लक्ष्मण मेघनाद युद्ध
विभीषण ने क्रोध करके अग्नि के समान बाणों की बौछार करके राक्षस सेना का विनाश करना आरम्भ कर दिया। विभीषण की बाणवर्षा से प्रोत्साहित होकर वानर सेना पूरे बल से हनुमान के नेतृत्व में शिला और वृक्ष मारकर राक्षसों को यमलोक भेजने लगी। इस महायुद्ध को देखकर देवता-दानव सबके हृदय दहल गये। पृथ्वी पर शवों के अतिरिक्त वृक्षों एवं शिलाओं के समूह से गगनचुम्बी पर्वत बन गये। वहाँ लक्ष्मण और मेघनाद के बाणों से दसों दिशाएँ आच्छादित हो गईं, उनके बाणों से सूर्य छिप गया और चारों ओर अन्धकार छा गया। तभी सुमित्रानन्दन ने मेघनाद के रथ के चारों घोड़ों को मारकर सारथि का सिर काट डाला। यह देखकर राक्षसों के उत्साह पर पाला पड़ गया और वानर सेना में फिर से नवजीवन का संचार हो गया। तभी मेघनाद लपक कर दूसरे रथ पर चढ़ गया और उस पर से बाणों वर्षा करने लगा।
मेघनाद ने जब दूसरे रथ पर चढ़कर युद्ध करना आरम्भ किया तो विभीषण को बहुत क्रोध आया। उसने पूरे वेग से गदा का वार करके उसके रथ को चूर-चूर कर दिया और सारथि को मार डाला। अपने चाचा द्वारा किये गये इस विनाशकारी आक्रमण से मेघनाद जलभुन गया और उसने एक साथ दस बाण विभीषण को मारने के लिये छोड़े। मेघनाद के लक्ष्य को दृष्टि में रखकर लक्ष्मण ने अपने तीक्ष्ण बाणों से उन बाणों को मार्ग में ही नष्ट कर दिया। अपना वार इस प्रकार खाली जाते देख मेघनाद क्रोध से उन्मत्त हो गया और उसने विभीषण को मारने के लिये वह शक्तिशाली बाण छोड़ा जो उसे यमराज से प्राप्त हुआ था। वह एक अद्भुत बाण था जिसे इन्द्र आदि देवता भी नहीं काट सकते थे और जिसके वार को तीनों लोकों में भी कोई सहन नहीं कर सकता था। इस यम बाण को अपनी ओर आता देख लक्ष्मण ने भी वह अप्रमेय शक्ति वाला बाण निकाला जो उन्हें कुबेर ने दिया था। उन बाणों के छूटने से सम्पूर्ण आकाश प्रकाश से जगमगा उठा। वे दोनों एक दूसरे से टकराये जिससे भयानक अग्नि उत्पन्न हुई और दोनों बाण जलकर भस्म हो गये। अपने बाण को व्यर्थ जाता देख लक्ष्मण ने मेघनाद पर वरुणास्त्र छोड़ा। उस प्रलयंकारी अस्त्र का निवारण करने के लिये इन्द्रजित ने आग्नेय बाण छोड़ा। इसके परिणामस्वरूप लक्ष्मण का वरुणास्त्र निरस्त होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। लगभग उसी समय मेघनाद ने लक्ष्मण के प्राण लेने के लिये आसुरास्त्र नामक बाण छोड़ा। उसके छूटते ही सम्पूर्ण वातावरण में अन्धकार छा गया और कुछ भी देखना सम्भव नहीं रह गया। अपने इस सफलता पर मेघनाद ने बड़े जोर की गर्जना की, किन्तु दूसरे ही क्षण लक्ष्मण ने सूर्यास्त्र छोड़कर उस अन्धकार को दूर कर दिया जिससे पृथ्वी, आकाश एव सभी दिशाएँ पूर्ववत् चमकने लगीं।
उसी के साथ उन्होंने एक अद्वितीय बाण प्रत्यंचा पर चढ़ाते हुये यह कहकर कि यदि रघुवंशमणि महात्मा राम परम सत्यवादी, धर्मपरायण तथा दृढ़व्रती हैं तो हे बाण! तू शीघ्र जाकर दुष्ट मेघनाद को यमलोक पहुँचा वेदमन्त्रों का उच्चारण करते हुये उन्होंने वह बाण छोड़ दिया। तीनों लोकों का क्षय करने की सामर्थ्य वाला वह अजेय बाण सम्पूर्ण वातावरण को प्रकाशित करता हुआ मेघनाद को लगा और उसका मस्तक उड़ाकर आकाश में बहुत दूर तक ले गया। मेघनाद का मस्तकविहीन धड़ बड़े जोर का धमाका करता हुआ पृथ्वी पर गिरा। इन्द्र को भी समरभूमि में पराजित करने वाले, सम्पूर्ण देवताओं एवं दानवों को अपने नाम से ही भयभीत करने वाले इस परम पराक्रमी मेघनाद का सुमित्रानन्दन के हाथों वध होता देख वानर सेना के आनन्द की सीमा न रही। वे बड़े जोर से हर्षध्वनि और सिंह गर्जना करते हुये राक्षसों को चुन-चुन कर मारने लगे। लंका के महत्वपूर्ण स्तम्भ तथा राक्षसकुल के परम तेजस्वी युवराज को इस प्रकार मरते देख राक्षस सेना का मनोबल टूट गया। उनके पैर उखड़ गये। कुछ साहसी राक्षस आधे मन से लड़ते रहे और शेष प्राण बचाकर लंका की ओर दौड़े। वानर सेना उस समय विजयोन्माद से ग्रस्त हो रही थी। उसने भागते हुये राक्षसों को भी न छोड़ा और उन पर निरन्तर पत्थरों से आक्रमण करते रहे। जो उनकी पकड़ में आ गये, उन्हें नाखूनों और दाँतों से चीर डाला। एक ओर राक्षस हाहाकार करते हुये भागे जा रहे थे तो दूसरी ओर ऋक्ष एवं वानर राम-लक्ष्मण की जयजयकार करते हुये उन्हें खदेड़ रहे थे। देवताओं एवं ऋषि-मुनियों के भयंकर शत्रु के मर जाने पर सब लोग प्रसन्न हो हर्षनाद कर रहे थे।
