कृष्ण और शल्य
माद्र देश के राजा शल्य बहुत अच्छे योद्धा थे। वे गदा युद्ध में भी निपुण थे। वह नकुल और सहदेव के सगे मामा थे। शल्य अपनी सेना के साथ युद्ध में भाग लेने आ रहे थे। रास्ते में दुर्योधन ने उनकी सेना की खूब आवभगत करी । शल्य को अपनी और मिलाने की यह दुर्योधन की चाल थी। दुर्योधन की आवभगत को शल्य ने युधिष्ठिर की आवभगत समझ लिया था। पर सच्चाई का पता चलने पर वे दुर्योधन के आभारी हो गए। और युद्ध में न चाहते हुए भी उन्हें दुर्योधन का साथ देने के लिए मजबूर होना पड़ा। उन्होंने कृष्ण से सलाह मांगी। कृष्ण ने कहा, “शल्य, आप परेशान न हों। जैसा कौरव चाहते हैं वैसा करें। मुझे पूरा विश्वास है कि पाण्डवों को परेशान करने के लिए आपको कर्ण का सारथी बनाया जाएगा। युद्धक्षेत्र में आप अर्जुन की प्रशंसा करते रहें जिससे कर्ण खिन्न होगा, उसका ध्यान बँटेगा और आत्मविश्वास कम होगा… बस हम यही चाहते हैं।”
कृष्ण द्वारा अर्जुन को गीता का ज्ञान
कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरवों और पाण्डवों की सेना आमने सामने खड़ी थी। अर्जुन का रथ लेकर कृष्ण युद्धभूमि में पहुँचे। अर्जुन ने कृष्ण से रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में ले चलने के लिए कहा। कृष्ण ने अर्जुन के कहने पर रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में ले जाकर खड़ा कर दिया। अर्जुन ने चारों ओर देखा। दोनों और विशाल सेना एक दूसरे के सामने खड़ी थी। फिर उसने भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा अनेक महारथियों को शस्त्र से सज्जित खड़े देखा। अपने रिश्तेदारों, बड़ों और गुरु को मारने के ख्याल से ही वह काँप उठा, उसके हाथ-पैर ठंडे पड़ने लगे और गांडीव उसके हाथ से गिर पड़ा। उसे लगा जैसे उसका शरीर प्राण विहीन हो गया हो। अपने लोगों के खून खराबे का सोचकर वह काँपने लगा और लड़खड़ाकर वहीं रथ पर बैठ गया। उसने युद्ध करने में श्री कृष्ण से अपनी असमर्थता जताई और युद्ध के मैदान से वापस जाने के लिए कहने लगा।
युद्धक्षेत्र में होने वाले खून-खराबे के विषय में विचार करते ही अर्जुन हिम्मत हार बैठा। वह अपने ही स्वजनों एवं मित्रों को मारना नहीं चाहता था। अर्जुन की असहाय अवस्था को देखकर कृष्ण ने उसे गीता का उपदेश दिया। उन्होंने कहा, “तुम्हें सब कुछ भूलकर अपने कर्त्तव्य पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यह शरीर नाशवान है पर आत्मा शाश्वत, अमर और अविनाशी है। इस संसार में मनुष्य अपने कर्मों के आधार पर जीता और मरता है। शरीर के प्रति मोह व्यर्थ है। अनासक्त भाव से मनुष्य को फल की चिंता किए बिना कर्म करना चाहिए। फल ईश्वर के अधीन है। एक क्षत्रिय के लिए युद्ध नहीं करने का अर्थ अपने कर्त्तव्य से विमुख होना है। तुम कायर कहलाओगे, तुम्हारी खिल्ली उड़ेगी और तुम्हें शर्मिन्दगी झेलनी होगी। मोह का त्याग कर कर्म करो। यही क्षत्रियोचित व्यवहार होगा।”
कृष्ण द्वारा कर्मयोग की प्रधानता सुनने के बाद भी अर्जुन का मोह पूरी तरह नहीं गया। उसने संन्यास एवं कर्मयोग में किसकी प्रधानता है जानना चाहा। कृष्ण ने कहा, “दोनों एक ही हैं। परमात्मा में पूरी तरह शरण लेकर किए गए कर्म से ही मोक्ष प्राप्त होता है। किसी भी कार्य में कर्तृत्व भाव (मैं करता हूँ) या भोक्ता भाव (फल मुझे भोगना चाहिए) का त्याग योगी के लिए आवश्यक है। आसक्ति रहित होकर स्वधर्म का पालन आवश्यक है। पुरुष बिना कर्म के क्षण भर भी नहीं रह सकता। अपने स्वभाव एवं वर्ण आश्रम के अनुकूल निष्काम कर्म कर वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। कृष्ण ने बार-बार अर्जुन को समझाया और कहा, “तुम पूरी श्रद्धा के साथ मेरी शरण में आओ और युद्ध करो। यही तुम्हारा कर्म है। मैं तुम्हारे हितों की रक्षा करूँगा।” अंत में अर्जुन का मोह भंग हुआ और कृष्ण की शरण में जाकर उसने युद्ध किया।