रामायण कथा – सम्पूर्ण युद्धकाण्ड (लंकाण्ड)

सीता की अग्नि परीक्षा

एक रात्रि विश्राम करने के पश्चात् श्री रामचन्द्र जी ने विभीषण को बुलाकर कहा, हे लंकेश! मेरा वनवास का समय पूरा होने को है। अब मेरा मन भरत से मिलने के लिये उद्विग्न हो रहा है। वे मुझे स्मरण करके दुःखी हो रहे होंगे। इस लिये तुम ऐसा प्रबन्ध करो कि हम शीघ्रातिशीघ्र अयोध्या पहुँच जायें।

यह सुनकर विभीषण ने कहा, हे प्रभो! आप चिन्ता न करें। मैं एक ही दिन में आपको अयोध्यापुरी पहुँचा दूँगा। वैसे मेरी इच्छा यह थी कि आप कुछ दिन यहाँ रुक कर मेरा आतिथ्य स्वीकार करते।

जब श्रीरामचन्द्रजी ने वहाँ ठहरने में अपनी असमर्थता दिखाई तो विभीषण ने तत्काल पुष्पक विमान मँगाया, जो स्वर्ण से बना हुआ और नाना प्रकार के रत्नों से सुसज्जित था। रामचन्द्रजी सब वानरों का उनके द्वारा की गई सहायता के लिये आभार प्रकट करके सीता और लक्ष्मण के साथ विमान पर सवार हुये। सुग्रीव सहित सब वानरों और विभीषण ने भी उनके साथ अयोध्या चलने का आग्रह किया तो उन्होंने कृपा करके सबको उसी विमान पर अपने साथ ले लिया। विमान आकाश में उड़ने लगा। रामचन्द्र सीता को लंका, सागर, सुवर्णमय पर्वत हिरण्यनाभ, सेतुबंध, किष्किन्धा नगरी को दिखाकर उनका महत्व बताने लगे। बीच-बीच में सीता-हरण के पश्चात् की घटनाओं का भी विशद वर्णन करते जाते थे। जब विमान किष्किन्धा नगरी पहुँचा तो वैदेही ने सुग्रीव की भार्या तारा आदि को भी अपने साथ अयोध्या ले चलने का आग्रह किया।

रघुनाथजी ने विमान को वहाँ रुकवाकर सुग्रीव तथा अन्य यूथपतियों से कहा कि वे शीघ्र अपने-अपने परिजनों को, जो अयोध्या चलने के लिये उत्सुक हों, जाकर ले आयें। श्रीराम की आज्ञा पाते ही वे सब अपने परिजनों को बुला लाये। फिर विमान अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ा। विमान चलते ही रामचन्द्र ने सीता को ऋष्यमूक पर्वत दिखाया जहाँ उन्होंने सुग्रीव से भेंट की थी। फिर उन्होंने शबरी की कथा सुनाते हुये पम्पा दिखाया। जटायु के मरने का स्थान, महात्मा सुतीक्ष्ण तथा शरभ के आश्रम, श्रृंगवेपुर आदि दिखाते हुये भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने विमान उतारा।

भरद्वाज मुनि के आश्रम में पहुँचकर उन्होंने मुनि को सादर प्रणाम किया और कुशलक्षेम के पश्चात् अयोध्यापुरी, भरत तथा माताओं के विषय में सूचनाएँ प्राप्त कीं। फिर उन्होंने हनुमान से कहा, वानरराज! मैं चाहता हूँ कि मेरे अयोध्या पहुँचने से पहले तुम अयोध्या जाकर पता लगाओ कि राजभवन में सब कुशल से तो हैं। तुम श्रृंगवेरपुर पहुँचकर वनवासी निषादराज से भी भेंट करो। उनसे तुम्हें अयोध्या का मार्ग भी ज्ञात हो जायेगा। भरत से मिलकर उन्हें हमारा कुशल समाचार देना और यहाँ हुई समस्त घटनाओं से उन्हें अवगत कराना। उन्हें यह भी बता देना कि हम लोग सफलमनोरथ होकर राक्षसराज विभीषण, वानरराज सुग्रीव तथा अन्य मित्रों के साथ प्रयागराज तक आ पहुँचे हैं। साथ ही भरत की मुखमुद्रा का भी सूक्ष्म अध्ययन करना। यदि उन्हें हमारा आगमन अरुचिकर प्रतीत हो तो मुझे सूचित करना। ऐसी दशा में हम अयोध्या से दूर रहकर तपस्वी जीवन व्यतीत करेंगे। तुम शीघ्र जाकर उन्हें सब बातों की सूचना दो।

