श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 5) | Shrimad Bhagavatam Hindi

हरे कृष्ण। इस पोस्ट में श्रीमद भागवत महापुराण के स्कन्ध 5 के सम्पूर्ण अर्थ संग्रह किया हुआ है। आशा है आप इसे पढ़के इसी जन्म में इस जन्म-मरण के चक्कर से ऊपर उठ जायेंगे और आपको भगवद प्राप्ति हो जाये। तो चलिए शुरू करते हैं – जय श्री राधा-कृष्ण

श्रीमद् भागवत महापुराण – स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा

अध्याय 1: महाराज प्रियव्रत का चरित्र

संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बताया गया है कि राजा प्रियव्रत किस प्रकार से राजसी ऐश्वर्य तथा वैभव भोग कर पुन: पूर्ण ज्ञान को परावृत हुए। राजा प्रियव्रत पहले सांसारिक ऐश्वर्य…

श्लोक 1: राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा—हे मुनिवर, परम आत्मदर्शी भगवद्भक्त राजा प्रियव्रत ने ऐसे गृहस्थ जीवन में रहना क्यों पसन्द किया, जो कर्म-बन्धन (सकाम कर्म) का मूल कारण तथा मानव जीवन के उद्देश्य को पराजित करने वाला है?

श्लोक 2: भक्त-जन निश्चय ही मुक्त पुरुष होते हैं। अत: हे विप्रवर, वे सम्भवत: गृहकार्यों में दत्तचित्त नहीं रह सकते।

श्लोक 3: जिन सिद्ध महात्माओं ने भगवान् के चरणकमलों की शरण ली है वे उन चरणकमलों की छाया से पूर्णतया तृप्त हैं। उनकी चेतना कभी भी कुटुम्बीजनों में आसक्त नहीं हो सकती।

श्लोक 4: राजा ने आगे पूछा, हे विप्रवर, मेरा सबसे बड़ा सन्देह यही है कि राजा प्रियव्रत जैसे व्यक्ति के लिए, जो अपनी पत्नी, सन्तान तथा घर के प्रति इतने आसक्त थे, कृष्ण-भक्ति में सर्वोच्च अविचल सिद्धि प्राप्त कर पाना कैसे सम्भव हो सका?

श्लोक 5: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा—तुम्हारा कथन सही है। ब्रह्मा के समान सिद्ध पुरुषों के द्वारा दिव्य श्लोकों से प्रशंसित भगवान् की कीर्ति परम भक्तों तथा मुक्त पुरुषों के लिए अत्यन्त मनोहारी है। जो भगवान् के चरणकमलों के अमृततुल्य मधु में अनुरक्त है तथा जिसका मन सदैव उनकी कीर्ति में लीन रहता है, वह भले ही कभी कभी किसी बाधा से रुक जाये, किन्तु जिस परम पद को उसने प्राप्त किया है उसे वह कभी नहीं छोड़ता।

श्लोक 6: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—हे राजन्, राजकुमार प्रियव्रत महान् भक्त थे क्योंकि उन्होंने अपने गुरु नारद के चरणकमलों को प्राप्त कर दिव्य ज्ञान में उच्चतम सिद्धि प्राप्त की। परम ज्ञान के कारण वे आत्म-विषयों की चर्चा में सदैव संलग्न रहे और उन्होंने अपना ध्यान किसी ओर नहीं मोड़ा। इसके बाद राजकुमार के पिता ने आदेश दिया कि वह संसार पर राज्य करने का भार ग्रहण करे। उन्होंने प्रियव्रत को आश्वस्त करना चाहा कि शास्त्रों के अनुसार यह उसका कर्तव्य है, किन्तु प्रियव्रत ने तो निरन्तर भक्तियोग की साधना में रत रह कर भगवान् का स्मरण करते हुए समस्त इन्द्रियों को ईश्वर की सेवा में अर्पित कर रखा था। अत: पिता की आज्ञा अनुलंघ्य होने पर भी राजकुमार ने उसका स्वागत नहीं किया। इस प्रकार उन्होंने अपने अन्त:करण में यह प्रश्न किया कि संसार पर राज्य करने के उत्तरदायित्व को स्वीकार करके कहीं वे अपनी भक्ति से पराङ्मुख तो नहीं हो जायेंगे?

