अध्याय 4: सती द्वारा शरीर-त्याग
श्लोक 1: मैत्रेय मुनि ने कहा : सती को असमंजस में पाकर शिवजी यह कह कर शान्त हो गये। सती अपने पिता के घर में अपने सम्बन्धियों को देखने के लिए अत्यधिक इच्छुक थी, किन्तु साथ ही वह शिवजी की चेतावनी से भयभीत थी। मन अस्थिर होने से वह हिंडोले की भाँति कक्ष से बाहर और भीतर आ-जा रही थी।
श्लोक 2: इस तरह अपने पिता के घर जाकर अपने सम्बन्धियों को देखने से मना किये जाने पर सती अत्यन्त दुखी हुई। उन सबके स्नेह के कारण उसकी आँखों से अश्रु गिरने लगे। थरथराती एवं अत्यधिक व्याकुल होकर उसने अपने अद्वितीय पति भगवान् शंकर को इस प्रकार से देखा मानो वह अपनी दृष्टि से उन्हें भस्म करने जा रही हो।
श्लोक 3: तत्पश्चात् सती अपने पति शिवजी को, जिन्होंने प्रेमवश उसे अपना अर्धांग प्रदान किया था, छोडक़र क्रोध तथा शोक के कारण लम्बी-लम्बी साँसें भरती हुई अपने पिता के घर को चली गईं। उससे यह अल्प बुद्धिमत्ता-पूर्ण कार्य उसका अबला नारी होने के फलस्वरूप हुआ।
श्लोक 4: जब उन्होंने सती को तेजी से अकेले जाते देखा तो शिवजी के हजारों अनुत्तर, जिनमें मणिमान तथा मद प्रमुख थे, नन्दी बैल को आगे करके तथा यक्षों को साथ लेकर जल्दी से सती के पीछे-पीछे हो लिए।
श्लोक 5: शिव के अनुचरों ने सती को बैल पर चढ़ा लिया और उन्हें उनकी पालतू चिडिय़ा (मैना) दे दी। उन्होंने कमल का फूल, एक दर्पण तथा उनके आमोद-प्रमोद की सारी सामग्री ले ली और उनके ऊपर एक विशाल छत्र तान दिया। उनके पीछे ढोल, शंख तथा बिगुल बजाता हुआ दल राजसी शोभा यात्रा के समान भव्य लग रहा था।
श्लोक 6: तब सती अपने पिता के घर पहुँची जहाँ यज्ञ हो रहा था और उसने यज्ञस्थल में प्रवेश किया जहाँ वैदिक स्तोत्रों का उच्चारण हो रहा था। वहाँ सभी ऋषि, ब्राह्मण तथा देवता एकत्र थे। वहाँ पर अनेक बलि-पशु थे और साथ ही मिट्टी, पत्थर, सोने, कुश तथा चर्म के बने पात्र थे जिनकी यज्ञ में आवश्यकता पड़ती है।
श्लोक 7: जब सती अनुचरों सहित यज्ञस्थल में पहुँचीं, तो किसी ने उनका स्वागत नहीं किया, क्योंकि वहाँ पर एकत्रित सभी लोग दक्ष से भयभीत थे। उनकी माता तथा बहनों ने अश्रुपूरित नेत्रों तथा प्रसन्न मुखों से उसका स्वागत किया और उससे बड़े ही प्रेम से बातें कीं।
श्लोक 8: यद्यपि उनकी बहनों तथा माता ने उनका स्वागत-सत्कार किया, किन्तु उन्होंने उनके स्वागत-वचनों का कोई उत्तर नहीं दिया। यद्यपि उन्हें आसन तथा उपहार दिये गये, किन्तु उन्होंने कुछ भी स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनके पिता न तो उनसे बोले और न उनका कुशल-क्षेम पूछ कर उनका स्वत्कार किया।
श्लोक 9: यज्ञस्थल में जाकर सती ने देखा कि उनके पति शिवजी का कोई यज्ञ भाग नहीं रखे गये हैं। तब उन्हें यह आभास हुआ कि उनके पिता ने शिव को आमंत्रित नहीं किया; उल्टे जब दक्ष ने शिव की पूज्य पत्नी को देखा तो उसने उसका भी आदर नहीं किया। अत: इससे वे अत्यन्त क्रुद्ध हुईं; यहां तक कि वह और अपने पिता को इस प्रकार देखने लगीं मानो उसे अपने नेत्रों से भस्म कर देंगी।
