श्लोक 1: श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब विदुर ने महान् भक्त उद्धव से प्रियतम (कृष्ण) का सन्देश बतलाने के लिए कहा तो भगवान् की स्मृति के विषय में अत्यधिक विह्वलता के कारण उद्धव तुरन्त उत्तर नहीं दे पाये।
श्लोक 2: वे अपने बचपन में ही जब पाँच वर्ष के थे तो भगवान् कृष्ण की सेवा में इतने लीन हो जाते थे कि जब उनकी माता प्रात:कालीन कलेवा करने के लिए बुलातीं तो वे कलेवा करना नहीं चाहते थे।
श्लोक 3: इस तरह उद्धव अपने बचपन से ही लगातार कृष्ण की सेवा करते रहे और उनकी वृद्धावस्था में सेवा की वह प्रवृत्ति कभी शिथिल नहीं हुई। जैसे ही उनसे भगवान् के सन्देश के विषय में पूछा गया, उन्हें तुरन्त उनके विषय में सब कुछ स्मरण हो आया।
श्लोक 4: वे क्षणभर के लिए एकदम मौन हो गये और उनका शरीर हिला-डुला तक नहीं। वे भक्तिभाव में भगवान् के चरणकमलों के स्मरण रूपी अमृत में पूरी तरह निमग्न हो गये और उसी भाव में वे गहरे उतरते दिखने लगे।
श्लोक 5: विदुर ने देखा कि उद्धव में सम्पूर्ण भावों के कारण समस्त दिव्य शारीरिक परिवर्तन उत्पन्न हो आये हैं और वे अपनी आँखों से विछोह के आँसुओं को पोंछ डालने का प्रयास कर रहे हैं। इस तरह विदुर यह जान गये कि उद्धव ने भगवान् के प्रति गहन प्रेम को पूर्णरूपेण आत्मसात् कर लिया है।
श्लोक 6: महाभागवत उद्धव तुरन्त ही भगवान् के धाम से मानव-स्तर पर उतर आये और अपनी आँखें पोंछते हुए उन्होंने अपनी पुरानी स्मृतियों को जगाया तथा वे विदुर से प्रसन्नचित्त होकर बोले।
श्लोक 7: श्री उद्धव ने कहा : हे विदुर, संसार का सूर्य कृष्ण अस्त हो चुका है और अब हमारे घर को काल रूपी भारी अजगर ने निगल लिया है। मैं आपसे अपनी कुशलता के विषय में क्या कह सकता हूँ?
श्लोक 8: समस्त लोकों समेत यह ब्रह्माण्ड अत्यन्त अभागा है। युदुकुल के सदस्य तो उनसे भी बढक़र अभागे हैं, क्योंकि वे श्री हरि को भगवान् के रूप में नहीं पहचान पाये जिस तरह मछलियाँ चन्द्रमा को नहीं पहचान पातीं।
श्लोक 9: यदुगण अनुभवी भक्त, विद्वान तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययन में पटु थे। इससे भी बड़ी बात यह थी कि वे सभी लोग समस्त प्रकार की विश्रान्ति में भगवान् के साथ रहते थे, फिर भी वे उन्हें केवल उस ब्रह्म के रूप में जान पाये जो सर्वत्र निवास करता है।
श्लोक 10: भगवान् की माया द्वारा मोहित व्यक्तियों के वचन किसी भी स्थिति में उन लोगों की बुद्धि को विचलित नहीं कर सकते जो पूर्णतया शरणागत हैं।
श्लोक 11: भगवान् श्रीकृष्ण, जिन्होंने पृथ्वी पर सबों की दृष्टि के समक्ष अपना नित्य स्वरूप प्रकट किया था, अपने स्वरूप को उन लोगों की दृष्टि से हटाकर अन्तर्धान हो गये जो वांछित तपस्या न कर सकने के कारण उन्हें यथार्थ रूप में देख पाने में असमर्थ थे।
श्लोक 12: भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति योगमाया के द्वारा मर्त्यलोक में प्रकट हुए। वे अपने नित्य रूप में आये जो उनकी लीलाओं के लिए उपयुक्त है। ये लीलाएँ सबों के लिए आश्चर्यजनक थीं, यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जिन्हें अपने ऐश्वर्य का गर्व है, जिसमें वैकुण्ठपति के रूप में भगवान् का स्वरूप भी सम्मिलित है। इस तरह उनका (श्रीकृष्ण का) दिव्य शरीर समस्त आभूषणों का आभूषण है।