श्लोक 7: श्रीशुकदेव गोस्वामी आगे बोले: इस ब्रह्माण्ड के आदि जीव एवं सर्वशक्तिमान देवता ब्रह्माजी हैं, जो इस सृष्टि की समस्त गतिविधियों के विकास के लिए उत्तरदायी हैं। भगवान् से प्रत्यक्ष जन्म लेकर वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के हित को ध्यान में रखते हुए कार्य करते हैं, क्योंकि वे सृष्टि का उद्देश्य जानते हैं। ऐसे परम शक्तिशाली देवता ब्रह्माजी अपने पार्षदों तथा मूर्तिमान वेदों सहित अपने सर्वोच्च लोक से उस स्थान पर उतरे जहाँ राजकुमार प्रियव्रत ध्यान कर रहे थे।

श्लोक 8: ज्योंही भगवान् ब्रह्मा अपने वाहन हंस पर आरूढ होकर नीचे उतरे, तो सिद्धलोक, गंधर्वलोक, साध्यलोक तथा चारणलोक के समस्त वासी तथा मुनि एवं अपने-अपने विमानों में उड़ते हुए देवताओं ने आकाशमण्डल के नीचे एकत्र होकर उनका स्वागत किया और पूजा की। विभिन्न लोकों के वासियों से आदर तथा स्तवन पाकर भगवान् ब्रह्मा ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों प्रकाशमान नक्षत्रों से घिरा हुआ पूर्ण चन्द्रमा हो। तब ब्रह्माजी का विशाल हंस गंधमादन की घाटी में प्रियव्रत के पास पहुँचा जहाँ वे बैठे हुए थे।

श्लोक 9: नारद मुनि के पिता भगवान् ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड के सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। नारद ने ज्योंही विशाल हंस को देखा, वे तुरन्त समझ गये कि ब्रह्माजी आए हैं, अत: वे स्वायंभुव मनु तथा अपने द्वारा उपदेश दिये जाने वाले उनके पुत्र प्रियव्रत सहित अविलम्ब खड़े हो गये। तब उन्होंने हाथ जोडक़र आदरपूर्वक भगवान् की आराधना प्रारम्भ की।

श्लोक 10: हे राजा परीक्षित, चूँकि ब्रह्माजी सत्यलोक से भूलोक में उतर चुके थे, अत: नारद मुनि, राजकुमार प्रियव्रत तथा स्वायंभुव मनु ने आगे बढक़र पूजन सामग्री अर्पित की और वैदिक विधि के अनुसार अत्यन्त शिष्ट वाणी से उनकी प्रशंसा की। तब इस ब्रह्माण्ड के प्रथम पुरुष ब्रह्मा प्रियव्रत पर सदय मन्द मुस्कान-युक्त दृष्टि डालते हुए उनसे इस प्रकार बोले।

श्लोक 11: इस ब्रह्माण्ड के परम पुरुष भगवान् ब्रह्मा ने कहा—हे प्रियव्रत, मैं जो कुछ कहूँ उसे ध्यान से सुनो। परमेश्वर से ईर्ष्या न करो क्योंकि वे हमारे प्रयोगात्मक परिमापों से परे हैं। हम सबों को, जिसमें शिवजी, तुम्हारे पिता तथा महर्षि नारद भी सम्मिलित हैं, परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना पड़ता है। हम उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते।

