अध्याय 3: श्रीशिव तथा सती का संवाद
श्लोक 1: मैत्रेय ने आगे कहा : इस प्रकार से जामाता शिव तथा श्वसुर दक्ष के बीच दीर्घकाल तक तनाव बना रहा।
श्लोक 2: ब्रह्मा ने जब दक्ष को समस्त प्रजापतियों का मुखिया बना दिया तो दक्ष गर्व से फूल उठा।
श्लोक 3: दक्ष ने वाजपेय नामक यज्ञ प्रारम्भ किया और उसे अत्यधिक विश्वास था कि ब्रह्माजी का समर्थन तो प्राप्त होगा ही। तब उसने एक अन्य महान् यज्ञ किया जिसे बृहस्पति-सव कहते हैं।
श्लोक 4: जब यज्ञ सम्पन्न हो रहा था ब्रह्माण्ड के विभिन्न भागों से अनेक ब्रह्मर्षि, मुनि, पितृकुल के देवता तथा अन्य देवता, आभूषणों से अलंकृत अपनी-अपनी पत्नियों सहित उसमें सम्मिलित हुए।
श्लोक 5-7: दक्ष कन्या साध्वी सती ने आकाश मार्ग से जाते हुए स्वर्ग के निवासियों को परस्पर बातें करते हुए सुना कि उसके पिताद्वारा महान् यज्ञ सम्पन्न कराया जा रहा हैं। जब उसने देखा कि सभी दिशाओं से स्वर्ग के निवासियों की सुन्दर पत्नियाँ, जिनके नेत्र अत्यन्त सुन्दरता से चमक रहे थे, उसके घर के समीप से होकर सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित होकर तथा कानों में कुण्डल एवं गले में लाकेट युक्त हार से अलंकृत होकर जा रही हैं, तो वह अपने पति भूतनाथ के पास अत्यन्त उद्विगता-पूर्वक गई और इस प्रकार बोली।
श्लोक 8: सती ने कहा : हे प्राणप्रिय शिव, इस समय आपके श्वसुर महान् यज्ञ कर रहे हैं और सभी देवता आमंत्रित होकर वहीं जा रहे हैं। यदि आप कहें तो हम भी चले चलें।
श्लोक 9: मैं सोचती हूँ कि मेरी सभी बहनें अपने सम्बन्धियों से भेंट करने की इच्छा से अपने-अपने पतियों सहित इस महान् यज्ञ में अवश्य आयी होंगी। मैं भी अपने पिता द्वारा प्रदत्त आभूषणों से अपने को अलंकृत करके आपके साथ उस उत्सव में भाग लेने की इच्छुक हूँ।
श्लोक 10: वहाँ पर मेरी बहनें, मौसियाँ तथा मौसे एवं अन्य प्रिय परिजन एकत्र होंगे; अत: यदि मैं वहाँ तक जाऊँ तो उन सबों से मेरी भेंट हो जाये और साथ ही मैं उड़ती हुई ध्वजाएँ तथा ऋषियों द्वारा सम्पन्न होते यज्ञ को भी देख सकूँगी। हे प्रिय, इसी कारण से मैं जाने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।
श्लोक 11: यह दृश्य जगत त्रिगुणों की अन्त:क्रिया अथवा परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति की अद्भुत सृष्टि है। आप इस वास्तविकता से भलीभाँति परिचित हैं। किन्तु मैं तो अबला स्त्री हूँ और जैसा आप जानते हैं मैं सत्य से अनजान हूँ। अत: मैं एक बार फिर से अपनी जन्मभूमि देखना चाहती हूँ।
श्लोक 12: हे अजमा हे नीलकण्ठ, न केवल मेरे सम्बन्धी वरन् अन्य स्त्रियाँ भी अच्छे अच्छे वस्त्र पहने और आभूषणों से अलंकृत होकर अपने पतियों तथा मित्रों के साथ जा रही हैं। जरा देखो तो कि उनके श्वेत विमानों के झुण्डों ने सारे आकाश को किस प्रकार सुशोभित कर रखा है!