श्लोक 10: शिव के अनुचर, भूतगण दक्ष को क्षति पहुँचाने अथवा मारने के लिए तत्पर थे, किन्तु सती ने आदेश देकर उन्हें रोका। वे अत्यन्त क्रुद्ध और दुखी थीं और उसी भाव में वे यज्ञ के सकामकर्मों की विधि की तथा उन व्यक्तियों की, जो इस प्रकार के अनावश्यक एवं कष्टकर यज्ञों के लिए गर्व करते हैं, भर्त्सना करने लगीं। उन्होंने सबों के समक्ष अपने पिता के विरुद्ध बोलते हुए उसकी विशेष रूप से निन्दा की।
श्लोक 11: देवी सती ने कहा : भगवान् शिव तो समस्त जीवात्माओं के लिए अत्यन्त प्रिय हैं। उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है। न तो कोई उनका अत्यन्त प्रिय है और न कोई उनका शत्रु है। आपके सिवा और ऐसा कौन है, जो ऐसे विश्वात्मा से द्वेष करेगा, जो समस्त वैर से रहित हैं?
श्लोक 12: हे द्विज दक्ष, आप जैसा व्यक्ति ही अन्यों के गुणों में दोष ढूँढ सकता है। किन्तु शिव अन्यों के गुणों में कोई दोष नहीं निकालते, विपरीत इसके यदि किसी में थोड़ा भी गुण होता है, तो वे उसे और भी अधिक बढ़ा देते हैं। दुर्भाग्यवश आपने ऐसे महापुरुष पर दोषारोपण किया है।
श्लोक 13: जिन लोगों ने इस नश्वर भौतिक शरीर को ही आत्मरूप मान रखा है, उनके लिए महापुरुषों की निन्दा करना कोई आश्चर्य की बात नहीं। भौतिकतावादी पुरुषों के लिए ऐसी ईर्ष्या ठीक ही है, क्योंकि इसी प्रकार से उनका पतन होता है। वे महापुरुषों की चरण-रज से लघुता प्राप्त करते हैं।
श्लोक 14: सती ने आगे कहा : हे पिता, आप शिव से द्वेष करके घोरतम अपराध कर रहे हैं क्योंकि उनका दो अक्षरों, शि तथा व, वाला नाम मनुष्य को समस्त पापों से पवित्र करने वाला है। उनके आदेश की कभी उपेक्षा नहीं होती। शिवजी सदैव शुद्ध हैं और आपके अतिरिक्त अन्य कोई उनसे द्वेष नहीं करता।
श्लोक 15: आप उन शिव से द्रोह करते हैं, जो तीनों लोकों के समस्त प्राणियों के मित्र हैं। वे सामान्य पुरुषों की समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं और ब्रह्मानन्द (दिव्य आनन्द) की खोज करने वाले उन महापुरुषों को भी आशीर्वाद देते हैं, जो उनके चरण-कमलों के ध्यान में लीन रहते हैं।
श्लोक 16: क्या आप यह सोचते हैं कि आपसे भी बढक़र सम्माननीय व्यक्ति जैसे भगवान् ब्रह्मा, इस शिव नाम से विख्यात अमंगल व्यक्ति को नहीं जानते? वे श्मशान में असुरों के साथ रहते हैं, उनकी जटाएँ शरीर के ऊपर बिखरी रहती हैं, वे नरमुंडों की माला धारण करते हैं और श्मशान की राख शरीर में लपेटे रहते हैं, किन्तु इन अशुभ गुणों के होते हुए भी ब्रह्मा जैसे महापुरुष उनके चरणों पर चढ़ाये गये फूलों को आदरपूर्वक अपने मस्तकों पर धारण करके उनका सम्मान करते हैं।