श्लोक 12: भगवान् की आज्ञा को कोई न तो तपोबल, वैदिक शिक्षा, योगबल, शारीरिक बल या बुद्धिबल से टाल सकता है, न ही कोई अपने धर्म की शक्ति या भौतिक ऐश्वर्य से अथवा किसी अन्य उपाय से, न स्वयं या न पराई सहायता से परमात्मा के आदेशों को चुनौती दे सकता है। ब्रह्मा से लेकर एक चींटी तक, किसी भी जीवात्मा के लिए ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है।

श्लोक 13: हे प्रियव्रत, भगवान् की आज्ञा से ही सभी जीवात्माएँ जन्म, मृत्यु, कर्म, शोक, मोह, भविष्य के संकटों के प्रति भय, सुख तथा दुख के हेतु विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करती हैं।

श्लोक 14: हे बालक, हम सभी अपने गुण तथा कर्म के अनुसार वैदिक आज्ञा द्वारा वर्णाश्रम विभागों में बँधे हुए हैं। इन विभागों से बच पाना कठिन है, क्योंकि ये वैज्ञानिक विधि से व्यवस्थित हैं। अत: हमें वर्णाश्रम धर्म के कर्तव्यों का पालन उन बैलों के समान करना चाहिए जो नाक में बँधी नकेल खींचने वाले चालक के आदेश पर चलने के लिए बाध्य हैं।

श्लोक 15: हे प्रियव्रत, भगवान् विभिन्न गुणों के साथ हमारे संसर्ग के अनुसार हमें विशिष्ट शरीर प्रदान करते हैं और हम सुख तथा दुख प्राप्त करते हैं। अत: मनुष्य को चाहिए कि वह जिस रूप में है वैसे ही रहे और भगवान् द्वारा उसी प्रकार मार्गदर्शन प्राप्त करे जिस प्रकार एक अंधा व्यक्ति आँख वाले व्यक्ति से प्राप्त करता है।

श्लोक 16: मुक्त होते हुए भी मनुष्य पूर्व कर्मों के अनुसार प्राप्त देह को स्वीकार करता है। किन्तु वह भ्रान्तिरहित होकर कर्म-वश प्राप्त सुख तथा दुख को उसी प्रकार मानता है, जिस प्रकार जाग्रत मनुष्य सुप्तावस्था में देखे गये स्वप्न को। इस तरह वह दृढ़प्रतिज्ञ रहता है और भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के वशीभूत होकर दूसरा शरीर पाने के लिए कभी कार्य नहीं करता।

श्लोक 17: जो मनुष्य इन्द्रियों के वशीभूत है, भले ही वह वन-वन विचरण करता रहे, तो भी उसे बन्धन का भय बना रहता है क्योंकि वह मन तथा ज्ञानेन्द्रियाँ—इन छ: सपत्नियों के साथ रह रहा होता है। किन्तु आत्मतुष्ट विद्वान जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया हो, उसे गृहस्थ जीवन कोई क्षति नहीं पहुँचा पाता।

श्लोक 18: गृहस्थाश्रम में रह कर जो मनुष्य अपने मन तथा पाँचों इन्द्रियों को विधिपूर्वख जीत लेता है, वह उस राजा के समान है, जो अपने किले (दुर्ग) में रहकर अपने बलशाली शत्रुओं को पराजित करता है। गृहस्थाश्रम में प्रशिक्षित हो जाने पर तथा कामेच्छाओं को क्षीण करके मनुष्य बिना किसी भय के कहीं भी घूम सकता है।

श्लोक 19: ब्रह्माजी ने आगे कहा—हे प्रियव्रत, कमलनाभ ईश्वर के चरणकमल के कोश में शरण लेकर छहों ज्ञान इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करो। तुम भौतिक सुख-भोग स्वीकार करो, क्योंकि भगवान् ने तुम्हें विशेष रूप से ऐसा करने के लिए आज्ञा दी है। इस तरह तुम भौतिक संसर्ग से मुक्त हो सकोगे और अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहते हुए भगवान् की आज्ञाएँ पूरी कर सकोगे।