प्रभु की आज्ञा पाकर हनुमान मनुष्य का रूप धारणकर तीव्रगति से अयोध्या की ओर चल पड़े। पहले वे गंगा और यमुना के संगम को परकर श्रृंगवेरपुर पहुँचे और वहीं निषादराज गुह से मिले। उन्हें श्रीराम का कुशल समाचार देकर वे परशुराम तीर्थ, वालुकिनी नदी, वरूथी, गोमती आदि नदियों को पार करते हुये नन्दिग्राम जा पहुँचे। अयोध्या से एक कोस की दूरी पर उन्होंने चीर वस्त्र और काला मृगचर्म धारण किये हुये दुर्बल भरत को देखा। वे तपस्यारत ब्रह्मर्षि के सदृश दिखाई दे रहे थे। भरत जी के पास पहुँचकर पवनपुत्र हनुमान ने दोनों हाथ जोड़कर उनसे निवेदन किाय, देव! श्रीरघुनाथजी ने आपको अपना कुशल समाचार कहलाया है और आपका कुशल समाचार पूछा है। आप इस अत्यन्त दारुण शोक का परित्याग करें। आप शीघ्र ही श्रीराम से मिलेंगे।

यह शुभ समाचार सुनकर भरत का हृदय हर्ष से भर उठा। उन्होंने बड़े उत्साह से पवनपुत्र को प्रमपूर्वक अपने हृदय से लगा लिया और बोले, भैया! तुमने जो मुझे यह प्रिय संवाद सुनाया है इसके बदले में मैं तुम्हें क्या दूँ। मुझे कोई ऐसी वस्तु दिखाई नहीं देती जो तुम्हारी इस शुभ सूचना का उचित उपहार हो सके। फिर भी मैं तुम्हें इसके लिये सौ उत्तम गाँव, एक लाख गौएँ और उत्तम आचार वाली स्वर्ण, रत्न तथा आभूषणों से सुसज्जित सोलह कुलीन कुमारी कन्याएँ पत्नीरूप में समर्पित करता हूँ।

फिर बोले, सौम्य! मुझे यह बताओ कि श्रीरघुनाथजी का और वानरों का मेल-मिलाप कैसे हुआ? भरत के इस प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने श्रीराम के वनवास से लेकर दण्डकारण्य में प्रवेश करके विराध को मारने, शरभंग मुनि के स्वर्ग सिधारने, खर-दूषण तथा त्रिशरा को मारने, सीताहरण, गिद्धराज जटायु की मृत्यु, सीता की खोज करते हुये सुग्रीव से भेंट होने का विवरण सुनाकर उन्होंने सीता की खोज करने, सागर पर पुल बाँधने तथा सपरिवार रावण को मारकर वैदेही को मुक्त कराने तक का वृतान्त सुना डाला। यह भी बता दिया कि अब रामचन्द्रजी पुष्पक विमान से अयोध्या आ रहे हैं।

अयोध्या को प्रस्थान

हर्षविभोर भरत ने शत्रुघ्न को बुलाकर उन्हें यह शुभ समाचार सुनाया और रामचन्द्रजी के भव्य स्वागत की तैयारी करने का आदेश देते हुए कहा, सभी देवस्थानों में सुगंधित पुष्पों द्वारा पूजन हो। सभी वैतालिक, नृत्यांगनाएँ, रानियाँ, मन्त्रीगण, सेनाएँ और नगर के प्रमुख जन श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन और स्वागत के लिये नगर के बाहर चलें। नगर के सभी मार्गों, बाजारों तथा अट्टालिकाओं को ध्वजा-पताकाओं आदि से सजाया जाये।

दूसरे दिन प्रातःकाल सभी श्रेष्ठ नगरनिवासी, मन्त्रीगण, अन्तःपुर की रानियाँ आदि असंख्य सैनिकों के साथ श्रीराम की अगवानी के लिये उत्साहपूर्वक नन्दिग्राम आ पहुँचे। कौसल्या, सुमित्रा, कैकेयी आदि महारानियाँ अन्तःपुरवासी रानियों का नेतृत्व कर रही थीं। सभी के हाथों में रंग-बिरंगी पुष्पमालाएँ थीं। चीर वस्त्र और कृष्ण मृगचर्म धारण किये भरत मन्त्रियों एवं पुरहितों से घिरे हुये सिर पर चरणपादुकाएँ धरे प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी दूर से दिव्य पुष्पक विमान आता दिखाई दिया। समस्त उपस्थित पुरवासियों के मन में हर्ष की लहर दौड़ गई और वे रामचन्द्रजी का जयजयकार करने लगे। भरत ने आगे बढ़कर अर्ध्य-पाद्य आदि से श्रीराम का पूजन किया और उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। रामचन्द्र जी ने आगे बढ़कर उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। फिर भरत ने वैदेही के चरण स्पर्श करके लक्ष्मण को अपने हृदय से लगा लिया। इसके पश्चात् वे विभीषण, सुग्रीव तथा अन्य वानर वीरों से बड़े प्रेम से मिले। फिर शत्रुघ्न भी सबसे उसी प्रकार मिले जिस प्रकार भरत मिले थे। श्रीराम ने तीनों माताओं का पास जाकर बारी-बारी से सबके चरणस्पर्श किये। उनका आशीर्वाद ग्रहण करके उन्होंने गुरु वसिष्ठ के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया। उधर सब नागरिक उच्च स्वर में उनका अभिनन्दन, स्वागत और जयजयकार कर रहे थे।