श्लोक 13: हे देवश्रेष्ठ, भला एक पुत्री का शरीर यह सुनकर कि उसके पिता के घर में कोई उत्सव हो रहा है, विचलित हुए बिना कैसे रह सकता है? यद्यपि आप यह सोच रहे होंगे कि मुझे आमंत्रित नहीं किया गया, किन्तु अपने मित्र, पति, गुरु या पिता के घर बिना बुलाये भी जाने में कोई हानि नहीं होती।
श्लोक 14: हे अमर शिव, कृपया मुझ पर दयालु हों और मेरी इच्छा पूरी करें। आपने मुझे अर्द्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया है, अत: मुझ पर दया करके मेरी प्रार्थना स्वीकार करें।
श्लोक 15: मैत्रेय महर्षि ने कहा : इस प्रकार अपनी प्रियतमा द्वारा सम्बोधित किये जाने पर कैलाश पर्वत के उद्धारक शिव ने हँसते हुए उत्तर दिया यद्यपि उसी समय उन्हें विश्व के समस्त प्रजापतियों के समक्ष दक्ष द्वारा कहे गये द्वेषपूर्ण मर्मभेदी शब्द स्मरण हो आये।
श्लोक 16: प्रभु ने उत्तर दिया : हे सुन्दरी, तुमने कहा कि अपने मित्र के घर बिना बुलाये जाया जा सकता है। यह सच है, किन्तु तब जब वह देहात्मबोध के कारण अतिथि में दोष न निकाले और उस पर क्रुद्ध न हो।
श्लोक 17: यद्यपि शिक्षा, तप, धन, सौन्दर्य, यौवन और कुलीनता—ये छह गुण अत्यन्त उच्च होते हैं, किन्तु जो इनको प्राप्त करके मदान्ध हो जाता है और इस प्रकार वह सद्ज्ञान खो बैठता है, वह महापुरुषों के महिमा को स्वीकार नहीं कर पाता।
श्लोक 18: मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसी स्थिति में किसी दूसरे व्यक्ति के घर न जाये, भले ही वह उसका सम्बन्धी या मित्र ही क्यों न हो, जब वह मन से क्षुब्ध हो और अतिथि को तनी हुई भृकुटियों एवं क्रुद्ध नेत्रों से देख रहा हो।
श्लोक 19: शिवजी ने कहा : यदि कोई शत्रु के बाणों से आहत हो तो उसे उतनी व्यथा नहीं होती जितनी कि स्वजनों के कटु वचनों से होती है क्योंकि यह पीड़ा रात-दिन हृदय में चुभती रहती है।
श्लोक 20: हे शुभ्रांगिनी प्रिये, यह स्पष्ट है कि तुम दक्ष को अपनी पुत्रियों में सबसे अधिक प्यारी हो, तो भी तुम उसके घर में सम्मानित नहीं होगी, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो। उल्टे तुम्हें ही दुख होगा कि तुम मुझसे सम्बन्धित हो।
श्लोक 21: जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित होकर सदैव मन से तथा इन्द्रियों से संतापित रहता है, वह स्वरूप-सिद्ध पुरुषों के ऐश्वर्य को सहन नहीं कर पाता। आत्म-साक्षात्कार के पद तक उठने में अक्षम होने से वह ऐसे पुरुषों से उसी प्रकार से ईर्ष्या करता है, जिस प्रकार असुर श्रीभगवान् से ईर्ष्या करते हैं।
श्लोक 22: हे तरुणी भार्ये, निस्सन्देह, मित्र तथा स्वजन खड़े होकर एक दूसरे का स्वागत और नमस्कार करके परस्पर अभिवादन करते हैं। किन्तु जो दिव्य पद पर ऊपर उठ चुके हैं, वे प्रबुद्ध होने के कारण ऐसा सम्मान प्रत्येक शरीर में वास करने वाले परमात्मा का ही करते हैं, देहाभिमानी पुरुष का नहीं।
श्लोक 23: मैं शुद्ध कृष्णचेतना में भगवान् वासुदेव को सदैव नमस्कार करता रहता हूँ। कृष्णभावनामृत ही सदैव शुद्ध चेतना है, जिसमें वासुदेव नाम से अभिहित श्रीभगवान् का बिना किसी प्रकार का दुराव का अनुभव होता है।
श्लोक 24: अत: तुम्हें अपने पिता को, यद्यपि वह तुम्हारे शरीर का दाता है, मिलने नहीं जाना चाहिए क्योंकि वह और उसके अनुयायी मुझसे ईर्ष्या करते हैं। हे परम पूज्या, इसी ईर्ष्या के कारण मेरे निर्दोष होते हुए भी उसने अत्यन्त कटु शब्दों से मेरा अपमान किया है।
श्लोक 25: यदि इस शिक्षा के बावजूद मेरे वचनों की उपेक्षा करके तुम जाने का निश्चय करती हो तो तुम्हारे लिए भविष्य अच्छा नहीं होगा। तुम अत्यन्त सम्माननीय हो और जब तुम स्वजन द्वारा अपमानित होगी तो यह अपमान तुरन्त ही मृत्यु के तुल्य हो जाएगा।