श्लोक 20: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—इस प्रकार तीनों लोकों के गुरु ब्रह्माजी द्वारा भलीभाँति उपदेश दिये जाने पर अपना पद छोटा होने के कारण प्रियव्रत ने नमस्कार करते हुए उनका आदेश शिरोधार्य किया और अत्यन्त आदरपूर्वक उसका पालन किया।

श्लोक 21: इसके पश्चात् मनु ने ब्रह्माजी को संतुष्ट करते हुए विधिवत् पूजा की। प्रियव्रत तथा नारद ने भी किसी प्रकार का विरोध दिखाये बिना ब्रह्माजी की ओर देखा। प्रियव्रत से उसके पिता की मनौती स्वीकार कराकर ब्रह्माजी अपने धाम सत्यलोक को चले गये, जिसका वर्णन भौतिक मन तथा वाणी के परे है।

श्लोक 22: इस प्रकार ब्रह्माजी की सहायता से स्वायंभुव मनु का मनोरथ पूर्ण हुआ। उन्होंने महर्षि नारद की अनुमति से अपने पुत्र को समस्त भूमण्डल के पालन का भार सौंप दिया और इस तरह स्वयं भौतिक कामनाओं के अति दुस्तर तथा विषमय सागर से निवृत्ति प्राप्त कर ली।

श्लोक 23: भगवान् की आज्ञा का पालन करते हुए महाराज प्रियव्रत सांसारिक कार्यों में अनुरक्त रहने लगे, किन्तु उन्हें सदैव भगवान् के उन चरणकमलों का ध्यान बना रहा जो समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्ति दिलाने वाले हैं। यद्यपि महाराज प्रियव्रत समस्त भौतिक कल्मषों से विमुक्त थे, किन्तु अपने बड़ों का मान रखने के लिए ही वे इस संसार पर शासन करने लगे।

श्लोक 24: तदनन्तर महाराज प्रियव्रत ने प्रजापति विश्वकर्मा की कन्या बर्हिष्मती से विवाह किया। उससे उन्हें दस पुत्र प्राप्त हुए जो सुन्दरता, चरित्र, उदारता तथा अन्य गुणों में उन्हीं के समान थे। उनके एक पुत्री भी हुई जो सबसे छोटी थी। उसका नाम ऊर्जस्वती था।

श्लोक 25: महाराज प्रियव्रत के दस पुत्रों के नाम थे—आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र तथा कवि। ये अग्निदेव के भी नाम हैं।

श्लोक 26: इन दस पुत्रों में से तीन—कवि, महावीर तथा सवन—पूर्ण ब्रह्मचारी रहे। इस प्रकार बालपन से ब्रह्मचर्य जीवन की शिक्षा प्राप्त करने के कारण वे सर्वोच्च सिद्धि अर्थात् परमहंस आश्रम से पूर्णतया परिचित थे।

श्लोक 27: जीवन प्रारम्भ से ही संन्यास आश्रम में रहकर ये तीनों अपनी इन्द्रियों को पूर्णतया वश में करते हुए महान सन्त हो गये। उन्होंने अपने मन को उन भगवान् के चरणकमलों में सदैव केन्द्रित रखा, जो समस्त जीवात्माओं के विश्रामस्थल (आश्रय) हैं और वासुदेव नाम से विख्यात हैं। जो भव-स्थिति से भयभीत हैं उनके लिए भगवान् वासुदेव ही एकमात्र शरण हैं। भगवान् के चरणकमलों का निरन्तर ध्यान धारण करने के कारण महाराज प्रियव्रत के ये तीनों पुत्र शुद्ध भक्ति से सिद्ध बन गये। वे अपनी भक्ति के बल से परमात्मा के रूप में प्रत्येक के हृदय में निवास करने वाले भगवान् का प्रत्यक्ष दर्शन कर सके और इसका अनुभव कर सके कि उनमें तथा भगवान् में, गुण के अनुसार, कोई अन्तर नहीं है।

