हैं। कुछ पर्वत इस प्रकार हैं—मलय, मंगलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकूट, ऋषभ, कूटक, कोल्लक, सह्य, देवगिरि, ऋष्यमूक, श्रीशैल, वेंकट, महेन्द्र, वारिधारा, विन्ध्य, शुक्तिमान्, ऋक्ष गिरि, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, एैवतक, ककुभ, नील, गोकामुख, इन्द्रकील तथा कामगिरि। इनके अतिरिक्त अनेक पहाडिय़ाँ हैं जिनकी ढालों से अनेक बड़ी तथा छोटी नदियाँ निकलती हैं।
श्लोक 17-18: नदियों में से दो नदियाँ—ब्रह्मपुत्र तथा शोण—नद अथवा महा नदियाँ कहलाती हैं। अन्य प्रमुख बड़ी नदियाँ इस प्रकार हैं—चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी, अवटोदा, कृतमाला, वैहायसी, कावेरी, वेणी, पयस्विनी, शर्करावर्ता, तुंगभद्रा, कृष्णावेण्या, भीमरथी, गोदावरी, ऋषिकुल्या, त्रिसामा, कौशिकी, मन्दाकिनी, यमुना, सरस्वती, दृषद्वती, गोमती, सरयू, रोधस्वती, सप्तवती, सुषोमा, शतद्रू, चन्द्रभागा, मरुद्वृधा, वितस्ता, असिक्नी तथा विश्वा। भारतवर्ष के वासी इन नदियों का स्मरण करने से पवित्र रहते हैं। कभी-कभी वे इन नदियों के नामों का मंत्रवत् जाप करते हैं और कभी-कभी जाकर इनका स्पर्श और इनमें स्नान भी करते हैं। इस तरह भारतवर्ष के निवासी पवित्र होते रहते हैं।
श्लोक 19: इस भूभाग में जन्म लेने वाले व्यक्ति गुणों—सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण—के अनुसार विभाजित हैं। इनमें से कुछ अत्यन्त महान् व्यक्तियों के रूप में, कुछ सामान्य व्यक्तियों के रूप में और कुछ अत्यन्त निम्न व्यक्तियों के रूप में जन्म लेते हैं, क्योंकि भारतवर्ष में मनुष्य का विगत कर्म के अनुसार जन्म होता है। यदि प्रामाणिक गुरु के द्वारा किसी भी मनुष्य की स्थिति निश्चित की जाये और यदि उसे चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) तथा चार आश्रमों (ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) के अनुसार भगवान् विष्णु की सेवा में रत होने का सही-सही प्रशिक्षण दिया जाये तो उसका जीवन सफल हो सकता है।
श्लोक 20: अनेकानेक जन्मों के पश्चात्, मनुष्य को अपने पुण्यकर्मों के फलित होने पर शुद्ध भक्तों की संगति का अवसर प्राप्त होता है। तभी उसके अज्ञानरूपी बन्धन की ग्रंथि, जो उसके नाना प्रकार के सकाम कर्मों के कारण जकडे रहती है, कट पाती है। भक्तों की संगति करने से धीरे-धीरे ऐसे भगवान् वासुदेव की सेवा में मन लगने लगता है, जो दिव्य हैं, भौतिक बन्धनों से मुक्त हैं, मन एवं वाणी से परे हैं तथा परम स्वतंत्र हैं। यही भक्तियोग अर्थात् भगवान् वासुदेव की भक्ति ही मुक्ति का वास्तविक मार्ग है।
श्लोक 21: चूँकि आत्मसाक्षात्कार के लिए मनुष्य-जीवन ही परम पद है, अत: स्वर्ग के सभी देवता इस प्रकार कहते हैं—इन मनुष्यों के लिए भारतवर्ष में जन्म लेना कितना आश्चर्यजनक है। इन्होंने भूतकाल में अवश्य ही कोई तप किया होगा अथवा श्रीभगवान् स्वयं इन पर प्रसन्न हुए होंगे। अन्यथा वे इस प्रकार से भक्ति में संलग्न क्योंकर होते? हम देवतागण भक्ति करने के लिए भारतवर्ष में मनुष्य जन्म धारण करने की मात्र लालसा कर सकते हैं, किन्तु ये मनुष्य पहले से भक्ति में लगे हुए हैं।
श्लोक 22: देवता आगे कहते हैं—वैदिक यज्ञों के करने, तप करने, व्रत रखने तथा दान देने जैसे दुष्कर कार्यों के करने के पश्चात् ही हमें स्वर्ग में निवास करने का यह पद प्राप्त हुआ है। किन्तु हमारी इस सफलता का क्या महत्त्व है? यहाँ हम निश्चय ही भौतिक इन्द्रियतृप्ति में व्यस्त रहकर भगवान् नारायण के चरणकमलों का स्मरण तक नहीं कर पाते। अत्यधिक इन्द्रिय तृप्ति के कारण हम उनके चरणकमलों को लगभग विस्मृत ही कर चुके हैं।
