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भगवान को पाने का सही रास्ता

बहुत साल पहले एक संत हुआ करते थे, जिनका नाम था – ”आचार्य रामानुज ”, आचार्य रामानुज जी ने अपने पास आने वाले परेशान व्यक्तियों को बस यही उपदेश दिया करते थे कि – ‘प्रेम की भावना ही सबसे शक्तिशाली भावना है, इसलिए तुम सभी सिर्फ परमात्मा और परमात्मा की द्वारा बनाई गई इस सृष्टि तथा जीव-जंतुओं से प्रेम करो, और अपनी सभी परेशानियों को परमात्मा को समर्पित कर दो, तो वह परमात्मा जिससे तुम प्रेम करते हो वह तुम्हारी सभी परेशानियों को अवश्य दूर कर देगा,’

आचार्य रामानुज के इस आसान से उपदेश को सभी भक्त बरी ही आसानी से समझ जाते तथा परमात्मा और सभी जीव जंतुओं से प्रेम करके अपने जीवन को सफल बनाने में कामयाब हो जाते थे।

एक दिन की बात है कि – आचार्य रामानुज अपने कुछ भक्तों को अपना यही उपदेश दे रहे थे, तभी एक लड़का उनके कदमों में आकर बैठ जाता है, (लड़के का नाम है – भरत)

और आश्चर्य की पैर पकड़कर कहता है कि – ‘गुरुवर मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूं’,

आचार्य ने उस भरत को कुछ पल ध्यान से देख कर उसे पूछा कि – ‘तुम मेरे शिष्य क्यों बनना चाहते हो ?’

तो भरत ने कहा कि – ‘मुझे परमात्मा से प्रेम करना है, अभी तक मैंने बहुत कोशिश की, बहुत से संतों से संगत की परंतु में परमात्मा से प्रेम नहीं कर पाया, इसलिए अब आप की शरण में आया हूं’,

भरत की बात सुनकर आचार्य रामानुज ने उससे पूछा कि – ‘तुम अपनी जीवन में सबसे अधिक प्रेम किससे करते हो’,

तो भरत ने तुरंत ही जवाब दिया कि – ‘मैं किसी से भी प्रेम नहीं करता हूं’

भरत का ये जवाब सुनकर आचार्य जी थोड़ा चौंकते हैं तथा भरत से फिर प्रश्न करते हुए पूछते हैं कि – ‘तुम अपने माता-पिता, भाई-बहन किसी से तो प्रेम करते होंगे ?’,

भरत ने आचार्य जी से कहा कि – ‘यह माता-पिता, भाई-बहन ये सभी रिश्ते स्वार्थ से भरे होते हैं, इसलिए मैं अपने जीवन में परमात्मा को शुरू कर किसी और को अपने दिल में कोई भी स्थान नहीं देता हूं’,

भरत का यह जवाब सुनकर आचार्य जी ने बड़े ही प्यार से उसे समझाते हुए कहा कि – ‘बेटा तुम मेरे शिष्य बन कर भी परमात्मा से प्रेम नहीं कर सकते हो, इसलिए मेरा शिष्य बनना भी तुम्हारे लिए व्यर्थ ही होगा’,

आचार्य की यह बात सुनकर उस भरत ने आचार्य जी से पूछा कि – ‘मुझ में ऐसी क्या कमी है, जिसके कारण में परमात्मा से प्रेम नहीं कर पा रहा हूं ?’,

तो आचार्य जी इन्हें भरत को समझाते हुए कहा कि – ‘पुत्र, एक बात तो यह है की – तुम को, मुझ को, इस सृष्टि को और सृष्टि के इन सभी जीव-जंतुओं को उसी परमात्मा ने बनाया है,
जिसे तुम प्रेम करना चाहते हो, जब तुम उस परमात्मा की बनाई हुई किसी भी चीज से प्रेम नहीं कर सकते हो, तो फिर तुम परमात्मा से प्रेम कैसे कर पाओगे ?’

दूसरी बात यह है कि – ‘एक छोटी सी बीज से ही विशाल बृक्ष की कल्पना की जा सकती है, इसलिए जब तक तुम्हारे भीतर प्रेम भाव का छोटा सा बीज नहीं होगा, तब तक मैं तुम्हारे भीतर प्रेम का वह पवित्र झरना कैसे बहा सकता हूं, जिससे परमात्मा को प्रेम पास में बंधा जा सके ‘ .
 
Moral – आचार्य रामानुज की बात भरत की समझ में आ गई थी, इसलिए उसने अपना सर आचार्य के पैरों पर रख दिया, और उस दिन से वह अपने माता-पिता, भाई-बहन से ही नहीं सृष्टि की सभी जीव-जंतुओं से प्रेम करने लगा था, ‘जिससे उसका जीवन सफल हो गया।’

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