श्लोक 28: महाराज प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से तीन पुत्र उत्पन्न हुए जिनके नाम उत्तम, तामस तथा रैवत थे। बाद में इन्होंने मनवन्तर कल्पों का भार सँभाला।

श्लोक 29: इस प्रकार से कवि, महावीर तथा सवन के परमहंस अवस्था में भलीभाँति प्रशिक्षित हो जाने पर महाराज प्रियव्रत ने ग्यारह अर्बुद वर्षों तक ब्रह्माण्ड पर शासन किया। जिस समय वे अपनी बलशाली भुजाओं से धनुष की डोरी खींच कर तीर चढ़ा लेते थे उस समय धार्मिक जीवन के नियमों को न मानने वाले उनके विपक्षी विश्वपर शासन करने के उनके अद्वितीय शौर्य से डर कर न जाने कहाँ भाग जाते थे। वे अपनी पत्नी बर्हिष्मती को अगाध प्यार करते थे और समय बीतने के साथ ही उनका प्रणय भी बढ़ता गया। अपनी स्त्रियोचित वेशभूषा, उठने-बैठने, हँसी तथा चितवन से महारानी बर्हिष्मती उन्हें शक्ति प्रदान करती थी। इस प्रकार महात्मा होते हुए भी वे अपनी पत्नी के स्त्री-उचित व्यवहार में खो गये। वे उसके साथ सामान्य पुरुष-सा आचरण करते, किन्तु वे वास्तव में महान् आत्मा थे।

श्लोक 30: इस प्रकार सुचारु रूप से राज्य करते हुए राजा प्रियव्रत एक बार परम बलशाली सूर्यदेव की परिक्रमा से असन्तुष्ट हो गये। सूर्यदेव अपने रथ पर आरूढ़ होकर सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करते हुए समस्त लोकों को प्रकाशित करते हैं, किन्तु जब सूर्य उत्तर दिशा में रहता है, तो दक्षिण भाग को कम प्रकाश मिलता है और जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है, तो उत्तर भाग को कम प्रकाश मिलता है। राजा प्रियव्रत को यह स्थिति नहीं भायी इसलिए उन्होंने संकल्प किया कि ब्रह्माण्ड के उस भाग में जहाँ रात्रि है, वहाँ वे दिन कर देंगे। उन्होंने एक प्रकाशमान रथ पर चढक़र सूर्यदेव की कक्ष्या का पीछा करके अपनी इच्छा पूर्ण की। वे ऐसे विस्मयजनक कार्यकलाप इसीलिए कर पाये, क्योंकि उन्होंने भगवान् की उपासना के द्वारा शौर्य अर्जित किया था।

श्लोक 31: जब प्रियव्रत ने अपना रथ सूर्य के पीछे हाँका, तो उनके रथ के पहियों की परिधि से जो चिह्न बन गये वे ही बाद में सात समुद्र हो गये और भूमण्डल सात द्वीपों में विभाजित हो गया।

श्लोक 32: (सात) द्वीपों के नाम हैं—जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक तथा पुष्कर। प्रत्येक द्वीप अपने से पहले वाले द्वीप से आकार में दुगुना है और एक तरल पदार्थ से घिरा है, जिसके आगे दूसरा द्वीप है।

श्लोक 33: ये सातों समुद्र क्रमश: खारे जल, ईख के रस, सुरा, घृत, दुग्ध, मट्ठा तथा मीठे पेय जल से पूर्ण हैं। सभी द्वीप इन सागरों से पूर्णतया घिरे हैं और प्रत्येक समुद्र घिरे हुए द्वीप के समान चौड़ा है। रानी बर्हिष्मती के पति महाराज प्रियव्रत ने इन द्वीपों का एकक्षत्र राज्य अपने पुत्रों को दे दिया जिनके नाम क्रमश: आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि तथा वीतिहोत्र थे। इस प्रकार अपने पिता के आदेश से ये सभी राजा बन गये।