श्लोक 23: ब्रह्मलोक में करोड़ों-अरबों वर्ष की आयु प्राप्त करने की अपेक्षा भारतवर्ष में अल्पायु प्राप्त करना श्रेयस्कर है, क्योंकि ब्रह्मलोक को प्राप्त कर लेने के बाद भी बारम्बार जन्म तथा मरण के चक्र में पडऩा होता है। यद्यपि मर्त्यलोक के अन्तर्गत भारतवर्ष में जीवन अत्यन्त अल्प है, किन्तु यहाँ का वासी पूर्ण कृष्णभक्ति तक पहुँच सकता है और भगवान् के चरणकमलों में अर्पित होकर इस लघु जीवन में भी परम सिद्धि प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार उसे वैकुण्ठलोक प्राप्त होता है जहाँ न तो चिन्ता है, न भौतिक शरीर युक्त पुनर्जन्म।
श्लोक 24: जहाँ श्रीभगवान् की कथा रूपी विशुद्ध गंगा प्रवाहित नहीं होती और जहाँ पवित्रता की ऐसी नदी के तट पर सेवा में तल्लीन भक्तजन नहीं रहते, अथवा श्रीभगवान् को प्रसन्न करने के लिए जहाँ संकीर्तन-यज्ञ के उत्सव नहीं मनाये जाते, ऐसे स्थान में बुद्धिमान पुरुष के लिए रुचि नहीं होती। क्योंकि (इस युग में विशेषकर संकीर्तन-यज्ञ की संस्तुति की गई है)।
श्लोक 25: भक्ति के लिए भारतवर्ष में उपयुक्त क्षेत्र तथा परिस्थितियाँ उपलब्ध हैं, जिस भक्ति से ज्ञान तथा कर्म के फलों से मुक्त हुआ जा सकता है। यदि कोई भारतवर्ष में मनुष्य देह धारण करके संकीर्तन-यज्ञ नहीं करता तो वह उन जंगली पशुओं तथा पक्षियों की भाँति है जो मुक्त किये जाने पर भी असावधान रहते हैं और शिकारी द्वारा पुन: बन्दी बना लिए जाते हैं।
श्लोक 26: भारतवर्ष में परमेश्वर द्वारा नियुक्त विभिन्न अधिकारी स्वरूप देवताओं—यथा इन्द्र, चन्द्र तथा सूर्य—के अनेक उपासक हैं, जिन सभी की पृथक्-पृथक् विधियों से पूजा की जाती हैं। उपासक इन देवताओं को पूर्ण ब्रह्म का अंश मानते हुए अपनी आहुतियाँ अर्पण करते हैं, फलत: श्रीभगवान् इन भेंटों को स्वीकार करते हैं और क्रमश: इन उपासकों की कामनाओं तथा आकांक्षाओं को पूरा करके उन्हें शुद्ध भक्ति पद तक ऊपर उठा देते हैं। चूँकि श्रीभगवान् पूर्ण हैं, अत: वे उनको मनवांछित वर देते हैं, चाहे उपासक उनके दिव्य शरीर के किसी एक अंश की पूजा क्यों न करते हों।
श्लोक 27: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् उस भक्त की भौतिक कामनाओं की पूर्ति करते हैं, जो सकाम भाव से उनके पास जाता है, किन्तु वे भक्त को ऐसा वर नहीं देते जिससे वह अधिकाधिक वर माँगता रहे। फिर भी, भगवान् प्रसन्नतापूर्वक ऐसे भक्त को अपने चरणकमलों में शरण देते हैं, भले ही वह इसकी आकांक्षा न करे और शरणागत होने पर उसकी समस्त इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। यह श्रीभगवान् की विशेष अनुकम्पा है।
श्लोक 28: यज्ञ, पुण्य कर्म, अनुष्ठान तथा वेदाध्ययन करते रहने के कारणस्वरूप हम स्वर्ग-लोक में वास कर रहे हैं, किन्तु एक दिन ऐसा आएगा जब हमारा भी अन्त हो जाएगा। हमारी प्रार्थना है कि उस समय तक यदि हमारे एक भी पुण्य शेष रहें तो हम मनुष्य रूप में भगवान् के चरणकमलों का स्मरण करने के लिए भारतवर्ष में जन्म लें। श्रीभगवान् इतने दयालु हैं कि वे स्वयं भारतवर्ष में आते हैं और यहाँ के वासियों को सौभाग्य प्रदान करते हैं।
श्लोक 29-30: श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले—हे राजन्, कुछ ज्ञानी पुरुषों के मत के अनुसार जम्बूद्वीप के चारों ओर आठ छोटे-छोटे द्वीप हैं। जब महाराज सगर के पुत्र अपने खोये हुए घोड़े की खोज सारे संसार में कर रहे थे, तो उन्होंने पृथ्वी को खोद डाला। इस प्रकार से निकटस्थ आठ द्वीप अस्तित्व में आए। इन द्वीपों के नाम हैं—स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक, मन्दरहरिण, पांचजन्य, सिंहल तथा लंका।
श्लोक 31: भरत महाराज के वंशजों में श्रेष्ठ, हे राजा परीक्षित्, मैंने जितना ज्ञान प्राप्त किया है, उसी के अनुसार मैंने भारतवर्ष तथा उसके निकटवर्ती द्वीपों का वर्णन किया है। ये ही जम्बूद्वीप के उपद्वीप हैं।