मेघनाद वध
अपने पुत्र इन्द्रजित की मृत्यु का समाचार सुनकर रावण दुःखी एवं व्याकुल हो विलाप करने लगा। फिर पुत्रवध के प्रतिशोध की ज्वाला ने उसे अत्यन्त क्रुद्ध कर दिया। वह राक्षसों को एकत्रित कर बोला, हे निशाचरों! मैंने घोर तपस्या करके ब्रह्माजी से अद्भुत कवच प्राप्त किया है। उसके कारण मुझे कभी कोई देवता या राक्षस पराजित नहीं कर सकता। देवासुर संग्राम में प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने मुझे बाण सहित विशाल धनुष भी दिया है। आज मैं उसी धनुष से राम-लक्ष्मण का वध करूँगा। मेरे पुत्र मेघनाद ने वानरों को भ्रम में डालने के लिये माया की सीता बनाकर उसका वध किया था, परन्तु मैं आज वास्तव में सीता का वध करके उस झूठ को सत्य कर दिखाउँगा।
इतना कहकर वह चमचमाती हुई तलवार लेकर सीता को मारने के लिये अशोकवाटिका में जा पहुँचा। रावण को यह नीच कर्म करने के लिये तैयार देखकर रावण के एक विद्वान और सुशील मन्त्री सुपार्श्व ने उसे रोकते हुये कहा, महाराज दशग्रीव! आप प्रकाण्ड पण्डित और वेद-शास्त्रों के ज्ञाता हैं। क्रोध के वशीभूत होकर आप सीता की हत्या क्यों करना चाहते हैं। किन्तु क्या क्रोध के कारण धर्म को भूलना उचित है? आप सदैव धैर्यपूर्वक कर्तव्य का पालन करते आये हैं। इसलिये यह अनुचित कार्य न करें और हमारे साथ चलकर रणभूमि में राम पर अपना क्रोध उतारें। मन्त्री के वचन सुनकर रावण वापस अपने महल लौट गया। वहाँ मन्त्रियों के साथ आगे की योजना पर विचार करने लगा। फिर बोला, कल हमको पूरी शक्ति से राम पर आक्रमण कर देना चाहिये।
रावण की आज्ञा पाकर दूसरे दिन प्रातःकाल लंका के वीर राक्षस नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर वानर सेनाओं से जा भिड़े। परिणाम यह हुआ कि दोनों ओर के वीरों द्वारा किये गये आक्रमण और प्रतिआक्रमण से समरभूमि में रक्त की धारा बह चली जो मृत शरीरों को लकड़ी की तरह बहा रही थी। जब राक्षसों ने वानर सेना की मार-मार कर दुर्गति कर दी तो स्वयं श्री राम ने वानरों पर आक्रमण करती हुई राक्षस सेना का देखते-देखते इस प्रकार सफाया कर दिया जिस प्रकार से तेजस्वी सूर्य की किरणें रात्रि के तम का सफाया कर देती हैं। उन्होंने केवल आधे पहर में दस हजार रथों, अठारह हजार हाथियों, चौदह हजार अश्वारोही वीरों और दो लाख पैदल सैनिकों को मार गिराया।
जब लंका में इस भयानक संहार की सूचना पहुँची तो सारे नगर में हाहाकार मच गया। राक्षस नारियाँ अपने पिता, पति, पुत्र, भाई आदि का स्मरण कर करके भयानक क्रन्दन करने लगीं। रावण ने क्रुद्ध, दुःखी और शोकाकुल होकर महोदर, महापार्श्व और विरूपाक्ष को युद्ध करने के लिये बुला भेजा। उनके आने पर वह स्वयं भी करोड़ों सूर्यों के समान दीप्तिमान तथा आठ घोड़ों से सुसज्जित रथ पर बैठकर उन्हें साथ ले युद्ध करने को चला। उसके चलते ही मृदंग, पाह, शंख आदि नाना प्रकार के युद्धवाद्य बजने लगे। महापार्श्व, महोदर और विरूपाक्ष भी अपने-अपने रथों पर सवार होकर उसके साथ चले। उस समय सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गई। सब दिशाओं में अन्धेरा छा गया। भयंकर पक्षी अशुभ बोली बोलने लगे। धरती काँपती सी प्रतीत होने लगी, ध्वज के अग्रभाग पर गृद्ध आकर बैठ गया। बायीं आँख फड़कने लगी। किन्तु इन भयंकर अशुभ लक्षणों की ओर ध्यान न देकर रावण अपनी सेना सहित युद्धभूमि में जा पहुँचा।