श्लोक 34: उसके बाद राजा प्रियव्रत ने अपनी पुत्र ऊर्जस्वती का विवाह शुक्राचार्य से कर दिया, जिसके गर्भ से देवयानी नामक पुत्री उत्पन्न हुई।

श्लोक 35: हे राजन्, जिस भक्त ने भगवान् के चरणारविन्दों की धूलि में शरण ली है, वह षड् विकारों अर्थात् भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मृत्यु के प्रभाव तथा मन समेत छहों इन्द्रियों को जीत सकता है। किन्तु भगवान् के शुद्ध भक्त के लिए यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं क्योंकि चारों वर्णों से बाहर का व्यक्ति अर्थात् अस्पृश्य व्यक्ति भी भगवान् के नाम का एक बार उचार कर लेने मात्र से भौतिक बन्धनों से तुरन्त छूट जाता है।

श्लोक 36: इस प्रकार अपने पूर्ण पराक्रम तथा प्रभाव से भौतिक ऐश्वर्य का भोग करते हुए महाराज प्रियव्रत एक बार यह सोचने लगे कि यद्यपि मैं महामुनि नारद के समक्ष आत्मसमर्पण कर चुका था और वास्तव में कृष्णभावनामृत के मार्ग पर था, किन्तु मैं अब न जाने क्यों फिर से भौतिक कार्यों के बन्धन में फँस गया हूँ। इस प्रकार उनका मन अशान्त हो उठा। वे विरक्त होकर बोलने लगे।

श्लोक 37: राजा ने अपनी भर्त्सना इस प्रकार की—ओह! इन्द्रिय-भोग के कारण मैं कितना धिक्कारा जाने योग्य हो गया हूँ। मैं अब भौतिक सुख के अंधकूप में गिर गया हूँ। बहुत हुआ! अब मुझे और भोग नहीं चाहिए। तनिक मेरी ओर देखो—मैं कैसे अपनी पत्नी के हाथों में नाचने वाला बन्दर बन गया हूँ। इसलिए मुझे धिक्कार है।

श्लोक 38: भगवान् के अनुग्रह से महाराज प्रियव्रत का विवेक पुन: जाग्रत हो उठा। उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति अपने आज्ञाकारी पुत्रों में बाँट दी। अपनी पत्नी को जिसके साथ उन्होंने इन्द्रियसुख भोगा था और प्रभूत ऐश्वर्यशाली राज्य सहित सब कुछ त्याग कर वे सभी प्रकार की आसक्ति से रहित हो गये। विमल हो जाने से उनका हृदय भगवान् की लीलाओं का स्थल बन गया। इस प्रकार वे कृष्णभावनामृत के पथ पर पुन: लौट आये और महामुनि नारद के अनुग्रह से जिस पद को प्राप्त किया था उसको फिर से धारण किया।

श्लोक 39: महाराज प्रियव्रत के कर्मों से सम्बन्धित अनेक श्लोक प्रसिद्ध हैं—“जो कुछ महाराज प्रियव्रत ने किया उसे भगवान् के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता था। उन्होंने रात्रि के अंधकार को दूर किया और अपने रथ के पहियों की नेमी से सात समुद्र बना दिये।”

श्लोक 40: “विभिन्न लोगों में पारस्परिक झगड़ों को रोकने के लिए महाराज प्रियव्रत ने नदियों, पर्वतों के किनारों तथा वनों के द्वारा राज्यों की सीमाएँ निर्धारित कीं, जिससे कोई एक दूसरे की सम्पत्ति में घुस न सके।”

श्लोक 41: “नारद मुनि के महान् अनुयायी तथा भक्त महाराज प्रियव्रत ने अपने सकाम कर्मों तथा योग से प्राप्त किये गये समस्त ऐश्वर्य को, चाहे वह स्वर्गलोग, अधोलोक अथवा मानव समाज का हो, नरक तुल्य समझा।”

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