फिर भरत ने चरणपादुकाएँ रामचन्द्र को पहनाते हुये कहा, प्रभो! मेरे पास धरोहर के रूप में रखा हुआ आपका यह सारा राज्य मैंने आज आपके चरणों में लौटा दिया है। आज मेरा जन्म सफल हो गया। आपके प्रताप से राज्य का कोष, सेना आदि सब पहले से दस गुना हो गया है। भरत की बात सुनकर विभीषण तथा समस्त वानरों के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। विमान को कुबेर के पास लौट जाने का आदेश देकर रामचन्द्रजी गुरुवर वसिष्ठ जी के पा आकर बैठ गये।

भरत ने विनयपूर्वक श्रीराम से कहा, रघुनन्दन! अब सबकी यह इच्छा है कि सब लोग आपका शीघ्र से शीघ्र राज्याभिषेक देखें। जब तक नक्षत्रमण्डल घूमता रहे और जब तक यह पृथ्वी स्थित है, तब तक आप इस संसार के स्वामी बने रहें। अब आप इस वनवासी के वेश का परित्याग कर राजसी वेश धारण करें। भरत के प्रेमभरे शब्द सुनकर रघुनाथजी ने तथास्तु कहा और तत्काल राज्याभिषेक की तैयारियाँ होने लगीं। सीता, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, समस्त रानियाँ, विभीषण, सुग्रीव तथा अन्य वानरों ने भी सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये। राजसी वेश धारणकर रामचन्द्रजी नगर की ओर चले। भरत सारथी बनकर उनका रथ चलारहे थे, शत्रुघ्न ने छत्र लगा रखा था, लक्ष्मण रामचन्द्रजी के मस्तक पर चँवर डुला रहे थे। एक ओर लक्ष्मण और दूसरी ओर विभीषण खड़े थे। उन्होंने श्वेत चँवर हाथ में ले रखे थे। वानरराज सुग्रीव शत्रुंजय नामक गज पर सवार थे। समस्त नगरवासियों ने जयजयकार किया और श्रेष्ठियों ने आगे बढ़कर उन्हें बधाई दी। फिर पुरवासी उनके पीछे-पीछे चलने लगे।

श्रीराम के अभिषेक के लिये चारों समुद्रों और समस्त पवित्र सरिताओं का जल मँगवाया गया। वसिष्ठ जी ने सीता सहित श्रीराम को रत्नजटित चौकी पर बिठाया। फिर वसिष्ठ, वामदेव, जावालि, काश्यप, कात्यायन, सुयज्ञ गौतम और विजय ने उनका अभिषेक किया। फिर अन्य मन्त्रियों, सेनापतियों, श्रेष्ठियों आदि ने उनका अभिषेक किया। उस समय श्रीराम ने ब्राह्मण को गौएँ, स्वर्ण मुद्राएँ, बहुमूल्य आभूषण तथा वस्त्रादि बाँटे। फिर उन्होंने विभीषण, सुग्रीव, अंगद तथा अन्य वानरों को भी उपहार दिये। सीता जी ने अपने गले का हार उतारकर स्नेहपूर्वक पवनपुत्र को दिया। फिर सभी वानरादि विदा होकर अपने-अपने स्थानों को चले गये।

राज्य करते हुये राजा रामचन्द्र ने सौ अश्वमेघ यज्ञ तथा पौण्डरी एवं वाजपेय यज्ञ किये। रामराज्य में चोरी, दुराचरण, वैधव्य, बाल-मृत्यु आदि की घटनाएँ कभी नहीं हुईं। सारी प्रजा धर्म में रत रहती थी। इस प्रकार राम ने ग्यारह हजार वर्ष तक राज्य किया।

॥वाल्मीकि रामायण लंकाण्ड समाप्त॥

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