svg

श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 4) | Shrimad Bhagavatam Hindi

अध्याय 23: महाराज पृथु का भगवद्धाम गमन

श्लोक 1-3: अपने जीवन की अन्तिम अवस्था में, जब महाराज पृथु ने देखा कि मैं वृद्ध हो चला हूँ तो उस महापुरुष ने, जो संसार का राजा था, अपने द्वारा संचित सारे ऐश्वर्य को जड़ तथा जंगम जीवों में बाँट दिया। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के लिए धार्मिक नियमों के अनुसार आजीविका (पेंशन) की व्यवस्था कर दी और भगवान् के आदेशों का पालन करके, उनकी पूर्ण सहमति से उन्होंने अपने पुत्रों को अपनी पुत्रीस्वरूपा पृथ्वी को सौंप दिया। तब महाराज पृथु अपनी प्रजा को, जो राजा के वियोग के कारण विलख रही थी, त्याग कर तपस्या करने के लिए पत्नीसहित वन को अकेले चले गये।

श्लोक 4: पारिवारिक जीवन से निवृत्त होकर महाराज पृथु ने वानप्रस्थ जीवन के नियमों का कड़ाई से पालन किया और वन में कठिन तपस्या की। वे इन कार्यों में उसी गम्भीरता से जुट गये जिस तरह पहले वे शासन चलाने तथा हर एक पर विजय पाने के लिए जुट जाते थे।

श्लोक 5: तपोवन में महाराज पृथु कभी वृक्षों के तने तथा जड़ें खाते रहे तो कभी फल तथा सूखी पत्तियाँ। कुछ हफ्तों तक उन्होंने केवल जल पिया। अन्त में वे केवल वायु ग्रहण करके उसी से निर्वाह करने लगे।

श्लोक 6: वानप्रस्थ के नियमों तथा ऋषियों-मुनियों के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए पृथु महाराज ने ग्रीष्म ऋतु में पञ्चाग्नियों का सेवन किया, वर्षा ऋतु में वे वर्षा की झड़ी में बाहर ही रहे और जाड़े की ऋतु में गले तक जल के भीतर खड़े रहे। वे भूमि पर बिना बिस्तर के सोते रहे।

श्लोक 7: अपनी वाणी तथा इन्द्रियों को वश में करने, वीर्य स्खलित न होने देने तथा अपने शरीर के भीतर प्राण-वायु को वश में करने के लिए महाराज पृथु ने ये सारी कठिन तपस्याएँ साधीं। यह सब उन्होंने श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए किया। इसके अतिरिक्त उनका कोई अन्य प्रयोजन न था।

श्लोक 8: इस प्रकार कठिन तपस्या करने से महाराज पृथु क्रमश: आध्यात्मिक जीवन में स्थिर और सकाम कर्म की समस्त इच्छाओं से पूर्ण रूप से मुक्त हो गये। उन्होंने मन तथा इन्द्रियों को वश में करने के लिए प्राणायाम योग का भी अभ्यास किया जिससे वे सकाम कर्म की समस्त इच्छाओं से पूर्ण रूप से मुक्ति पा गये।

श्लोक 9: इस प्रकार मनुष्यों में श्रेष्ठ महाराज पृथु ने आध्यात्मिक उन्नति के उस पथ का अनुसरण किया जिसका उपदेश सनत्कुमार ने किया था; अर्थात् उन्होंने भगवान् कृष्ण की पूजा की।

श्लोक 10: इस प्रकार महाराज पृथु चौबीसों घंटे कठोरता से विधि-विधानों का पालन करते हुए पूर्ण रूप से भक्ति में लग गये। इससे भगवान् कृष्ण के प्रति इनमें प्रेम तथा भक्ति का उदय हुआ और वे स्थिर हो गये।

श्लोक 11: निरन्तर भक्ति करते रहने से पृथु महाराज का मन शुद्ध हो गया, अत: वे भगवान् के चरणारविन्द का निरन्तर चिन्तन करने लगे। इससे वे पूरी तरह से विरक्त हो गये और पूर्णज्ञान प्राप्त करके समस्त संशयों से परे हो गये। इस तरह वे मिथ्या अहंकार तथा जीवन के भौतिक बोध से मुक्त हो गये।