श्लोक 13: महाराज युधिष्ठिर द्वारा सम्पन्न किये गये राजसूय यज्ञ शाला में उच्चतर, मध्य तथा अधोलोकों से सारे देवता एकत्र हुए। उन सबों ने भगवान् कृष्ण के सुन्दर शारीरिक स्वरूप को देखकर विचार किया कि वे मनुष्यों के स्रष्टा ब्रह्मा की चरम कौशलपूर्ण सृष्टि हैं।
श्लोक 14: हँसी, विनोद तथा देखादेखी की लीलाओं के पश्चात् व्रज की बालाएँ कृष्ण के चले जाने पर व्यथित हो जातीं। वे अपनी आँखों से उनका पीछा करती थीं, अत: वे हतबुद्धि होकर बैठ जातीं और अपने घरेलू कामकाज पूरा न कर पातीं।
श्लोक 15: आध्यात्मिक तथा भौतिक सृष्टियों के सर्वदयालु नियन्ता भगवान् अजन्मा हैं, किन्तु जब उनके शान्त भक्तों तथा भौतिक गुणों वाले व्यक्तियों के बीच संघर्ष होता है, तो वे महत् तत्त्व के साथ उसी तरह जन्म लेते हैं जिस तरह अग्नि उत्पन्न होती है।
श्लोक 16: जब मैं भगवान् कृष्ण के बारे में सोचता हूँ कि वे अजन्मा होते हुए किस तरह वसुदेव के बन्दीगृह में उत्पन्न हुए थे, किस तरह अपने पिता के संरक्षण से व्रज चले गये और वहाँ शत्रु-भय से प्रच्छन्न रहते रहे तथा किस तरह असीम बलशाली होते हुए भी वे भयवश मथुरा से भाग गये—ये सारी भ्रमित करने वाली घटनाएँ मुझे पीड़ा पहुँचाती हैं।
श्लोक 17: भगवान् कृष्ण ने अपने माता-पिता से उनके चरणों की सेवा न कर पाने की अपनी (कृष्ण तथा बलराम की) अक्षमता के लिए क्षमा माँगी, क्योंकि कंस के विकट भय के कारण वे घर से दूर रहते रहे। उन्होंने कहा, “हे माता, हे पिता, हमारी असमर्थता के लिए हमें क्षमा करें।” भगवान् का यह सारा आचरण मेरे हृदय को पीड़ा पहुँचाता है।
श्लोक 18: भला ऐसा कौन होगा जो उनके चरणकमलों की धूल को एकबार भी सूँघ कर उसे भुला सके? कृष्ण ने अपनी भौहों की पत्तियों को विस्तीर्ण करके उन लोगों पर मृत्यु जैसा प्रहार किया है, जो पृथ्वी पर भार बने हुए थे।
श्लोक 19: आप स्वयं देख चुके हैं कि चेदि के राजा (शिशुपाल) ने किस तरह योगाभ्यास में सफलता प्राप्त की यद्यपि वह भगवान् कृष्ण से ईर्ष्या करता था। वास्तविक योगी भी अपने विविध अभ्यासों द्वारा ऐसी सफलता की सुरुचिपूर्वक कामना करते हैं। भला उनके विछोह को कौन सह सकता है?
श्लोक 20: निश्चय ही कुरुक्षेत्र युद्धस्थल के अन्य योद्धागण अर्जुन के बाणों के प्रहार से शुद्ध बन गये और आँखों को अति मनभावन लगने वाले कृष्ण के कमल-मुख को देखकर उन्होंने भगवद्धाम प्राप्त किया।
श्लोक 21: भगवान् श्रीकृष्ण समस्त त्रयियों के स्वामी हैं और समस्त प्रकार के सौभाग्य की उपलब्धि के द्वारा स्वतंत्र रूप से सर्वोच्च हैं। वे सृष्टि के नित्य लोकपालों द्वारा पूजित हैं, जो अपने करोड़ों मुकुटों द्वारा उनके पाँवों का स्पर्श करके उन्हें पूजा की साज-सामग्री अर्पित करते हैं।
श्लोक 22: अतएव हे विदुर, क्या उनके सेवकगण हम लोगों को पीड़ा नहीं पहुँचती जब हम स्मरण करते हैं कि वे (भगवान् कृष्ण) राजसिंहासन पर आसीन राजा उग्रसेन के समक्ष खड़े होकर, “हे प्रभु, आपको विदित हो कि” यह कहते हुए सारे स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते थे।
श्लोक 23: ओह, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा जिन्होंने उस असुरिनी (पूतना) को माता का पद प्रदान किया, यद्यपि वह कृतघ्न थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था?