श्लोक 17: सती ने आगे कहा : यदि कोई किसी निरंकुश व्यक्ति को धर्म के स्वामी तथा नियंत्रक की निन्दा करते सुने और यदि वह उसे दण्ड देने में समर्थ नहीं है, तो उसे चाहिए कि कान मूँद कर वहाँ से चला जाय। किन्तु यदि वह मारने में सक्षम है, तो उसे चाहिए कि वह बलपूर्वक निन्दक की जीभ काट ले और अपराधी का वध कर दे। तत्पश्चात् वह अपने भी प्राण त्याग दे।
श्लोक 18: अत: मैं इस अयोग्य शरीर को, जिसे मैंने आपसे प्राप्त किया है और अधिक काल तक धारण नहीं करूँगी, क्योंकि आपने शिवजी की निन्दा की है। यदि कोई विषैला भोजन कर ले तो सर्वोत्तम उपचार यही है कि उसे वमन कर दिया जाय।
श्लोक 19: दूसरों की आलोचना करने से श्रेयस्कर है कि अपना कर्तव्य निभाया जाये। बड़े-बड़े दिव्य पुरुष भी कभी-कभी वेदों के विधि-विधानों का उल्लंघन कर देते हैं, क्योंकि उन्हें अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं होती, ठीक उसी प्रकार जैसे कि देवता तो आकाश मार्ग में विचरते हैं, किन्तु सामान्य जन धरती पर चलते हैं।
श्लोक 20: वेदों में दो प्रकार के कर्मों के निर्देश दिये गये हैं—एक उनके लिए जो भौतिक सुख में लिप्त हैं और दूसरा उनके लिए जो भौतिक रूप से विरक्त हैं। इन दो प्रकार के कर्मों का विचार करते हुए दो प्रकार के मनुष्य हैं जिनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। यदि कोई एक ही व्यक्ति में इन दोनों प्रकार के कर्मों को देखना चाहता है, तो यह विरोधाभास होगा। किन्तु दिव्य पुरुष के द्वारा इन दोनों प्रकार के कर्मों की उपेक्षा की जा सकती है।
श्लोक 21: हे पिता, हमारे पास जो ऐश्वर्य है उसकी कल्पना कर पाना न तो आपके लिए और न आपके चाटुकारो के लिए सम्भव है, क्योंकि जो पुरुष महान् यज्ञों को सम्पन्न करके सकाम कर्म में प्रवृत्त होते हैं, वे तो अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को यज्ञ में अर्पित अन्न खाकर पूरा करने की चिन्ता में लगे रहते हैं। हम वैसा सोचने मात्र से ही अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन कर सकते हैं। ऐसा वे ही कर सकते हैं, जो विरक्त, स्वरूपसिद्ध महापुरुष हैं।
श्लोक 22: आप भगवान् शिव के चरणकमलों के प्रति अपराधी हैं और दुर्भाग्यवश मेरा शरीर आपसे उत्पन्न है। मुझे अपने इस शारीरिक सम्बन्ध के लिए अत्यधिक लज्जा आ रही है और मैं अपनी स्वयं भर्त्सना करती हूँ कि मेरा शरीर ऐसे व्यक्ति के सम्बन्ध से दूषित है, जो महापुरुष के चरणकमलों के प्रति अपराधी है।
श्लोक 23: जब शिवजी मुझे दाक्षायणी कह कर पुकारते हैं, तो अपने पारिवारिक सम्बन्ध के कारण मैं तुरन्त खिन्न हो उठती हूँ और मेरी सारी प्रसन्नता तथा हँसी तुरन्त भाग जाती है। मुझे अत्यन्त खेद होता है कि मेरा यह थैले जैसा शरीर आपके द्वारा उत्पन्न है। अत: मैं इसे त्याग दूँगी।