श्लोक 12: जब महाराज पृथु देहात्मबुद्धि से पूर्ण रूप से मुक्त हो गये तो उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को परमात्मा रूप में प्रत्येक के हृदय में स्थित देखा। इस प्रकार उनसे सारे आदेश पाने में समर्थ होने पर उन्होंने योग तथा ज्ञान की अन्य सारी विधियाँ त्याग दीं। ज्ञान तथा योग की सिद्धियों में भी उनकी रुचि नहीं रह गई, क्योंकि उन्होंने पूरी तरह यह अनुभव किया कि जीवन का चरम लक्ष्य तो श्रीकृष्ण की भक्ति है और जब तक योगी तथा ज्ञानी कृष्णकथा के प्रति आकृष्ट नहीं होते, संसार सम्बन्धी उनके सारे भ्रम (मोह) कभी भी दूर नहीं हो सकते।

श्लोक 13: समय आने पर जब पृथु महाराज को अपना शरीर त्याग करना था उन्होंने अपने मन को दृढ़तापूर्वक श्रीकृष्ण के चरणकमलों में स्थिर कर लिया और इस प्रकार से ब्रह्मभूत अवस्था में स्थित होकर उन्होंने भौतिक शरीर त्याग दिया।

श्लोक 14: जब महाराज पृथु ने विशेष यौगिक आसन साधा तो उन्होंने अपनी एडिय़ों से अपना गुदाद्वार बन्द कर लिया और दोनों एडिय़ों को दबाया, फिर धीरे-धीरे प्राणवायु को नाभिचक्र से होते हुए वे हृदय तथा कण्ठ तक ऊपर की ओर ले गये और अन्त में उसे दोनों भौहों के मध्य पहुँचा दिया।

श्लोक 15: इस प्रकार पृथु महाराज अपने प्राणवायु को धीरे धीरे ब्रह्मरन्ध्र तक ऊपर ले गये जिससे उनकी समस्त सांसारिक आकांक्षाएँ समाप्त हो गईं। उन्होंने धीरे-धीरे अपने प्राण वायु को समष्टि वायु में, अपने शरीर को समष्टि पृथ्वी में और अपने शरीर की अग्नि (तेज) को समष्टि अग्नि में लीन कर दिया।

श्लोक 16: इस प्रकार पृथु महाराज ने अपनी इन्द्रियों के छिद्रों को आकाश में और अपने शरीर के द्रवों, यथा रक्त तथा विभिन्न स्रावों को, समष्टि जल में, पृथ्वी को जल में, फिर जल को अग्नि में, अग्नि को वायु में और वायु को आकाश में मिला दिया (लीन कर दिया)।

श्लोक 17: उन्होंने स्थितियों के अनुसार मन को इन्द्रियों में और इन्द्रियों को इन्द्रियपदार्थों (तन्मात्राओं) में और अहंकार को समष्टि भौतिक शक्ति, महत् तत्त्व, में लीन कर दिया।

श्लोक 18: तब पृथु महाराज ने जीवात्मा की सम्पूर्ण उपाधि माया के परम प्रभु (नियन्ता) को सौंप दी। ज्ञान तथा वैराग्य एवं भक्ति की आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा वे जीवात्मा की उन समस्त उपाधियों से मुक्त हो गये, जिनसे वे घिरे थे। इस प्रकार कृष्णभावना की अपनी मूल स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप-स्थिति) में रहकर उन्होंने प्रभु (इन्द्रियों के नियन्ता) के रूप में अपने शरीर को त्याग दिया।

श्लोक 19: पृथु महाराज की पत्नी महारानी अर्चि अपने पति के साथ वन को गई थीं। महारानी होने के कारण उनका शरीर अत्यन्त कोमल था। यद्यपि वे वन में रहने के योग्य न थीं, किन्तु उन्होंने स्वेच्छा से अपने चरणकमलों से पृथ्वी का स्पर्श किया।