श्लोक 24: मैं उन असुरों को जो भगवान् के प्रति शत्रुभाव रखते हैं, भक्तों से बढक़र मानता हूँ, क्योंकि शत्रुता के भावों से भरे वे सभी युद्ध करते हुए भगवान् को तार्क्ष्य (कश्यप) पुत्र गरुड़ के कन्धों पर बैठे तथा अपने हाथ में चक्रायुध लिए देख सकते हैं।
श्लोक 25: पृथ्वी पर कल्याण लाने के लिए ब्रह्मा द्वारा याचना किये जाने पर भगवान् श्री कृष्ण को भोज के राजा के बन्दीगृह में वसुदेव ने अपनी पत्नी देवकी के गर्भ से उत्पन्न किया।
श्लोक 26: तत्पश्चात् कंस से भयभीत होकर उनके पिता उन्हें नन्द महाराज के चरागाहों में ले आये जहाँ वे अपने बड़े भाई बलदेव सहित ढकी हुई अग्नि की तरह ग्यारह वर्षों तक रहे।
श्लोक 27: अपने बाल्यकाल में सर्वशक्तिमान भगवान् ग्वालबालों तथा बछड़ों से घिरे रहते थे। इस तरह वे यमुना नदी के तट पर सघन वृक्षों से आच्छादित तथा चहचहाते पक्षियों की ध्वनि से पूरित बगीचों में विहार करते थे।
श्लोक 28: जब भगवान् ने बालोचित कार्यों का प्रदर्शन किया, तो वे एकमात्र वृन्दावनवासियों को ही दृष्टिगोचर थे। वे शिशु की तरह कभी रोते तो कभी हँसते और ऐसा करते हुए वे सिंह के बच्चे के समान प्रतीत होते थे।
श्लोक 29: अत्यन्त सुन्दर गाय-बैलों को चराते हुए समस्त ऐश्वर्य तथा सम्पत्ति के आगार भगवान् अपनी वंशी बजाया करते। इस तरह वे अपने श्रद्धावान् अनुयायी ग्वाल-बालों को प्रफुल्लित करते थे।
श्लोक 30: भोज के राजा कंस ने कृष्ण को मारने के लिए बड़े-बड़े जादूगरों को लगा रखा था, जो कैसा भी रूप धारण कर सकते थे। किन्तु अपनी लीलाओं के दौरान भगवान् ने उन सबों को उतनी ही आसानी से मार डाला जिस तरह कोई बालक खिलौनों को तोड़ डालता है।
श्लोक 31: वृन्दावन के निवासी घोर विपत्ति के कारण परेशान थे, क्योंकि यमुना के कुछ अंश का जल सर्पों के प्रमुख (कालिय) द्वारा विषाक्त किया जा चुका था। भगवान् ने सर्पराज को जल के भीतर प्रताडि़त किया और उसे दूर खदेड़ दिया। फिर नदी से बाहर आकर उन्होंने गौवों को जल पिलाया तथा यह सिद्ध किया कि वह जल पुन: अपनी स्वाभाविक स्थिति में है।
श्लोक 32: भगवान् कृष्ण महाराज नन्द की ऐश्वर्यशाली आर्थिक शक्ति का उपयोग गौवों की पूजा के लिए कराना चाहते थे और वे स्वर्ग के राजा इन्द्र को भी पाठ पढ़ाना चाह रहे थे। अत: उन्होंने अपने पिता को सलाह दी थी कि वे विद्वान ब्राह्मणों की सहायता से गो अर्थात् चरागाह तथा गौवों की पूजा कराएँ।
श्लोक 33: हे भद्र विदुर, अपमानित होने से राजा इन्द्र ने वृन्दावन पर मूसलाधार वर्षा की। इस तरह गौवों की भूमि व्रज के निवासी बहुत ही व्याकुल हो उठे। किन्तु दयालु भगवान् कृष्ण ने अपने लीलाछत्र गोवर्धन पर्वत से उन्हें संकट से उबार लिया।
श्लोक 34: वर्ष की तृतीय ऋतु में भगवान् ने स्त्रियों की सभा के मध्यवर्ती सौन्दर्य के रूप में चाँदनी से उजली हुई शरद् की रात में अपने मनोहर गीतों से उन्हें आकृष्ट करके उनके साथ विहार किया।