श्लोक 24: मैत्रय ऋुषि ने विदुर से कहा : हे शत्रुओं के संहारक, यज्ञस्थल में अपने पिता से ऐसा कह कर सती भूमि पर उत्तरमुख होकर बैठ गईं। केसरिया वस्र धारण किये उन्होंने जल से अपने को पवित्र किया और योगक्रिया में अपने को ध्यानमग्न करने के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।
श्लोक 25: सबसे उन्होंने अपेक्षित रीति से आसन जमाया और फिर प्राणवायु को ऊपर खींचकर नाभि के निकट सन्तुलित अवस्था में स्थापित कर दिया। तब प्राणवायु को उत्थापित करके, बुद्धिपूर्वक उसे वे हृदय में ले गईं और फिर धीरे-धीरे श्वास मार्ग से होते हुए क्रमश: दोनों भौंहों के बीच में ले आईं।
श्लोक 26: इस प्रकार महर्षियों तथा सन्तों द्वारा आराध्य शिव की गोद में जिस शरीर को अत्यन्त आदर तथा प्रेम से बैठाया गया था, अपने पिता के प्रति रोष के कारण सती ने अपने उस शरीर का परित्याग करने के लिए अपने शरीर के भीतर अग्निमय वायु का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया।
श्लोक 27: सती ने अपना सारा ध्यान अपने पति जगद्गुरु शिव के पवित्र चरणकमलों पर केन्द्रित कर दिया। इस प्रकार वे समस्त पापों से शुद्ध हो गईं। उन्होंने अग्निमय तत्त्वों के ध्यान द्वारा प्रज्ज्वलित अग्नि में अपने शरीर का परित्याग कर दिया।
श्लोक 28: जब सती ने कोपवश अपना शरीर भस्म कर दिया तो समूचे ब्रह्माण्ड में घोर कोलाहल मच गया कि सर्वाधिक पूज्य देवता शिव की पत्नी सती ने इस प्रकार अपना शरीर क्यों छोड़ा?
श्लोक 29: यह आश्चर्यजनक बात है कि प्रजापति दक्ष, जो समस्त जीवात्माओं का पालनहारा है, अपनी पुत्री सती के प्रति इतना निरादरपूर्ण था कि उस परम साध्वी एवं महान् आत्मा ने उसकी उपेक्षा के कारण अपना शरीर त्याग दिया।
श्लोक 30: ऐसा दक्ष जो इतना कठोर-हृदय है कि ब्राह्मण होने के अयोग्य है, वह अपनी पुत्री के प्रति किये गये अपराधों के कारण अतीव अपयश को प्राप्त होगा, क्योंकि उसने अपनी पुत्री को मरने से नहीं रोका और वह भगवान् के प्रति अत्यन्त द्वेष रखता था।
श्लोक 31: जिस समय सब लोग सती की आश्चर्यजनक स्वेच्छित मृत्यु के विषय में परस्पर बातें कर रहे थे, उसी समय शिव के पार्षद, जो सती के साथ आये थे, अपने-अपने हथियार लेकर दक्ष को मारने के लिए उद्यत हो गये।
श्लोक 32: वे बलपूर्वक आगे बढ़े, किन्तु भृगु मुनि ने संकट को ताड़ लिया और याज्ञिक अग्नि की दक्षिण दिशा में आहुति डालते हुए उन्होंने तुरन्त यजुर्वेद से मंत्र पढ़े जिससे यज्ञ को विध्वंस करने वाले तुरन्त मर जाएँ।
श्लोक 33: जब भृगु मुनि ने अग्नि में आहुति डाली तो तत्क्षण ऋभु नामक हजारों देवता प्रकट हो गये। वे सभी शक्तिशाली थे और उन्होंने सोम अर्थात् चन्द्र से शक्ति प्राप्त की थी।
श्लोक 34: जब ऋभु देवताओं ने भूतों तथा गुह्यकों पर यज्ञ की अधजली समिधाओं से आक्रमण कर दिया तो सती के सारे अनुचर विभिन्न दिशाओं में भागकर अदृश्य हो गये। यह ब्रह्मतेज अर्थात् ब्राह्मणशक्ति के कारण ही सम्भव हो सका।