श्लोक 20: यद्यपि महारानी अर्चि ऐसे कष्टों को सहने की अभ्यस्त न थीं, तो भी वन में रहने के अनुष्ठानादि में उन्होंने ऋषियों की तरह अपने पति का साथ दिया। वे भूमि पर शयन करतीं और केवल फल, फूल और पत्तियाँ खातीं। चूँकि वे इन कार्यों के लिए उपयुक्त न थीं, अत: वे अत्यन्त दुर्बल हो गईं। फिर भी अपने पति की सेवा करने से उन्हें जो आनन्द प्राप्त होता था उसके कारण उन्हें किसी कष्ट का अनुभव नहीं होता था।

श्लोक 21: जब महारानी अर्चि ने अपने पति को, जो उनके प्रति तथा पृथ्वी के प्रति अत्यन्त दयालु थे, जीवन के लक्षणों से रहित देखा तो उन्होंने थोड़ा विलाप किया और फिर पर्वत की चोटी पर चिता बनाकर अपने पति के शरीर को उस पर रख दिया।

श्लोक 22: इसके पश्चात् महारानी ने आवश्यक दाह-कृत्य किये और जलाञ्जलि दी। फिर नदी में स्नान करके उन्होंने आकाश स्थित विभिन्न लोकों के विभिन्न देवताओं को नमस्कार किया। तब अग्नि की प्रदक्षिणा की और अपने पति के चरणकमलों का ध्यान करते हुए उन्होंने अग्नि की लपटों में प्रवेश किया।

श्लोक 23: महान् राजा पृथु की पतिव्रता पत्नी अर्चि के इस वीरतापूर्ण कार्य को देखकर हजारों देवपत्नियों ने प्रसन्न होकर अपने पतियों सहित रानी की स्तुति की।

श्लोक 24: उस समय देवता मन्दर पर्वत की चोटी पर आसीन थे। उनकी पत्नियाँ चिता की अग्नि पर फूलों की वर्षा करने लगीं और एक दूसरे से (इस प्रकार) बातें करने लगीं।

श्लोक 25: देवताओं की पत्नियों ने कहा : महारानी अर्चि धन्य हैं! हम देख रही हैं कि राज राजेश्वर पृथु की इस महारानी ने अपने पति की अपने मन, वाणी तथा शरीर से उसी प्रकार सेवा की है, जिस प्रकार ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी भगवान् यज्ञेश अथवा विष्णु की करती हैं।

श्लोक 26: देवों की पत्नियों ने आगे कहा : जरा देखो तो कि वह सती नारी अर्चि किस प्रकार अपने अचिन्त्य पुण्य कर्मों के प्रभाव से अब भी अपने पति का अनुगमन करती हुई ऊपर की ओर, जहाँ तक हम देख सकती हैं, चली जा रही है।

श्लोक 27: इस संसार में प्रत्येक मनुष्य का जीवन-काल लघु है, किन्तु जो भक्ति में अनुरक्त हैं, वे भगवान् के धाम वापस जाते हैं, क्योंकि वे सचमुच मोक्ष के मार्ग पर होते हैं। ऐसे लोगों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

श्लोक 28: जो मनुष्य इस संसार में अत्यन्त संघर्षमय कार्यों को सम्पन्न करने में लगा रहता है, और जो मनुष्य का शरीर पाकर—जो कि दुखों से मोक्ष प्राप्त करने का एक अवसर होता है—कठिन सकाम कार्यों को करता रहता है, तो उसे ठगा गया तथा अपने ही प्रति ईर्ष्यालु समझना चाहिए।

श्लोक 29: मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : हे विदुर, जब देवताओं की पत्नियाँ इस प्रकार परस्पर बातें कर रही थीं तो अर्चि ने उस लोक को प्राप्त कर लिया था जहाँ उनके पति सर्वोत्कृष्ट स्वरूपसिद्ध महाराज पृथु पहुँच चुके थे।

श्लोक 30: मैत्रेय ने आगे कहा : भक्तों में महान् महाराज पृथु अत्यन्त शक्तिशाली थे और उनका चरित्र अत्यन्त उदार तथा उद्दाम था। मैंने यथासम्भव तुमसे उसका वर्णन किया है।

श्लोक 31: जो व्यक्ति श्रद्धा तथा ध्यानपूर्वक राजा पृथु के महान् गुणों को पढ़ता है, या स्वयं सुनता है अथवा अन्यों को सुनाता है, वह अवश्य ही महाराज पृथु के लोक को प्राप्त होता है। दूसरे शब्दों में, ऐसा व्यक्ति भी वैकुण्ठलोक अर्थात् भगवान् के धाम को वापस जाता है।

श्लोक 32: यदि कोई पृथु महाराज के गुणों को सुनता है और यदि वह ब्राह्मण है, तो वह ब्रह्मशक्ति में निपुण हो जाता है; यदि वह क्षत्रिय है, तो संसार का राजा बन जाता है; यदि वह वैश्य है, तो अन्य वैश्यों तथा अनेक पशुओं का स्वामी हो जाता है और यदि शूद्र हुआ तो वह उच्चकोटि का भक्त बन जाता है।

श्लोक 33: चाहे नर हो या नारी, जो कोई भी महाराज पृथु के इस वृत्तान्त को अत्यन्त आदरपूर्वक सुनता है, वह यदि नि:सन्तान है, तो सन्तान युक्त और यदि निर्धन है, तो वह धनवान बन जाता है।

श्लोक 34: जो इस वृत्तान्त को तीन बार सुनता है, वह यदि समाज में सम्मानित नहीं है, तो अत्यन्त विख्यात हो जाएगा और यदि निरक्षर है, तो परम विद्वान् बन जाएगा। दूसरे शब्दों में, पृथु महाराज का वृत्तान्त सुनने में इतना शुभ है कि वह समस्त दुर्भाग्य को दूर भगाता है।

श्लोक 35: पृथु महाराज के चरित्र को सुनकर मनुष्य महान् बन सकता है, अपनी जीवन-अवधि (आयु) बढ़ा सकता है, स्वर्ग को जा सकता है और इस कलिकाल के कल्मषों का नाश कर सकता है। साथ ही वह धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के हितों में उन्नति ला सकता है। अत: सभी प्रकार से यही अच्छा है कि जो लोग ऐसी वस्तुओं में रुचि रखते हैं, वे पृथु महाराज के जीवन तथा चरित्र के विषय में पढ़ें तथा सुनें।

श्लोक 36: यदि विजय तथा शासन-शक्ति का इच्छुक कोई राजा अपने रथ पर चढक़र प्रस्थान करने के पूर्व पृथु महाराज के चरित्र का तीन बार जप करता है, तो उसके अधीन सारे राजा उसके आदेश से ही सारा कर उसी प्रकार लाकर रखते हैं जिस प्रकार महाराज पृथु के अधीन राजा उनको दिया करते थे।

श्लोक 37: शुद्ध भक्त भक्तियोग की विविध विधियों का पालन करते हुए कृष्ण-चेतना में पूर्णतया लीन होने के कारण दिव्य पद पर स्थित हो सकता है, किन्तु तो भी भक्ति करते समय उसे पृथु महाराज के जीवन तथा चरित्र के विषय में सुनना, दूसरों को सुनने की प्रेरणा देना तथा पढऩा चाहिए।

श्लोक 38: मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : हे विदुर, मैंने यथासम्भव पृथु महाराज के चरित्र के विषय में बतलाया है, जो मनुष्य के भक्तिभाव को बढ़ाने वाला है। जो कोई भी इसका लाभ उठाता है, वह भी महाराज पृथु की तरह ही भगवान् के धाम को वापस जाता है।

श्लोक 39: जो भी महाराज पृथु के कार्यकलापों के वृत्तान्त को नियमित रूप से अत्यन्त श्रद्धापूर्वक पढ़ता, कीर्तन करता तथा वर्णन करता है, उसका अविचल विश्वास तथा अनुराग निश्चय ही भगवान् के चरणकमलों के प्रति नित्यप्रति बढ़ता जाता है। भगवान् के चरणकमल वह नौका है, जिसके द्वारा मनुष्य अज्ञान के सागर को पार करता है।

Leave a reply

Join Us
Loading Next Post...
Follow
svg Sign In/Sign Up svgSearch
Popular Now svg
Scroll to Top
Loading

Signing-in 3 seconds...

Signing-up 3 seconds...